कोई न माने इस बात को लेकिन जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव अमित शाह की राजनीतिक चतुराई की परीक्षा है। 2019 में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद अमित शाह ने पुनर्गठित जम्मू कश्मीर की पुरानी राजनीति को खत्म करने का हर नुस्खा अपनाया। चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन हुआ। जात-पांत की छोटी-छोटी गणित का हिसाब लगा कर सीटें तय कराई। दलबदल करवाया। नेशनल कांफ्रेंस के दमदार नेता तोड़े। लोकसभा के चुनाव में इंजीनियर राशिद का उपयोग कर उमर अब्दुल्ला को हराया। उसी के साथ घाटी में यह माहौल बना कि नई ताकत उभर रही है। दो परिवारों याकि अब्दुल्ला और मुफ्ती की परिवारवादी पार्टियों की जगह नए नेता उभर रहे हैं। नए कश्मीर के नए चेहरे इंजीनियर राशिद हैं, सज्जाद लोन हैं आदि आदि।
इसी रणनीति में चुनाव में रिकार्ड़ तोड़ उम्मीदवार खड़े हुए हैं। बीएसपी से लेकर नीतीश कुमार की जनता दल यू के उम्मीदवारों के पोस्टर दिख रहे हैं। मतलब यह कि इतने उम्मीदवार खड़े कर दो कि लोग कंफ्यूज हो जाएं। घाटी के अंदर तमाम छोटी पार्टियां पूरे दमखम से चुनाव लड़ रही हैं। सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस (22 सीटों पर उम्मीदवार), इंजीनियर राशिद की अवामी इत्तेहाद पार्टी (इसके बतौर निर्दलीय 35 उम्मीदवार), गुलाम नबी आजाद की पार्टी (23 सीटों पर) तथा अपनी पार्टी (30 सीटों पर) प्रतिबंधित जमात ए इस्लामी पार्टी (संभवतया 10 सीटों पर) के उम्मीदवारों की भीड़ में माना जा रहा है कि ये नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी को हाशिए में समेट देंगे। विधानसभा में किसी का बहुमत नहीं बनेगा और भाजपा सरकार बनाने का चमत्कार दिखाएगी।
सवाल है भाजपा की दोस्ती के कारण घाटी में पीडीपी के लिए अस्तित्व का संकट ख़ड़ा हो गया है तो इंजीनियर राशिद, सज्जाद लोन, या जमात के उम्मीदवार जीते भी तो क्या वे भाजपा की सरकार बनाने में मददगार होंगे? आतंकी, इस्लामी उग्रवादी विधायक चेहरों को क्या भाजपा खरीद सकेगी?
निर्दलीय या छोटी पार्टियों के आठ-दस उम्मीदवार निश्चित ही चुने जा सकते हैं। लेकिन जम्मू कश्मीर की राजनीति का सबसे बड़ा तथ्य है कि नेशनल कांफ्रेंस का हल का चुनाव चिन्ह और कांग्रेस का हाथ चुनाव चिन्ह सभी तरह के लोगों के जेहन में बसा हुआ है।
दूसरी बात, इन चुनावों में प्रदेश में पहली बार बाहरी मुद्दे आउट हैं। सब लोग जम्हूरियत का मजा ले रहे हैं। चुनाव से परिवर्तन लाना है, यह जम्मू और कश्मीर दोनों इलाकों में चाह है। इसलिए हर तरफ वोट पड़ रहे हैं। एक वक्त था जब कई बूथों पर जीरो वोटिंग हुआ करती थी। ऐसा मौजूदा चुनाव के पहले चरण में कहीं नहीं सुनाई दिया। हालांकि 2014 में मतदान ज्यादा याकि 66 प्रतिशत हुआ था। मगर तब खौफ बनाने वाले कई चेहरे थे। 2014 में उमर अब्दुल्ला की सरकार के खिलाफ गुस्सा था और लोगों ने वोट की ताकत से उसे सत्ता से बाहर किया था। इस दफा मुद्दा जम्मू कश्मीर के राज्य दर्जे का है। लोगों में एक ही मांग है। जैसे भी हो जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश से एक पूर्ण राज्य बने। लोगों के इस मूड की वजह से ही नरेंद्र मोदी भी बार बार यह कह रहे है कि भाजपा ही राज्य का दर्जा बहाल कर सकती है।
पर इस आधार पर भाजपा को कैसे वोट मिल सकता है? जिसने राज्य का दर्जा खत्म किया, अनुच्छेद 370 हटाई उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पर भला लोग विश्वास कर क्या वोट डालेंगे?
इसलिए मेरा मानना है अमित शाह की सियासी बिसात फेल होगी। सारी होशियारी, चतुराई धरी रह जानी है। मगर हां, उन्हें इस एक बिंदु पर तब गर्व करना चाहिए कि जम्मू कश्मीर के लोगों में, घर घर वोट और जम्हूरियत का मान बना है। लोग पूर्णकालिक राज्य के लिए संघर्ष करें, उसके लिए वोट डालें, यह अच्छी बात है। राजनीति का यह सिलसिला ही प्रदेश को धीरे धीरे मुख्यधारा में समरस बनाएगा। न कि इंजीनियर राशिद या जमात के चेहरों के बूते तोड फोड़ की राजनीति से। कश्मीर में लोगों का सियासी भरोसा बनाए रखना, जम्हूरियत के जरिए केंद्र सरकार से हक लेने की प्राथमिकता का एजेंडा बनेगा।