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‘अनहोनी’ न हो कश्मीर में!

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हां, कश्मीर घाटी में लोग अफवाहों में जीते हैं। और श्रीनगर में अफवाह है कि उमर अब्दुल्ला दोनों सीटों में फंसे हुए हैं। और कश्मीर संभाग की 47 सीटों पर चुनावी मुकाबला एनसी-कांग्रेस एलायंस बनाम सभी पार्टियों की गोलबंदी में है। मतलब नेशनल कांफ्रेंस के उम्मीदवार उन आंतकियों, उन अलगाववादियों, निर्दलियों की एकजुटता से मुकाबला करते हुए हैं जो भाजपा से हवा पाए हैं। मेहबूबा मुफ्ती की पीडीपी बुरी तरह पिछ़ड रही है। मेहबूबा मुफ्ती की बेटी भी मुश्किल में हैं। यदि पीडीपी को तीन-चार सीटें मिल भी गईं तो वह भाजपा की सरकार बनवाने में मददगार होगी। अहम सवाल उमर अब्दुल्ला की जीत का है। वे दो सीटों से लड़ रहे हैं और दोनों जगह फंसे हुए हैं। इसलिए उमर की हार का अर्थ होगा नेशनल कांफ्रेंस में तब कौन सरकार बनाने की जोड़ तोड करेगा? हालांकि जानकार बता रहे हैं कि फारूक अब्दुल्ला तुंरत फैसला लेंगे। पार्टी में परिवार के ऐसे कुछ भरोसेमंद पुराने नेता (महासचिव, पूर्व वित्त मंत्री आदि) हैं, जिनमें वे किसी को बतौर मुख्यमंत्री आगे करेंगे।

जम्मू कश्मीर विधानसभा में सरकार बनने के लिए 46 विधायकों का बहुमत चाहिए। और यदि नेशनल कांफ्रेंस व कांग्रेस एलांयस की सीटें 40 पर भी अटकीं तो भाजपा का सरकार बनाने का दावा होगा। भाजपा देवेंद्र राणा जैसे अनुभवी एनसी नेता का चेहरा आगे करके एनसी में भी तोड़ फोड़ करा देगी और कांग्रेस में भी।

जाहिर है भाजपा, अमित शाह, राम माधव आदि की रणनीति आक्रामक है और उमर अब्दुल्ला, राहुल गांधी अपने ख्यालों में खोए हुए हैं। घाटी में कांग्रेस का कन्हैया सुपरहिट है लेकिन उमर और फारूक को सुध ही नहीं है, जो वे अपनी सीटों पर भी राहुल व कन्हैया की रैलियां कराएं। उमर अति आत्मविश्वास में हैं।

निश्चित ही 90 में से ज्यादा सीटें नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस एलायंस को मिलेंगी। लेकिन पेंच त्रिशंकु विधानसभा का है। हंग असेंबली की सूरत में सब कुछ भाजपा के हाथों में होगा।

ये सब अफवाहों के हिसाब हैं। अपना मानना है कि कश्मीर में राहुल गांधी और कांग्रेस से एनसी तथा कांग्रेस की ताकत एक और एक ग्यारह है। दूसरे, जम्मू क्षेत्र की 43 सीटों में भाजपा की हवा नहीं है। वह तीस से अधिक सीटें नहीं जीत सकती है। जम्मू भाजपा में जितनी कलह रही है, उम्मीदवारों को ले कर जो नाराजगी है, हिंदू वोटों में भी राजपूत बनाम ब्राह्मणों में खुन्नस होने की जो बातें हैं उससे जाति के आधार पर वोट पड़ेंगे। यदि जम्मू क्षेत्र में वोट कम पड़ा तो तय मानें वह भाजपा के वोट की बेरूखी होगी। पहले राउंड के मतदान में इंदरवार और किस्तवाड़ में जो 80 व 70 प्रतिशत वोट हुआ उसमें, जहां कारण हिंदू बनाम मुस्लिम राजनीति थी तो साथ ही नेशनल कांफ्रेंस के उम्मीदवारों का अधिकाधिक मतदान करवा लेना भी था। सीट पर धुव्रीकरण के लिए भाजपा ने जितनी मेहनत की उतनी एनसी ने भी की।

सबसे बड़ी बात जम्मू क्षेत्र में चुनाव लोकल कारणों पर होता लग रहा है वही घाटी में एक ही मुद्दा है और वह है नरेंद्र मोदी को हरवाने का। इसलिए चर्चा है अब लोगों के बीच जेल से छूटे इंजीनियर राशिद, जमात उम्मीदवारों की साख दिनों दिन घटती जा रही है। ये उम्मीदवार वोट काटेंगे लेकिन आम लोगों में यह बात फैल रही है कि ये भाजपा के एजेंट हैं। घाटी में चुनाव इस नारे पर है कि जुल्म के जवाब में वोट। आंतकी फंडिंग का आरोपी राशिद इंजीनियर वही है, जिसने 2015 में श्रीनगर में एक पार्टी करके लोगों को गौमांस खिलाकर सुर्खियां बटोरी थी। बाद में वह आंतकी फंडिंग के आरोप में तिहाड़ जेल में गया। अब उसकी चुनाव से ऐन पहले अदालत से जमानत ने घाटी में हवा बना दी है कि यह तो केंद्र सरकार का वैसे ही लाड़ला है जैसे पंजाब में अमृतपाल है। कोई न माने इस बात को लेकिन कश्मीर घाटी में नए सिरे से उग्रवादी राजनीति के चेहरे हैं इंजीनियर राशिद तथा प्रतिबंधित जमात ए इस्लामी के निर्दलीय उम्मीदवार। इन सबकी आपस में साठगांठ है। और यह बात लोगों के जहन में धीरे-धीरे फैल रही है। इनकी सीटों पर मतदान आखिरी चरण में है और बहुत संभव है तब तक कश्मीरी मुसलमानों में यह अफवाह पूरी तरह फैल जाए कि ये मोदी सरकार के पिट्ठू हैं।

कुल मिला कर सस्पेंस है। चुनाव एकतरफा होते हुए भी कई किंतु-परंतु लिए हुए है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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