उत्तर और पश्चिम भारत की दलित राजनीति आमतौर पर हिंदुत्ववादी ताकतों के साथ जुड़ी रही है। जहां कुछ नेताओं ने स्वतंत्र राजनीति की उनमें से भी ज्यादातर का अंत मुकाम हिंदुवादी पार्टियां ही रहीं। चाहे वह भाजपा हो या महाराष्ट्र में शिव सेना हो। इस लिहाज से देखें तो इस बार का लोकसभा चुनाव स्वतंत्र दलित राजनीति के पूरी तरह से समाप्त हो जाने या भाजपा के साथ मिल जाने का है।
कह सकते हैं पूरी दलित राजनीति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नरेंद्र मोदी के दरवाजे पहुंच गई है। सारे दलित नेता या तो भाजपा के तालमेल किए हुए हैं या परोक्ष रूप से उसकी मदद कर रहे हैं।
बिहार में स्वतंत्र दलित राजनीति की शुरुआत रामविलास पासवान ने की थी। उनको राजनीति का मौसम विज्ञानी कहा जाता है। संभवतः तभी वे 2004 से 2014 तक यानी जब तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही तब तक वे कांग्रेस के साथ रहे। फिर 2014 से अभी तक उनकी पार्टी भाजपा के साथ है। यह तब है कि जब भाजपा ने रामविलास पासवान की पार्टी तोड़ने वाले उनके भाई पशुपति पारस को केंद्र में मंत्री बनाया था और उनके बेटे चिराग पासवान को बिल्कुल किनारे कर दिया था।
अब भाजपा ने चिराग को पांच सीट देकर अपने साथ कर लिया और पारस को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका। फिर भी पशुपति पारस ने ऐलान किया है कि वे एनडीए के साथ हैं। दूसरे स्वतंत्र दलित राजनीति करने वाले नेता बने पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी। राम के अस्तित्व पर सवाल उठाते उठाते वे अयोध्या में रामलला के दर्शन करने पहुंच गए और एक सीट लेकर वे भी भाजपा गठबंधन में हैं।
तीसरे नेता हुए अशोक चौधरी, जो खुद जनता दल यू में हैं और उन्होंने अपनी बेटी को चिराग पासवान की पार्टी से लोकसभा की टिकट दिला दी है। मीरा कुमार जरूर अभी कांग्रेस में हैं लेकिन उनकी राजनीति अब समाप्त हो गई दिखती है।
उत्तर प्रदेश में और भी दिलचस्प स्थिति है। अपने दम पर देश में पहली दलित मुख्यमंत्री मायावती बनी थीं। उन्होंने पूरी तरह से राजनीतिक समर्पण कर दिया है। किसी परोक्ष दबाव में वे पूरी तरह से निष्क्रिय हो गई हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी वे ऐसे ही निष्क्रिय रहीं, जिसका नतीजा यह हुआ कि उनका वोट 20 फीसदी से घट कर 13 फीसदी पर आ गया और पार्टी सिर्फ एक सीट जीत पाई। उनके समर्पण का सीधा लाभ भाजपा को मिल रहा है।
एक तो उनका वोट भाजपा को शिफ्ट हो रहा है और दूसरे, उनके उम्मीदवार विपक्षी गठबंधन के वोट काट कर भाजपा की मदद कर रहे हैं। बदले में उनके भतीजे और उनके उत्तराधिकारी आकाश आनंद को वाई श्रेणी की सुरक्षा मिली है। कुछ और संरक्षण मिला हुआ भी हो सकता है। क्योंकि कुछ दिन पहले उनके भाई और उनकी भाभी को नोएडा की एक हाउसिंग सोसायटी में दो लाख वर्ग फुट जमीन बहुत सस्ते दाम पर मिलने की खबर अंग्रेजी के एक अखबार में छपी थी और उसके बाद शांति बहाल हो गई थी।
बहरहाल, एक दूसरे दलित नेता चंद्रशेखर आजाद उभरे, जिन्होंने भीम आर्मी बनाई। वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नगीना सीट पर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं और उनके समर्थक इस बात से खुश हैं और एक दलित का बेटा वाई श्रेणी की सुरक्षा लेकर चल रहा है। पिछले साल के अंत में उन्होंने राजस्थान में तालमेल करके तीसरा मोर्चा बनाया था और विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था। उनकी हर लड़ाई का फायदा भाजपा को मिल रहा है।
महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी के नेता रामदास अठावले पहले से भाजपा के साथ हैं। वे लोकसभा का चुनाव हार गए थे तब भी उनको राज्यसभा में भेज कर केंद्र में मंत्री बनाया गया। वे राज्य के सबसे चर्चित दलित नेताओं में हैं। डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर के पोते प्रकाश आम्बेडकर ने वंचित बहुजन अघाड़ी के नाम से पार्टी बनाई है। ऐसा लग रहा था कि उनका तालमेल कांग्रेस, शरद पवार और उद्धव ठाकरे के गठबंधन के साथ होगा। सारे नेता उनसे बात भी करते रहे।
उद्धव ठाकरे अपने कोटे से दो सीटें उनको देने को तैयार थे। लेकिन बातचीत आगे बढ़ने के बाद अचानक उनको ख्याल आया कि उन्हें तो ज्यादा सीटें लड़नी चाहिएं और वे आठ या उससे ज्यादा सीटों पर लड़ने की बात करने लगे। बताया जा रहा है कि भाजपा की ओर से उनको एप्रोच किया गया और उसके बाद ही उनका नजरिया बदला। पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय लगभग पूरी तरह से भाजपा के साथ चला गया दिख रहा है। दक्षिण के राज्यों की बात करें तो वीसीके जरूर तमिलनाडु में डीएमके, कांग्रेस के साथ है लेकिन कर्नाटक में अलग पार्टी बनाने वाली दलित नेता बी श्रीरामुलू ने भाजपा में वापसी कर ली है।