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उद्धव, खड़गे, स्टालिन प्रधानमंत्री बनें तो मोदी से कई गुना बेहतर पीएम होंगे!

जनसभाओं में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का डर बोल रहा है। बिहार के झंझारपुर में अमित शाह बोल पड़े कि इंडी गठबंधन जीता तो इसका कौन होगा प्रधानमंत्री? बताइए क्या लालू होंगे, स्टालिन होंगे, राहुल गांधी होंगे? मतलब लायक सिर्फ नरेंद्र मोदी हैं, बाकी सब नालायक! क्या सचमुच? पहली बात, दुनिया जानती है कि लालू यादव सजायाफ्ता हैं। इसलिए वे कानूनन प्रधानमंत्री पद की शपथ के अयोग्य है और वे संसद का चुनाव भी नहीं लड़ रहे हैं। इसलिए उनका नाम लेना झूठ से लोगों को डराना है। अब बुनियादी सवाल है विपक्ष में और कोई जैसे मल्लिकार्जुन खड़गे, उद्धव ठाकरे, स्टालिन, राहुल गांधी, ममता बनर्जी या डॉ. मनमोहन सिंह की लीक पर रघुराम राजन जैसे किसी पेशेवर की बतौर प्रधानमंत्री पद की शपथ हुई तो वह देश का बेड़ागर्क करने वाली होगी या नरेंद्र मोदी से उनका बेहतर राज होगा?

मेरा मानना है इनमें से कोई भी प्रधानमंत्री बने, वह मोदी से लाख गुना बेहतर राज देगा। ‘लाख गुना’ भारी शब्द है। पर पिछले दस वर्षों में जरा घर-परिवार के अपने और देश के अनुभवों को याद करें तो यह जुमला भी वाजिब लगेगा।

ईमानदारी से सोचें, ईश्वर की शपथ लेकर खुद के अनुभवों में इस सत्य को स्वंय बूझें कि पिछले दस सालों में नरेंद्र मोदी से क्या बना है? लोगों का सुख-चैन बढ़ा या बिगड़ा? क्या तथ्य नहीं कि मोदी के राज में लोग बेइंतहां बेमौत मरे हैं। बेमौत लाशें गंगा में (दुनिया में ऐसा कही नहीं हुआ) बही हैं? अब तो यह भी साबित है कि नरेंद्र मोदी ने उस कोविशील्ड वैक्सीन को प्रमोट किया, जिसके साइड इफेक्ट में नौजवानों को हार्टअटैक होने से लेकर न जाने कैसी-कैसी बीमारी होने के अनुमान हैं। लोगों की जान गई तो लोगों का माल भी गया। नोटबंदी जैसी नालायकी से लोगों की अर्जित कमाई हराम हुई। घर की महिलाओं का, परिवार का पैसा काला करार दिया गया। हर घर (भले मोदी भक्त न मानें पर उनके घरों का भी यही अनुभव होगा) नई-नई चिंताओं में है। किसी से भी बात करें, वह बीमारी, मेडिकल खर्च का रोना रोता मिलेगा। या स्कूल, ट्यूशन, कोचिंग खर्च याकि महंगी शिक्षा को लेकर परेशान है। नौजवान दंपतियों में अब यह डायलॉग है कि पहले रोजगार और इतना वेतन तो हो जाए जो बच्चा पैदा कर नर्सरी फीस चुका सकने का भरोसा बने। हर घर का बजट महंगे पेट्रोल-ईंधन-बिजली के खर्च से बिगड़ा है। हां, नरेंद्र मोदी ने महंगाई बढ़ा कर अर्थव्यवस्था बढ़ाई है। मजदूर, किसान, पकौड़े के खोमंचा मालिक सबका खून चूस कर मतलब फावड़े से लेकर बीज, खाद, पकौड़े के तेल, बेसन जैसी चीजों पर 5-18-28 प्रतिशत जीएसटी टैक्स वसूल करके मोदी राज ने अपनी फिजूलखर्चियों का शौक पूरा किया है।

