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अजैविक मोदी से ‘भोले बाबा’ तक!

आश्चर्यजनक! जाटव ‘भोले बाबा’ के ‘चरण रज’ के लिए इतनी मारामारी जो भीड़ बेकाबू हुई। नतीजतन लोगों की मौतें! सोचें, मायावती, कांशीराम, बीआर अंबेडकर आदि के हवाले मनुवादी व्यवस्था को लेकर जितनी तरह के, जैसे दलित नैरेटिव चले हुए हैं उसमें सिपाही सूरजपाल जाटव का ‘भोले बाबा’ अवतार क्या बतलाता है? यह क्या भारत की हिंदू भीड़ के दुखी (आर्त), भूखे-भयाकुल-पाखंडी (अर्थार्थी) गंवारों की सच्चाई का प्रमाण नहीं है? जैसे राजधानी दिल्ली में लोकोक्ति है कि सारे दुखिया जमना पार, वैसे ही पृथ्वी के हर कोने में यदि यह भाव बने कि सारे दुखिया अरब सागर पार हिंदुस्तान में (हां, भारत के साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल मतलब हिंदू सभ्यता-संस्कृति के मूल दक्षिण एशिया में) तो क्या गलत होगा? 

सचमुच पृथ्वी पर 140 करोड़ लोगों जितने दुखियारे दुनिया में और कहां होंगे जो अपने प्रधानमंत्री को भी भगवान की तरह पूजते हैं वही दलित-पिछड़ों के लिए जाटव उनके ‘भोले बाबा’ और ‘नारायण साकार’!

जाहिर है दुखियारों का भारत सच्चाई है। धर्मादे, खैरात, राशन, कृपाओं पर जीने वाली भारत भीड़ का सत्य है। इसलिए जितने दुखियारे उतनी भक्ति और घर-घर उससे आस्थाओं के ढली हुई जिंदगी असली भारत का नंबर एक प्राथमिक सत्य है। खासकर हम हिंदुओं में घर-परिवारों, कुनबों, गोत्र, जाति, वर्ण, समाज, धर्म याकि देश का हर बाड़ा, हर सांचा दुख-दर्द, भय-असुरक्षा, भूख तथा भाग्य के रसायनों से बने दिमाग से भेड़ चाल में, घसीटता तथा चलता हुआ है। तभी इस सत्य को नकारना बेईमानी है कि हम सदियों गुलाम रहे हैं तो वजह हिंदुओं की बुद्धिहीन कलियुगी प्रवृत्तियां हैं। 

हाथरस में भीड़, भगदड़ में आश्चर्य का पहलू यह है कि जिस उत्तर प्रदेश में बसपा की राजनीति में दलितों के बीच ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ के नारे लगे थे उन्हें लगाने वाले लोगों के बीच में भोले बाबा के अवतार की अंध श्रद्धा बनी। पहले कांशीराम, मायावती की मूर्तियां बनीं, अंबेडकर भगवान हुए तो अब ‘भोले बाबा’ का अवतार होना बतलाता है कि भारत की भीड़ की नियति वह दुख, वह आस्था, वह झूठ है, जिसे सत्य, बुद्धि, ज्ञान कभी नहीं हरा सकता है।  

सबको चाहिए झूठ। सबको बाबा चाहिए, अवतार चाहिए। देश को चाहिए, हिंदुओं को चाहिए, हिंदू की हर जाति, हर वर्ग को अवतारी बाबा और नेता चाहिए। यूपी में बनारस-गोरखपुर का ब्राह्मण, राजपूत हो या बनिया, कायस्थ या मध्य यूपी के जाट, ओबीसी और जाटव हो सभी जातियों की भीड़ को वे ‘अवतार’ चाहिए, जिनसे दुख दूर हो, शक्तिमान बने। दुख-दर्द, भय, भूख से मुक्ति पाए तो वह सब भी मिले जिसकी चाहना में व्यक्ति की भीड़ की आस्था भेड़ चाल में खड़ी मिलती है। 

सोचें, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर। प्रधानमंत्री ने आम चुनाव से पहले, उसके बीच में, उसके बाद अपने आपको अजैविक, भगवान रूपी दिव्य अवतार बताया तो आखिर में कन्याकुमारी या कभी केदारनाथ में गेरूआ कपड़े धारण कर टीवी, मार्केटिंग, ब्रांडिंग के जरिए भीड़ को अभिभूत कर उस आस्था को कम नहीं होने देने का वह हर संभव उपाय किया, जिससे भीड़ माने रहे कि मोदी है तो सब मुमकिन है। 

