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1977 या 2004 या 2019 !

सन् 1977 की इस चुनाव में याद हो आई है। मुझे वह चुनाव क्योंकि याद है इसलिए उसके कुछ लक्षण 2024 में झलकते हुए हैं। कैसे? तो जरा नोट करें 1. बिना चेहरे, बिना नाम, बिना पैसों के भी ‘इंडिया’ गठबंधन वैसे ही मुकाबले में है जैसे विपक्ष तब था। 2. इंदिरा गांधी के काम, मंशा को लेकर तब जैसे लोगों में अफवाह आग की तरह फैली वैसा ही कुछ इस चुनाव में यह हल्ला लोगों में बना है कि मोदी संविधान बदल देंगे, आरक्षण खत्म कर देंगे। 3. इंदिरा गांधी की रैलियां फीकी और विपक्ष की रैली में हुजूम जैसा 1977 में था वैसा ही कुछ इस बार यूपी में विपक्ष के लिए हुजूम दिख रहा है। 4. चुनाव घोषणा से पहले इंदिरा गांधी का अबकी बार और नरेंद्र मोदी का अबकी बार.. का जो आत्मविश्वास था वह बाद में इंदिरा और मोदी के सुर तथा भाव-भंगिमा में क्रमशः बदला। 5. सबसे बड़ी समानता इंदिरा गांधी-संजय गांधी की सारी तैयारियां और कांग्रेस संगठन का बूथ लेवल पर तब भरभरा कर ढहना था जबकि विपक्ष का प्रचार-बूथ द्वारा संभाले होना था। उस तुलना में क्या इस बार वैसे ही भाजपा काडर का मौन, उदासीन रूख चौंकाता नहीं है? 6. यदि इस चुनाव के अनुमानों पर गौर करें तो उनसे भी एक पहलू 1977 जैसा उभरता है। भाजपा के नेताओं को उत्तर भारत में गड़बड़ समझ आने लगी है लेकिन इसके साथ दलील बना ली है कि उत्तर में नुकसान होगा तो दक्षिण और पूर्व से सीटें मिलेंगी। जैसे 1977 में उत्तर भारत में इंदिरा गांधी का सूपड़ा साफ था लेकिन दक्षिण में जीत से वजूद बचा। 

अब 2004 से इस चुनाव की तुलना करें। 2004 में चुनाव घोषणा से पहले अटल बिहारी वाजपेयी का नारा था, ‘शाइनिंग इंडिया’। मौजूदा चुनाव की घोषणा के वक्त नरेंद्र मोदी का उद्घोष था, ‘विकसित भारत’। वाजपेयी-आडवाणी-वेंकैया ने पुराने-सीटिंग सांसदों को अधिक टिकट दिए और सांसदों के खिलाफ एंटी-इन्कम्बेंसी का ध्यान नहीं रखा। वही गलती नरेंद्र मोदी-अमित शाह से हुई है। मोदी-शाह ने महिलाओं सहित जो नए उम्मीदवार खड़े किए हैं वे भी बिना संगठन, संघ की फीडबैक और केवल पेशेवर सर्वे की टीमों से था। वाजपेयी अपने चेहरे का सुपर आत्मविश्वास लिए हुए थे तो नरेंद्र मोदी भी। तभी वाजपेयी-आडवाणी और मोदी-शाह समान रूप से जातीय समीकरणों के प्रति लापरवाह प्रमाणित होते लग रहे है। 

2004 में आत्मविश्वास का दूसरा साइड इफेक्ट संगठन और संघ मशीनरी पर अधिक भरोसा या उसकी अनदेखी का था तो वैसा इस चुनाव में भी है। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्ड़ा ने मोदी-शाह के अति आत्मविश्वास से ही यह कहा है कि भाजपा अब खुद इतनी समर्थ हो गई है कि उसे संघ की जरूरत नहीं है! 

2019 में नरेंद्र मोदी का संगठन से अधिक अकेले अपने चेहरे से चुनाव जीत लेने, याकि भगवान हो जाने का गुमान नहीं था। 2019 में नरेंद्र मोदी ने समय रहते जमीनी हकीकत बूझी। और पुलवामा-बालाकोट का वह धमाका हुआ, जिससे अपने आप संघ, भाजपा तथा लोग सभी रिचार्ज हुए और झूमते संगठन की मार्केटिंग से भी मोदी नाम की चिप लोगों से जा चिपकी। लेकिन इस दफा नरेंद्र मोदी राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के साथ इस गुमान में थे कि हिंदुओं के जेहन में मोदी का चिप रिचार्ज हुआ! एक बात और। पिछले पांच वर्षों में नरेंद्र मोदी ने अपने आपको भगवान समझते हुए वे सब उपक्रम किए हैं, जिनसे भी उनमें मंदिर के साथ अपने भगवान जगन्नाथ हो जाने का गुमान बढ़ा। मतलब पांच सौ साल बाद उनकी बदौलत रामजी को घर मिला है तो ऐसा होना उनके स्वंय के विशेष अवतार, भगवान होने से है। तभी अबकी बार चार सौ पार की देववाणी की! और वे चार सौ सीट पार की गदा ले कर विपक्ष का संहार करने चुनाव मैदान में उतरे।  

लेकिन चुनाव की घोषणा हुई नहीं कि 2024 में 1977 घुस गया। आग की तरह बात फैली कि चार सौ सीटें लेकर मोदी संविधान बदल देंगे। आरक्षण खत्म कर देंगे। इसी की बात-बात में फिर लोग बताने लगे, सोचने लगे जिंदगी कितनी दूभर हो गई है। महंगाई है, बेरोजगारी है और अपना जो सांसद है वह तो कभी आता ही नहीं! 

इससे भी बड़ा आश्चर्य। मोदी की आईटी टीम ऐसी फेल हुई कि सोशल मीडिया में मोदी भक्त हिंदुवादियों का शोर उतना ही ठंडा जैसे मतदान और भाजपा के बूथ ठंडे! नरेंद्र मोदी ने जोश, उन्माद बनाना चाहा। वे हिंदू-मुस्लिम में मंगलसूत्र, नल की टोंटी  तक ले आए लेकिन काठ की हांडी की तरह हिंदू बनाम मुस्लिम का वह जुनून पैदा ही नहीं हुआ जो 2019 में पाकिस्तान को कथित तौर पर ठोकने से बना था। 

तभी 2019 रिपीट नहीं है। तो क्या 2004 या 1977? अब 1977 का मामला इसलिए कुछ अलग है क्योंकि इंदिरा गांधी के खिलाफ उत्तर भारत में ज्यादतियों को लेकर मौन गुस्सा था। परिवर्तन का प्रण था। तब मीडिया नहीं था, सोशल मीडिया नहीं था। इसलिए लोगों की नब्ज को लेकर संशय होते हुए भी कल्पना नहीं थी कि मौन क्रांति है। आज कई स्थितियां भिन्न हैं। मोदी के खिलाफ गुस्सा नहीं है। बेरुखी है। फिर नरेंद्र मोदी की चौबीसों घंटे की उपस्थिति इतनी भारी है कि सोचना भी मुश्किल है कि उत्तर प्रदेश में वह नहीं होगा जो अनुमानित है या बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक में भाजपा का सूपड़ा साफ होना संभव है या हरियाणा व दिल्ली में 2019 जैसा मोदी जादू नहीं होगा।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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