ऐसा 2014 के भारत में नहीं था। तब भारत के घर-परिवारों में दिक्कतों के बावजूद जीवन सुख-चैन से था। परिवारों में स्कूल फीस की चिंता आज जैसी नहीं थी। डॉक्टर सौ, दो सौ, पांच सौ रुपए की फीस पर मरीज देखते थे। ढाबे, रेस्टोरेंट पर सौ-सवा सौ रुपए में खाना हो जाता था। तब लोगों पर न धर्म का बोझ था, न हिंदू-मुस्लिम के चौबीसों घंटे के नैरेटिव में दिमाग एक-दूसरे को गाली देने का था। न जात और आरक्षण की जिद्द में समाज के संबंधों में स्थायी तनातनी थी। बतौर समाज यदि सोचें तो पिछले दस सालों में आरक्षण, जातीय खींचतान का जो लगातार नैरेटिव है वह आजाद भारत के इतिहास में पहले कब था? अब हर दिन, हर महीना झगड़े और विग्रह का। तू-तू, मैं-मैं, गाली गलौज, अशिष्टता, खरीद फरोख्त, सरकारी एजेंसियों के आतंक, उनकी छापेमारी, अनर्गल आरोप और तमाम तरह का झूठा, अंधविश्वासी व्यवहार और बातों का एक ऐसा दस वर्षीय कार्यक्रम नरेंद्र मोदी के राज में चला है, जिससे न तो राष्ट्रीय नैरेटिव में कभी शांति आई और न शहर, गांव-देहात के लोकाचार में सहज-सुकून भरा जीवन है।

सन् 2014 तक भारत में राजनीति आरोप-प्रत्यारोपों सहित विचार केंद्रित थी। वही 2014 से 2024 में क्या हुआ? वह बाप-दादाओं को गालियां देने, जेल में डालने, ईडी के छापों, सत्ता के गुरूर व ताकत और पैसे से तोड़फोड़ की राजनीति का ऐसा अतिवाद है, जिसे बूझ गांधी हो या सावरकर, नेहरू हो या दीनदयाल, इंदिरा हो या वाजपेयी सभी की आत्माएं यह सोच दहाड़ें मार कर रो रही होगी कि भारत को यह कैसा प्रधानमंत्री मिला।

सन् 2014 बनाम 2024 का यह फर्क है जो तब सस्ती-धीमी गति की रेलगाड़ी के भीड़ भरे सफर का देश के सभी लोगों का अनुभव बराबरी के स्तर का था। जबकि अब 2024 में 140 करोड़ लोगों की आबादी में दस-बीस करोड़ लोगों के लिए वंदे भारत ट्रेनें और एयरलाइंस (वे भी लूटती हुई) हैं। वही बाकी 120 करोड़ लोग ट्रेन और बस के सस्ते सफर की सहूलियत के लिए तरसते हुए हैं। इसलिए दस वर्षों की बुनियादी बात जीवन का जीना चिंताओं और कंजूसियों व कर्जों में है। लोगों और देश दोनों का। दस वर्षों में घर-परिवारों की कितनी व किस-किस तरह से जेब काटी गई है और किस पैमाने पर लूट हुई है, इसका यदि कोई हिसाब लगाने बैठे तो वह आजाद भारत के इतिहास का सबसे बड़ा अकल्पनीय आंकड़ा होगा। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी ‘लायक’ और पूरे देश में, 140 करोड़ लोगों में बाकी सब प्रधानमंत्री पद के लिए ‘नालायक’ (योगी आदित्यनाथ, अमित शाह भी), तो इसका क्या अर्थ है? क्या यह नहीं कि भारत के मतदाता और उनकी राजनीति इतनी बांझ है जो उसमें सिर्फ एक व्यक्ति लायक! और उसी को चुने रहने की नियति भोगने के लिए श्रापित।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह विपक्ष में कौन प्रधानमंत्री का जो सवाल पूछ रहे हैं, वह सर्वप्रथम तो जनता में भय बनाना है। साथ ही यह संविधान और लोकतंत्र की मूल आत्मा (हर मतदाता, हर सांसद, प्रधानमंत्री लायक) को कुचलना है। ये लोकतंत्र की बजाय एक व्यक्ति की राजशाही, हुकुमशाही को बेशर्मी से स्थापित करना हैं। तभी तो मोदी न केवल अपने को हिंदुओं का भगवान व चक्रवर्ती राजा माने हुए हैं और दरबारियों से जनसभाओं में पूछवा रहे हैं कि क्या राजाधिराज नरेंद्र मोदी के आगे कोई लायक है?