यही इक्कीसवीं सदी के ‘न्यू इंडिया’, कथित विकसित भारत का बनता सत्य है। इंतहां है जो हाल के दशकों में हर जाति और समुदाय विशेषों के वे अवतार पैदा हुए हैं, जो लोगों को मूर्ख बना कर आस्था की भीड़ का ऐसा क्रेज बना दे रहे हैं कि भीड़ की व्यवस्थाएं भी चरमरा जाती हैं। सोचें, सूरजपाल जाटव उर्फ ‘भोले बाबा’, ‘नारायण साकार’, ‘साकार हरि’ के जिस जमीन पर कदम पड़े, वे चले उसकी मिट्टी को छूने के लिए लोगों का टूट पड़ना, भगदड़ बनाना और मृत्यु को प्राप्त होने की घटना के मनोविज्ञान पर।

यों यह मनोदशा गुलामी से बनी स्थायी है। लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से इक्कीसवीं सदी में इसका व्यवसायी रूप लेना नए कारणों जैसे, मार्केटिंग, ब्रांडिंग, सोशल मीडिया और राजनीति की बदौलत भी है। इसमें संघ परिवार का भी अहम रोल है। हिंदुओं में जागृति के नाम पर तमाम तरह के अंधविश्वास बनवाए गए हैं। याद करें बीसवीं सदी की शुरुआत या उससे पहले की उन्नीसवीं सदी के हिंदू जनजागरण के राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, या लाल-बाल-पाल औऱ हिंदू राजनीति के तब के खांटी चेहरे पंडित मदनमोहन मालवीय, सावरकर, लोकमान्य तिलक, लाजपत राय या महर्षि अरविंद जैसे महामना लोगों के हिंदू जनजागरण को।

तब समाज में सुधार, निर्माण, विमर्श, चेतना, सत्संग-उत्सव की कैसी-कैसी पहल थी। जबकि पिछले चालीस वर्षों में संघ परिवार ने क्या बनवाया? विश्व हिंदू परिषद्, भाजपा ने जून 1989 के राम मंदिर निर्माण के प्रस्ताव के साथ भारत की भीड़ में आस्था को उकेरने की कोशिशों में वह किया, जिससे हिंदू मानस और अधिक अंधविश्वासी हुआ। लोग हर तरह से बुद्धिहीन हो कर भीड़ में बदले। असुरक्षा में जीने लगे। भीड़ की भेड़ चाल में कथित अवतारों की मार्केटिंग, ब्रांडिंग और व्यवसायीकरण में बाबाओं ने हिंदू धर्म को बदनाम किया।

और बाबा लोग कैसे? बलात्करों, हत्याओं, ठगी के आरोपों में जेल गए हुए या जेल जाते हुए या जेल से आते हुए! 

कोई न माने इस बात को लेकिन मैंने पहले भी लिखा है कि 1989 में राम मंदिर आंदोलन को शुरू करते हुए विश्व हिंदू परिषद् के अशोक सिंघल ने सनातनी धर्म की शंकराचार्य परंपरा के मठाधिपतियों की धार्मिक-आध्यात्मिक-बौद्धिक-तेजस्वी तार्किक परंपरा के शंकराचार्यों की शास्त्रसम्मत सोच और निर्भयता-अक्खड़ता के आगे अपने आंदोलन के बौनेपन में अलग-अलग जातियों, मठों-अखाड़ों में बाबा-संत-साधु-कथावाचकों को ठप्पा छाप महत्व दे कर या पैदा करने का वह सिलसिला शुरू किया, जिससे स्वघोषित महामंडलेश्वर पैदा हुए तो कथावाचक और सिद्धियों, योग के हवाले भांति-भांति के मार्केटिंग गुरूओं, बाबाओं की महिमा बनवाई।

मतलब सनातन धर्म का सारा सनातनी सत्व-तत्व गंगा में बहा दिया और जो बनाया वह बाबाओं के चरणों की भक्ति और धूल है। संत आसाराम, राम-रहीम, परमानंद, भोले बाबा जैसे असंख्य गुरूओं और बाबाओं की पैदाइश उस हिंदुत्व से है, जिसमें सिर्फ और सिर्फ उपयोग है, अंधविश्वास है, भूख-भय-भक्ति है। धर्म अवतारी राजा नरेंद्र मोदी की कृपा और शक्ति का ऐसा अंधविश्वासी बना है कि वे रामजी की ऊंगली पकड़ उन्हें मंदिर में बैठा रहे हैं। और घोषणा करते हैं कि अपनी मां की मृत्यु के बाद, अपने अनुभवों पर विचार कर मुझे यकीन हो गया है कि मुझे भगवान ने भेजा है। 

तब भला ‘भोले बाबा’ अपने को भगवान मानें या भक्त उन्हें भगवान मान उनसे अपना कल्याण, उन्हें अपने दुख-दर्दों का उपाय समझें तो कौन दोषी? नस्ल दोषी या धर्म?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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