मुश्किल सवाल है। मोदी के पटना-बनारस शो के बाद मेरा फोकस यूपी, बिहार, हरियाणा, दिल्ली याकि उत्तर भारत के चुनावी मुकाबले पर बना है? जरा एक बार फिर उत्तर प्रदेश की बकाया सीटों की गणित पर विचार करें। सन् 2019 में प्रदेश में भाजपा ने 64 सीटे जीती थी। इनमें 27-28 सीटें ऐसी थी जो आधा, एक प्रतिशत से साढ़े दस प्रतिशत वोटों के अंतर से जीती गई। मतलब विपक्ष ने 2019 में 16 सीटें जीती तो उसका भाजपा से 27-28 सीटों पर कांटे का मुकाबला था। उस नाते यूपी की बची हुई सीटों के चुनावी ग्राउंड में क्या कुछ है? यदि इसे समझ लें तो उत्तर प्रदेश की ही नहीं, बल्कि कुल चुनाव की तस्वीर उभरेगी।
यह भी पढ़ें: वाह! मोदी का ईदी खाना!
पहली बात, मतदाता में 2014 और 2019 जैसा उत्साह नहीं है। मतलब नरेंद्र मोदी का जादू अब पहले की तरह बोलता हुआ नहीं है। तो कम मतदान में जीत-हार का फैसला होना है। चुनाव का अखाड़ा मोदी भक्त बनाम मोदी विरोधियों के दो पालों में है। माना जा सकता है कि एक पाले में 35 प्रतिशत मोदी भक्त वोट है और दूसरे पाले में उनके घोर विरोधी 35 प्रतिशत वोट। सवाल है मोदी भक्त 35 प्रतिशत में कौन हैं? भाजपा-संघ के परंपरागत वोट और मोदी हैं तो मुमकिन है का विश्वास रखने वाले कस्बाई-शहरी नौजवान वोट। जातियों में ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ मतलब फॉरवर्ड जातियां तथा वे पिछड़े वोट इस पाले में हैं, जो मोदी से अपने को चिन्हित करते हैं। फिर दूसरा पाला मोदी विरोधी वोटों का है। इसमें कांग्रेस-विपक्ष के वे वोट हैं, जो परपंरागत रूप से इन पार्टियों के स्थायी वोट हैं। विपक्ष के इस वोट आधार का एक ठोस ब्लॉक मुस्लिम वोट है जो इंडिया के लिए एकमुश्त वोट करता दिखता है। इसके अलावा मध्य-उच्चवर्गीय, सेकुलर, प्रगतिशील और सनातनी (ये कम नहीं है, क्या कोई है मोदी भक्त एक शंकाराचार्य?) ज्ञानवान लोग।
35-35 प्रतिशत के दो पालों के कुल 70 प्रतिशत वोटों के बाद पांच प्रतिशत वोट ऐसे माने जाने चाहिए जो इस दफा उम्मीदवार के चेहरे से फैसला करेंगे। मतलब सीटिंग सांसद यदि वापिस चुनाव लड़ रहा है तो उसके खिलाफ एंटी इन्कम्बेंसी या नया नौसखिया होने या किसी के जाति विशेष के होने, न होने पर फैसला करने वाले पांच प्रतिशत वोट।
यह भी पढ़ें: विपक्ष के पास है संविधान और रेवड़ी
अब बचे 25 प्रतिशत वोट! मैं इसमें से उत्तर प्रदेश के उदाहरण में कोई 12 प्रतिशत वोटों का ब्लॉक अलग कर रहा हूं। ये मायावती और बसपा के जाटव वोट है। मेरा मानना है कि कुछ भी हो जाए ये बसपा को वोट देंगे। इन वोटों का जीत-हार के अंतिम नतीजे में योगदान इसलिए नहीं होगा क्योंकि मायावती और बसपा का प्लेटफॉर्म इस चुनाव में न मुसलमान का वोट लेते हुए है और न ब्राह्मण का जो उसके उम्मीदवार जीते। जाटव का वोट इस दफा अपने ब्लॉक की उपस्थिति बनवाएं रखने के लिए बसपा को वोट देगा। इसलिए जीत-हार में उसका योगदान न्यूनतम।
सो, बसपा के जाटव वोट को अलग करें तो बचे 13 प्रतिशत वोट। ये फ्लोटिंग वोट हैं। कभी इधर, कभी उधर के इन वोटों के कम-ज्यादा मतदान से ही उत्तर प्रदेश में 2024 का चुनाव नतीजा तय होगा। यूपी में गैर जाटव दलित वोटों को भी इसी का हिस्सा माने। 13 प्रतिशत फ्लोटिंग वोट मोदी के चेहरे बनाम बेरोजगारी, महंगाई, संविधान-आरक्षण, इंडिया गठबंधन की गारंटियों आदि में किस तरफ जाएगा, इसी से नतीजे तय होने हैं। साथ ही मोदी और विपक्ष के 35-35 प्रतिशत वोटों के ब्लॉक में कौन कम या ज्यादा वोट डालेगा, उससे भी हार-जीत व जीत का मार्जिन तय होगा।
यूपी (और ऐसा बिहार, झारखंड, हरियाणा आदि में भी) में सभी और से यह फीडबैक है कि बड़े नामों (नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह आदि) को छोड़ें तो हर सीट पर नंबर एक फैक्टर जाति है। पूरा चुनाव जातीय समीकरणों पर है। अखिलेश यादव ने (बिहार में लालू व तेजस्वी ने भी) होशियारी दिखाई जो यादव और मुसलमान उम्मीदवार कम खड़े किए। कुर्मी ज्यादा खड़े किए। मतलब ओबीसी की बड़ी जाति का उम्मीदवार उतार कर अखिलेश ने सीटों पर मुकाबला बनाया, इस गणित के साथ कि मुस्लिम व यादवों का वोट तो उसे मिलेगा ही। बिहार में ऐसा तेजस्वी ने कुशवाह, कुर्मियों को टिकट दे कर किया है। कांग्रेस ने हरियाणा में भी किया है। जाट वोटों के ब्लॉक से साथ दूसरी जाति को जोड़ने की रणनीति अपनाई।
सो, उत्तर प्रदेश में तेरह प्रतिशत और बाकी राज्यों में 25 प्रतिशत फ्लोटिंग वोटों में दसियों कारणों से वोट हो रहा है। वोट के लिए निकलने या न निकलने का मामला सभी कैटेगरी पर समान रूप से लागू है। मोदी-भाजपा के वोटर घरों से 2019 की तरह नहीं निकले हैं, इसके संकेत मेरठ से ले कर कानपुर की शहरी वोटिंग में मिले हैं।
मेरा मानना है इस चुनाव में जो कुछ होगा वह उन लोगों, उन जातियों, उन समुदायों से अधिक होगा, जिनका दिमाग किसी न किसी चिंता में खदबदाता हुआ है। जो लोग इस चुनाव को आर या पार का मान रहे हैं। नरेंद्र मोदी, अमित शाह, भाजपा-संघ परिवार का इस चुनाव में सबसे बड़ा योगदान यह है जो दस सालों में ओबीसी, दलित, आदिवासी, फॉरवर्ड का नैरेटिव बना-बना कर समाज को इतना विभाजित कर डाला कि सब तरफ चुनाव अब सिर्फ जाति पर है। और यह भी आज की एक ग्राउंड रियलिटी है।