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भीड़ में खोई जिंदगी!

मैं पंद्रह-बीस दिन भीड़ में खोया रहा। दिल्ली की भीड़, ट्रेन की भीड़, शादी की भीड़, एयरपोर्ट की भीड़! और ठंड-ठिठुरन, प्रदूषण, बदबू, बदहजमी, धुंध में ऐसा फंसा कि समझ नहीं आया कि करें तो क्या करें! लिखें तो क्या लिखें! कुछ वर्षों से मैं दीपावली के बाद, सर्दियों में दिल्ली से दूर राजस्थान में रहता हूं। लेकिन इस वर्ष दिल्ली में अभिन्न परिवारों से शादियों के न्योते थे तो दिल्ली आना पड़ा। और ठंड, भीड़, प्रदूषण से बच नहीं पाया। बुखार, वायरल, खांसी से दिमाग झनझनाया। और सवाल बना कि हम हो क्या गए हैं? सही है शुरू से ही भीड़ हमारी प्रकृति, दशा-मनोदशा और नियति है लेकिन भीड़ तो मुझे 1975 में दिल्ली आने के वक्त भी फील हुई थी। उन दिनों मैं भी 31 दिसंबर की रात और पहली जनवरी के दिन कनॉट प्लेस, इंडिया गेट इलाके में भीड़ के जश्न में होता था। पर तब और अब के माहौल और चेहरों का फर्क! तब न प्रदूषण था, न बीमारियां थीं और न इस तरह की खबरें पढ़ने को मिलती थी कि ठंड, प्रदूषण और हाइपरटेंशन से दिल्ली के लोगों में स्ट्रोक्स की 40 प्रतिशत बढ़ोतरी है। आईसीयू में भर्ती होने वाले मरीजों की संख्या में 20 प्रतिशत तक की वृद्धि है। स्ट्रोक जैसी जानलेवा बीमारी का कारण ठंड और बढ़ता प्रदूषण है। और डॉक्टर बुखार, खांसी पर न केवल वायरल, वायरस की चेतावनी देते हैं, बल्कि कई तरह की जांच भी करवाते हैं।

दिल्ली में अस्सी-नब्बे के दशक में भी ठंड पड़ती थी। और इन सालों की तुलना में अधिक। पर तब ठंड में मजा था। मैं उन दिनों नई दिल्ली के एनडीएमसी इलाके में ही रहता था तो ठंड के बावजूद तालकटोरा पार्क घूमने का ठीकाना था। सर्दियों में दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में संगीत, नाटक, कला प्रदर्शनियों, साहित्य अकादमी की गतिविविधियों का अंबार लगा होता था। लोगों को याद नहीं रहा होगा मगर सत्य है जो अखबारों के लोकल पेज में तब ‘आज के कार्यक्रम’ में पूरा कॉलम शहर में होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों की सूचना देता था। रात-रात भर संगीत कार्यक्रम होते थे। त्रिवेणी, कमानी, एनएसडी, मार्डन स्कूल, प्रगति मैदान में शास्त्रीय संगीत, किताब चर्चा, अंतरराष्ट्रीय स्तर की कला प्रर्दशनी जैसे त्रिनाले, नाट्य पखवाड़ा और दूतावासों के सांस्कृतिक केंद्रों में भी सिनेमा-कला के शो हुआ करते थे।

वैसा अब कुछ नहीं है। दिल्ली सांस्कृतिक तौर पर पूरी तरह सूखी और उजड़ी हुई है। और सबसे बड़ा त्रासद सत्य दिल्ली में तब लोगों का जो हुजूम होता था, जिस कद-काठी के चेहरों का जो संभ्रात वर्ग दिखता था, उसकी कल्पना अब संभव नहीं है। इसलिए कि पहली बात तो दिल्ली में कला- साहित्य, नाटक, सांस्कृतिक गतिविधियां हैं कहां जो जमावड़ा बने? और जैसा दिल्ली में है वैसा मुंबई, कोलकत्ता, चेन्नई, पुणे आदि महानगरों में भी है। मुंबई-पुणे भी एक वक्त मराठी रंगमंच, जहांगीर आर्ट गैलेरी, कला प्रर्दशनियों, साहित्यिक लेखन, बहस का ठिकाना होता था। लेकिन ये भी अब भीड़, धंधे, पैसे और झुग्गी-झोपड़ी के शहर हैं। जेआरडी के वक्त टाटा ग्रुप के आर्ट-कल्चर के जैसे प्रकाशन हुआ करते थे वैसा अब कुछ भी नहीं है। उनके उत्तराधिकारी रतन टाटा, अंबानी-अडानी जैसे कितने ही खरबपति पैदा हो गए हों लेकिन ये कुल मिलाकर गरबा डांस, फिल्मी ग्लैमर और दिखावे के, महज फैशन स्टेटमेंट हैं! टाटा ग्रुप ने ज्ञान-विज्ञान-रिसर्च की कितनी संस्थाएं बनाईं थी जबकि रतन टाटा के वक्त एक भी नहीं। और लाइसेंस राज के अंबानी-अडानी आदि की देन पर तो सोचना ही क्या!

इस एक जनवरी को इंडिया गेट इलाका भीड़ से भरा था। कथित एलिट बाजार खान मार्केट के मेट्रो स्टेशन में बाहर तक लंबी लाइन थी। खान मार्केट में फैशन स्टेटमेंट याकि विदेशी ब्रांड के बैग, कपड़े आदि के लटके-झटके के कथित कुलीन चेहरों के साथ भदेस चेहरों का कुछ ऐसा नजारा था कि जुगुप्सा बनी कि हम कैसे बेड़ौल, अजब नमूना बन गए हैं! तिरंगी लाइटिंग और पत्थरों को देखने- घूमने के नाम पर भीड़ का नजारा ऐसा था मानों मेरे बचपन के अनुभवों का तेजाजी मेला हो। सही बात है कि दिल्ली-एनसीआर में आधी से अधिक आबादी अब झुग्गीवासियों की है तो भीड़ का आकार-प्रकार बदलेगा ही। कई मायनों में लगता है पीवी नरसिंह राव के उदारीकरण के बाद राजधानियों-महानगरों में गांव-देहात से लोगों के आने का जो सैलाब बना और मनमोहन सिंह-अरविंद केजरीवाल के कारण रेहड़ी अधिकार से लेकर, झुग्गी-झोपड़वासी की लाभार्थी क्लास बनने के दसियों तरह के प्रभावों में क्रास भीडका सैलाब बना हैं। ऊपर से सोशल मीडिया, आबादी में रिकार्ड तोड़ उछाल (इसी सदी में भारत 180 करोड़ लोगों की भीड़ लिए हुए होगा।) और जलवायु परिवर्तन की अलग मार है। तभी इस सदी में यह सत्य साल-दर-साल गंभीर बनना है कि इक्कीसवीं सदी भारत की भीड सदी होगी। प्रदूषित सदी होगी। बीमारियों की सदी होगी। लोगों को बेड़ौल, भदेश याकि क्रास भीड़ में कनवर्ट करवाने वाली सदी होगी! और महानगर कतई रहने लायक नहीं होंगे।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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