क्यों? क्या भारत माता की कोख इतनी बांझ हो गई है, जो प्रधानमंत्री लायक दूसरा कोई माई का लाल नहीं है? नहीं, ऐसा कतई नहीं है। ऐसे दर्जनों लोग हैं, जो नरेंद्र मोदी की दस साला खाक के मुकाबले अमन-चैन लौटा लाने की ठोस बंद मुट्ठी लिए हुए हैं!

सोचें, क्या कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे मोदी से अधिक लायक प्रधानमंत्री नहीं होंगे? भाजपा और संघ परिवार उन्हें क्यों नहीं लायक मानता? क्या इसलिए कि वे एक दलित के घर में पैदा हुए हैं? या वे मोदी जैसी खरबपतियों (अडानी, अंबानी) की गुजराती संगत लिए हुए नहीं हैं! जबकि 81 वर्षीय मल्लिकाजुर्न खड़गे घर-परिवार की सभी जिम्मेवारियों का अनुभव लिए हुए हैं। बारह दफा विधायक-सासंद रहे हैं। साथ ही उनका प्रदेश और केंद्र सरकारों में मंत्री रहने का विशाल अनुभव है। वे कन्नड़, अंग्रेजी और हिंदी तीनों में धाराप्रवाह हैं। इसका दसवां हिस्सा भी मोदी के बायोडेटा में नहीं है। खड़गे उग्र दलितवादी नहीं हैं। उनमें मोदी की तरह एकला चलो वाला एकलखोरापन नहीं है। सोचे, खड़गे के फायदे। उत्तर दक्षिण का रियल संगम होगा। दलित और आदिवासी अपने को सशक्त हुआ मानेंगे। सनातनी हिंदुओं का दुनिया में यह मान बनेगा कि भारत की सनातनी संस्कृति में जाति भेद होते हुए भी ऐसा कोई दुराव नहीं है जो वहां सत्ता के सर्वोच्च पद पर दलित प्रधानमंत्री न बैठ पाए। सनातनी हिंदुओं की सामाजिक-क्षेत्रीय समरसता व सांस्कृतिक एकता का मान बनेगा। वे भारत के ओबामा माने जाएंगे। भारत में जिंदगी नॉर्मल बनेगी। वापिस सुख-चैन, शांति के दिन लौटेंगे।

बताए, खड़गे पर मेरे इस विश्लेषण में क्या खोट है? वे नरेंद्र मोदी की तरह दिन-रात झूठ नहीं बोलेंगे। वे लोगों को लड़ाएंगे नहीं। लोगों को चौबीसों घंटे भय में, असुरक्षा में उबालेंगे नहीं। लोगों को भक्त, गुलाम, मूर्ख नहीं बनाएगें। लोग और समाज शांत तथा समझदारव समरस बनेंगे। नौजवान शक्ति मूर्खताओं के व्हाट्सअप विश्विद्यालय व भक्ति कीर्तनों से आजाद होंगे। वे शिक्षा, रोजगार के धुनी बन तब भारत की रियल मानव शक्ति बनेंगे। ख़डगे मंत्रियों को काम करने देंगे। देश संघीय भावना में काम करेगा। केंद्र बनाम राज्य या उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत की सुलगती कलह खत्म होगी। संस्थाओं में जान लौट आएगी। लोकतंत्र में भारत की रैंकिंग उछलेगी। यह न सोचें कि मेरा मल्लिकार्जुन खड़गे से कोई हित है। उनसे मेरी मुलाकात तक नहीं है। मगर पिछले 12 प्रधानमंत्रियों के आने-जाने के अपने दिल्ली अनुभव और मोदी राज की खाक के परिप्रेक्ष्य में यदि खड़गे को विपक्ष प्रधानमंत्री बनाता है तो वह इस नाते भारत का भाग्योदय होगा कि आखिरकार एक पढ़े-लिखे, सहज-सज्जन दलित राजनीतिज्ञ को उसके सहज सियासी कर्मों का प्रारब्ध प्राप्त हुआ।

