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बिहार में अब भी उम्मीद

महागठबंधन

लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के इतना कुछ करने के बावजूद बिहार में अब भी उम्मीद है। जमीनी हालात एनडीए के अनुकूल नहीं दिख रहे हैं। नरेंद्र मोदी की लहर या अयोध्या की राम लहर का ज्यादा असर नहीं दिख रहा है। यही कारण है कि मतदाता किसी लहर से प्रभावित होकर या भावनात्मक मुद्दे के असर में वोट डालने की मंशा नहीं जाहिर कर रहे हैं।

ध्यान रहे पिछली बार के चुनाव में राज्य की 40 में से 39 सीटें एनडीए को मिली थीं। भाजपा 17 सीटों पर लड़ी थी और सभी सीटों पर जीती थी। एक सीट सिर्फ नीतीश की पार्टी हारी थी। रामविलास पासवान की पार्टी भी अपने कोटे की छह सीटों पर जीत गई थी। इस बार हर कोई मान रहा है कि सीटें कम होंगी। जनता दल यू को ज्यादा नुकसान की संभावना जताई जा रही है। इसका कारण यह भी है कि इस बार भाजपा को रोकने के विपक्षी अभियान की शुरुआत बिहार से ही हुई थी।

लोकसभा चुनाव की तैयारियों के साथ विपक्षी गठबंधन बनाने के जब प्रयास शुरू हुए तो सबसे पहले बिहार के ही नेताओं ने कहा था कि अगर 50 सीटें कम कर दी जाएं तो मोदी सरकार बहुमत गंवा देगी। तब नीतीश कुमार विपक्षी गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने और उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने कहा था कि यह तो नंबर का खेल है और इस बार विपक्ष मोदी के नंबर्स कम कर देगा। उसके बाद ही आंकड़ों के खेल शुरू हुआ कि कहां से कितनी सीटें कम हो सकती हैं। नंबर्स के इस खेल में बिहार हमेशा अहम रहा। बिहार के अलावा बड़े राज्यों में कर्नाटक और महाराष्ट्र में भाजपा के नंबर्स कम होने की संभावना तभी से देखी जा रही है।

भाजपा और नरेंद्र मोदी को हरा कर सत्ता से बाहर कर देने के बरक्स यह एक दूसरा नैरेटिव था कि उसकी 40-50 सीटें कम कर दी जाएं। यह नैरेटिव बनने के बाद मोदी को समझ में आया कि ऐसा हो सकता है। तभी सबसे पहले यह सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले नीतीश कुमार को तोड़ने का प्रयास शुरू हुआ।

उनकी पार्टी के नेताओं पर दबाव डाल कर या करीबी कारोबारियों पर कार्रवाई के जरिए भाजपा कामयाब हो गई। उसने नीतीश को फिर से गठबंधन में शामिल कर लिया। लेकिन इस बार नीतीश के पाला बदलने का बहुत सकारात्मक असर नहीं दिखा। लोगों में नाराजगी दिखी। भाजपा के अपने काडर में भी नीतीश को लेकर दूरी का भाव है। तभी एनडीए में तालमेल पहले जैसा नहीं है।

भाजपा बनाम जदयू और जदयू बनाम लोजपा की लड़ाई में कई सीटों पर भितरघात है। कहीं भाजपा के सवर्ण मतदाता नीतीश के उम्मीदवारों को हराने का दम भर रहे हैं तो कहीं जदयू के कोर मतदाता इस बार चिराग पासवान से 2020 के विधानसभा चुनाव का बदला निकालना चाहते हैं तो कहीं चिराग के मतदाता नीतीश के उम्मीदवारों को हराने का संकल्प जाहिर कर रहे हैं।

असल में 2020 में चिराग पासवान ने भाजपा का समर्थन किया था और नीतीश के हर उम्मीदवार के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारा था, जिससे नीतीश की पार्टी सिर्फ 43 सीट जीत पाई थी। बाद में नीतीश ने चिराग की पार्टी में विभाजन करा दिया था। सो, दोनों पार्टियों को कोर समर्थक एक दूसरे के खिलाफ स्टैंड लिए हुए हैं।

इस बार नीतीश जब से भाजपा के साथ लौटे हैं, तब से भाजपा के इकोसिस्टम से ही उनके ऊपर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं। बिहार के लोग यह भी देख रहे हैं कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने अपनी पगड़ी नहीं खोली है। उन्होंने यह पगड़ी इस संकल्प के साथ बांधी थी कि नीतीश को सत्ता से हटा कर ही इसे खोलेंगे। इससे भी भाजपा और जदयू दोनों के समर्थकों में कंफ्यूजन है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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