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गपशप

मोदी से लोग लड़ रहे न कि विपक्ष!

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PM Modi Counterattack On Sam Pitroda Statement

2024 के चुनाव में अजूबा होगा। मैंने पहले भी लिखा था कि मौन लोग विपक्ष की ओर से चुनाव लड़ते हुए हैं। मेरी यह थीसिस मुझे सात मई के मतदान के दिन साक्षात सही दिखी। उस दिन मैं कोई तीन सौ किलोमीटर घूमा होगा। महाराष्ट्र में मुंबई से दूर तीन लोकसभा क्षेत्रों में। कोंकण इलाके में। इनमें एक रायगढ़ की सीट पर मतदान भी था। तीनों जगह नरेंद्र मोदी नजर आए लेकिन उद्धव ठाकरे, शरद पवार, राहुल गांधी का कहीं कोई होर्डिंग, पोस्टर नहीं था। न पार्टियों के एक्टिविस्ट या वोटर इनका नाम बोलते हुए थे। पर हर जगह लोग मशाल का नाम (उद्धव ठाकरे का चुनाव चिन्ह) लेते हुए थे।

पहला मतदान केंद्र आया। बूथ से कुछ ही दूर मतदाता सूची, पर्चियों को लिए पन्नाप्रमुखों की टोलीथी। एक टेबल के ईर्दगिर्द दो-तीन लोग वही दूसरी टोली आठ-दस लोगों की। पहलीटोली घड़ी याकि मोदी के लिए अजित पवार के लेबल को जितवाने के लिए तो दूसरी टेबल उद्धव के उम्मीदवार के लिए।

दोनों जगह से उभराफर्क था- घड़ी मतलब अजित पवार के उम्मीदवार का काम भाजपा के लोग ही संभाले हुए। उन्हें मैंने फीके मतदान का हवाला दिया तोमुझे आश्वस्त किया कि घड़ी के वोट पड़ रहे हैं। कोई 12 सौ वोटों का बूथ है। और गुजराती-मारवाड़ी व उत्तर भारतीय (उस नाते मुझे बूझ कर वह बोला भी) अच्छी संख्या में हैं। ये अपने ही वोट हैं।ये सारे वोट पड़ेंगे। पर आप तीन ही लोग (प्रौढ़) क्यों? क्या अपने लोगों को घरों में पर्ची पहुंचा दी जो वे बिना यहां रूके सीधे वोट डालने जा रहे है? हां। उसने यह भी बताया कि मारवाड़ी, गुजराती 25-30 प्रतिशत (जो कि झूठ था) वोट हैं। ये शाम तक सभी पड़ जाएंगे।? परमराठा, कोली, कुनबी लोगों (बहुसंख्यक आबादी)का क्या मूड है? जवाब था- अलग-अलग सोच रहे हैं।

ऐसा भ्रम विपक्षी पन्ना प्रमुख टोली में नहीं था। टोली में उद्धव के लोग नहीं थे। इनमें नौजवान थे, प्रौढ़ थे और सभी वोकल, भौकाल बनाने वाले। वैसे ही जैसे 2014 व 2019 में मोदी का भौकाल बनाते लोग मिलते थे। मैंने बात शुरू की और पूछा मुकाबला किस बात के लिए है? तो सारे डायलॉग अस्मिता वाले। मैंने कुरेदा उद्धव ठाकरे ने पास किया, कांग्रेस के साथ चला गया तो भौकाल के अंदाज में लोग बोलते हुए कि बाल ठाकरे भी कांग्रेस के साथ गए थे (राष्ट्रपति चुनाव)। पर मोदी,फड़नवीस तो जिस थाली में खाते हैं उसी में सूराख करते हैं। तुम लोग क्या उद्धव के शिव सैनिक हो? नहीं। लेकिन हमें बदला लेना है। ठाकरे, शरद पवार के साथ इन लोगों ने (मोदी-शाह,गुजराती, गद्दारों ने) जो किया है तो बताना है महाराष्ट्र के लोग भूलते नहीं। क्या उद्धव ने पैसा खर्चा, भिजवाया? नहीं, कोई जरूरत भी नहीं है। हम अपने से ही खर्च कर रहे हैं। लगता है तुम सब मराठा हो, कोली व कुनबी में है कोई? मेरे सवाल पर तीन चार हाथ खड़े हो गए, मै कोली (कोंकण की प्रमुख मछुआरा जाति) हूं। और फिर आपस में हंसी ठठा।

कुछ दूर कुर्सी पर सरपंच जैसी लोकल हैसियत का एक व्यक्ति बैठा हुआ था। उससे मैंने पूछा- अगल-बगल के गांव-कस्बों में मतदान तक किसने कितना-कैसे खर्च किया? पिछले चुनाव से इस चुनाव का क्या फर्क है? तो आश्चर्यजनक रूप से उसने बताया भाजपा के लोगज्यादा एक्टिव नहीं रहे। ऐसे ही उद्धव-शरद पवार-कांग्रेस के लोकल नेताओं नेभी न बैठकें की, न पैसा पहुंचाया और न जनसंपर्क। मगर उद्धव ठाकरे के पुराने सभी शिव सैनिक, कांग्रेसी और शरद पवार कोमानने वाले सब लोग अपने आप एक्टिव रहे है।और लोगों का मन अपने आपसे बना हुआ है। क्यों? सहानुभूति है, विश्वासघात व गद्दारी से नाराजगीऔर महंगाई, बेरोजगारी से लोगों का तंग हुए होना है।

मोदी को लेकर मूड में क्या है? गुस्सा है या नाराजगी? नहीं, ऐसा नहीं है। मगर उनकी झूठी बातों गांव-कस्बों की सभी जातियों, कोली हो या आदिवासी सभी के दिल-दिमाग से मोदी उतर गए हैं। सब लोग घरों से निकल कर वोट डाल रहे हैं। (सचमुच सुबह ग्यारह बजे बूथ पर लाइन लगी हुई थी) और हम सब जान रहे हैं कि वोट कैसा पड़ रहा है।

और एक बूथ पर जैसी फील, लोगों की भाव-भंगिमा, बात कहने का अंदाज वैसा ही लगभग सभी तरफ। इसलिए कि कोंकण के वोकल नारायण राणे का चार जून को क्या होना है तो मुंबई में क्या होना है? पहले शहरों में फ्लोटिंग वोट, मध्यवर्गी वोटों से मूड का अनुमान लगाना सेफ हुआ करता था लेकिन इस चुनाव में मुझे लगता है कि मुंबई जैसे महानगरों की झुग्गी-झोपड़ बस्तियों, और गांव-कस्बों के लोकल मूड की लोकल बातों से तय होंगे चुनाव नतीजे। सूखी झींगा मछलियों को बेचती कोली महिलाओं या सड़क किनारे आम बेचती कोंकणी महिलाओं के कानों तक नरेंद्र मोदी की बड़ी बातें अब वैसे नहीं घुस पा रही हैं, जैसे 2014 व 2019 में पहुंची थी।

मौन लोग सुन नहीं रहे हैं। उन्होंने या तो भक्ति में मन बनाया हुआ है या फिर अनुभवों ने यह मन बना दिया है कि बस अब बहुत हुआ। तभी चुनाव फीका है। और लोगों के वोट विपक्ष के बिना उनके घर गए पड़ते हुए हैं।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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