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समय सचमुच अनहोना!

Lok sabha election

यह सत्य भारत पर ही नहीं, बल्कि आज की दुनिया पर भी लागू है। इस कॉलम को लिखते समय इजराइल के ईरान पर हमले की खबर है। जबकि हर कोई होनी को टालने की कोशिश में था लेकिन नेतन्याहू बरबाद होते हुए हैं तो पश्चिम एशिया उनके साथ फंसा है। ऐसे ही अनिश्चितताओं से भरा भारत का आम चुनाव है। नरेंद्र मोदी कितना ही आत्मविश्वास दिखाएं, उनकी जनसभाएं 2019 और 2014 जैसी कतई नहीं हैं। सब कुछ बासी कढ़ी जैसा मामला है। Lok sabha election

न सभाओं में नौजवानों का मोदी, मोदी हल्ला है और न मोदी के चेहरे या भाषणों में स्पार्क है। नरेंद्र मोदी की आंखें मंच पर चढ़ते ही भीड़ और जोश को तलाशते हुए थकी नजर आती है। मैंने राजस्थान की चुरू जनसभा में जब मोदी के मुंह से सुना की दिख रहा कि चार सौ पार सीटें आएंगी तो मैंने चुरू के सुधी, तटस्थ जनों से चेक किया, मालूम हुआ वह जबरदस्ती का प्रायोजित रैला था। और इलाके के बहुसंख्यक जाट-मुस्लिम-दलित-कांग्रेस-मोदी विरोधी वोट मौन कसम सी लिए हुए हैं तो समझ नहीं आया कि ऐसे मुकाबले में मोदी को इतनी डींग मारने की क्या जरूरत थी!

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लेकिन तब यह भी लगा कि उन्हें मुकाबले की रियल फीडबैक है इसलिए राजस्थान में चुरू, दौसा, बांसवाड़ा उन्हीं जगह सभाएं कर रहे हैं, जहां चुनाव फंसा हुआ है। अब यह अप्रत्याशित स्थिति है कि कहीं राजपूत गोलबंद हैं तो कही जाट, कहीं गुर्जर, कहीं मीणा, कहीं आदिवासी गोलबंद हैं। कहीं सीटिंग सांसदों के पांच-दस साल से सीट पर काम नहीं करने या एंटी इन्कम्बेंसी के कारण मोदी का जादू हाशिए में है तो कहीं माहौल के फीकेपन से बेरूखी है।  Lok sabha election

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मैं ईवीएम मशीन, ज्योतिष ग्रह-नक्षत्र दशा से राजनीति और नतीजों की दशा-दिशा नहीं मानता हूं लेकिन ऐसा भरोसा दिलाने वाले असंख्य जानकार हैं, जो एक के बाद एक अनहोनी के हवाले विश्वास दिला रहे हैं कि चार जून को देखिएगा क्या होता है। 

तो सस्पेंस समय की दशा-दिशा से भी है। कई जगह होना क्या था और हो उलटा रहा है। बिहार में नीतीश कुमार को साथ लेने से भाजपा की वाह नहीं है और न ही नीतीश मजबूत हैं। ऐसे ही महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे, शरद पवार, कांग्रेस लूटे-पीटे खत्म होने थे लेकिन कहते हैं उनके प्रति मराठा मानस में भारी सहानुभूति है, सम्मान है। तभी वहां मुकाबला कांटे का बन रहा है। भाजपा की एकतरफा आंधी न कर्नाटक में है न महाराष्ट्र और न बिहार में है। दिन-प्रतिदिन मुकाबला बिगड़ता जा रहा है। 

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कुल मिलाकर रामजी के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के दिन नरेंद्र मोदी का जो ग्राफ था वह आज उत्तर प्रदेश में कुछ सीटों पर ऐसा लुढ़का दिख रहा है कि सब कुछ अनहोना सा लग रहा है। मुझे यह बात तुक वाली नहीं लग रही कि मोदी से नाराज हो कर क्षत्रिय पंचायतें करें और वे मोदी को हराने के लिए योगी राज में मुसलमान के साथ वोट कर विपक्ष को जिताएं। गुजरात में मोदी करीबी पटेल नेता पुरुषोत्तम रूपाला ने क्षत्रियों को ले कर चाहे जो कहा हो लेकिन क्षत्रिय समाज कांग्रेस-आप को वोट दे, यह गुजरात में तुक वाली बात नहीं है। Lok sabha election

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मगर अनहोना घटनाक्रम और अनहोना हल्ला। ईमानदारी से सोचें, हेमंत सोरेन या अरविंद केजरीवाल को जेल में डालने, एकनाथ शिंदे, अजित पवार जैसे प्यादे पैदा करने से क्या भाजपा का चुनावी ग्राफ बना दिख रहा है? या दिल्ली और मुंबई में उलटे मुकाबला कड़ा हुआ है? वैसे यह भी सस्पेंस का बड़ा सवाल है कि इन चुनावों में कथित भ्रष्टाचारी केजरीवाल, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव हमेशा के लिए खत्म होंगे, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, राहुल गांधी की दुकानों पर ताला लगेगा या लोग इनके ब्रांड को नई पहचान देंगे? इसलिए चुनाव निराकार नहीं है, बल्कि भविष्य के गहरे अर्थ लिए हुए है। नामुमकिन नहीं है कि चार जून को नरेंद्र मोदी-अमित शाह चार सौ सीटों की जगह बहुमत के लिए पापड़ बेलते मिलें! आखिर समय बलवान होता है न कि नेता और अवतार!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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