तर्क के नाते कोई कहे कि खड़गे 80 साल पार के है। वे मोदी-शाह के हिंदू वोट आधार के चलते विपक्ष के लिए कमजोर होंगे तो फिर 63 साला उद्धव ठाकरे तो निश्चित ही मोदी के नहले पर दहला हैं। विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने यदि उद्धव ठाकरे को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना तो उनसे हिंदू और सेकुलर के एक और एक ग्यारह की जोड़ वाला समावेशी काम संभव होगा। वक्त और परिस्थितियों का तकाजा है जो विपक्ष वह नेतृत्व बनाए, जिससे हिंदू नाम की मोदीशाही की जगह सनातनी हिंदू राजनीति की जगह बने। निश्चित ही इसमें उद्धव ठाकरे हर दृष्टि से मोदी-योगी-शाह के आगे अब सटीक हैं। उद्धव अनुभवों से पक गए है। हर तरह के हिंदू को वे स्वीकार्य होंगे। वे इन दिनों महाराष्ट्र में जिस बेबाकी से मोदी-अमित शाह की हुकुमशाही की बखिया उधेड़ लोगों में हिट हैं वह अकल्पनीय है। वे अंग्रेजी, मराठी, हिंदी बोलते हैं। बतौर प्रदेश मुख्यमंत्री अनुभव लिए हुए हैं। जिस परिवार की मुंबई में धमक रही उसके उद्धव ठाकरे के लिए दिल्ली और उत्तर भारत में मोदी परिवार को ठिकाने लगाना क्या कुछ भी मुश्किल होगा? यदि ‘इंडिया’ आज उद्धव ठाकरे को अपना प्रधानमंत्री उम्मीवार घोषित कर उनका वाराणसी में प्रचार करवा दे तो मोदी का पसीना छूट जाएगा।

स्टालिन का जहां सवाल है हम हिंदीभाषी उन्हें भले न जानें लेकिन ध्यान रहे छुआछूत की वजह से सनातन का विरोध करने वाले नायकर, अन्नादुरई, एमजीआर, करुणानिधि और अब स्टालिन दशकों से तमिलनाडु में राज करते आ रहे हैं। बावजूद इसके वहां मंदिरों में ताले नहीं लगे। इन्होंने सामाजिक न्याय की थीसिस में हिंदू समाज में ही वह सामाजिकता बनवाए रखी, जिससे तमिल उपराष्ट्रीयता बेकाबू नहीं हुई। तभी वे दिल्ली की सरकारों में साझेदार रहे। वहां आज भी उत्तर भारत के मुकाबले मंदिर अधिक आबाद हैं, संरक्षित हैं और शुद्धतापूर्ण धार्मिकता लिए हुए हैं। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने सीएम रहते उतना अनुभव नहीं पाया होगा जो स्टालिन ने अपने पिता की संगत और अपने राज से पाया हुआ है। इसलिए प्रधानमंत्री पद पर वे बैठें या बगल के कर्नाटक राज्य के सिद्धारमैया विपक्ष की ओर से चुने जाएं तो वे भारत माता के नालायक बेटे कतई साबित नहीं होंगे। उलटे इनसे भारत को नरेंद्र मोदी से लाख गुना बेहतर नतीजे मिलेंगे। वैसे ही जैसे तमिलनाड़ु व कर्नाटक विकास के प्रतिमान हैं।

और सोचें, देश के 135 करोड़ बदहाल लोगों की तबाह आर्थिकी की चिंता में यदि ‘इंडिया’ रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को प्रधानमंत्री बनाए तो भारत क्या नरेंद्र मोदी के नोटबंदी, जीएसटी जैसे जेबकतरे आइडिया से मुक्ति पा आर्थिकी के असली आइडिया पर नहीं लौटेगा? इसलिए न सोचे की भारत माता की कोख से एक अकेला पैदा नरेंद्र मोदी है और दूसरा कोई सपूत नहीं है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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