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युवाओं की भीड़ का भदेस भारत!

अगर यह सवाल पूछा जाए कि भारत के पास सबसे ज्यादा या बहुतायत में क्या है तो जवाब मुश्किल नहीं होगा। दुनिया में भारत के पास अब सर्वाधिक आबादी है और उसमें भी युवा और कामकाजी आबादी अधिक। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कामकाजी आबादी यानी 15 साल से ऊपर और 65 साल से कम उम्र के लोग 97 करोड़ के करीब है। यदि सिर्फ नौजवानों की बात करें यानी 15 से 24 साल की उम्र के युवाओं की तो उनकी आबादी 26 करोड़ के करीब है। यदि युवा होने के दायरे को 35 साल तक कर दें तो आबादी 40 करोड़ के करीब पहुंच जाएगी। मतलब है अमेरिका की कुल आबादी से करीब 20 फीसदी ज्यादा। सवाल है कि इतनी बड़ी संख्या में युवाओं की भीड़ से भारत में क्या है? इनको किस तरहका काम मिला हुआ है या रोजगार दिया जाएगा? क्या ये बेहतर जीवन स्तर में जिंदगी जी रहे है? सवाल का जवाब बहुत मुश्किल है।

जवाब के लिए नए साल की ही एक खबर और पिछले साल के आखिर में आई अन्य खबर पर गौर करें। नए साल में एक खबर आई कि दिल्ली के चिड़ियाघर में जू-कीपर यानी जानवरों की देख-भाल और निगरानी करने के लिए भर्ती हुई है, जिसमें एक सौ ऐसे लोग बहाल हुए हैं, जिनके पास पोस्ट ग्रेजुएट या इंजीनियरिंग या कोई अन्य बड़ी पेशेवर डिग्री है। कई तो ऐसे हैं, जिन्हें गणित, अर्थशास्त्र, मेटलर्जी, अंग्रेजी जैसे विषयों को लेकर पढ़ाई की है और ऊंची डिग्री हासिल की है। जू-कीपर की नौकरी का जो विज्ञापन निकला था उसमें योग्यता 12वीं पास रखी गई थी। लेकिन सरकारी नौकरी की आस में इंजीनियरिंग और स्नात्तकोत्तर की परीक्षा पास कर चुके युवाओं ने आवेदन किया, परीक्षा दी और ये 18 हजार रुपए प्रति महीना के वेतन पर बहाल हुए।

सोचें, दिल्ली में न्यूनतम वेतन 18 हजार रुपए है। दिल्ली चिड़ियाघर में जू-कीपर की बहाली 30 साल के बाद हुई है। इसी तरह पिछले साल अक्टूबर के अंत में देश के सबसे विकसित और सबसे शिक्षित राज्यों में से एक केरल में चपरासी की वैकेंसी निकली, जिसके लिए योग्यता सातवीं पास होने और साइकिल चलाने की थी। 23हजार रुपए महीने की उस नौकरी के लिए हजारों लोगों ने आवेदन किया और जो 101 लोग चुने गए उसमें बड़ी संख्या में पोस्ट ग्रेजुएट और बीटेक किए हुए युवा थे। यह कहानी सिर्फ केरल और दिल्ली की नहीं है। हर राज्य में किसी न किसी रूप में ऐसी कहानी सुनाई देती है।

सो इन आंकड़ों से सिर्फ यही पता नहीं चलता है कि भारत में रोजगार का संकट है, बल्कि यह भी पता चलता है कि अच्छी शिक्षा का भी घनघोर अभाव है। एक तरफ इतनी बड़ी भीड़ के लिए बेहतर शिक्षा की व्यवस्था मुश्किल है तो दूसरी ओर शिक्षित और प्रशिक्षित आबादी के लिए रोजगार के अवसरों की बड़ी कमी है। सवाल है कि बिना अच्छी शिक्षा और रोजगार के इतनी बड़ी आबादी क्या करेगी? दुनिया डेमोग्राफिक डिविडेंड यानी बड़ी आबादी के लाभ की बात  करती है लेकिन भारत को क्या लाभ है? चीन ने अपनी आबादी का लाभ उठाया था। उसने हजार फूल खिलने देने के सिद्धांत पर जिलेवार उद्योग लगवाए और चीन को दुनिया की फैक्टरी बना दिया। उसने ऐसी तरक्की की, जिसकी मिसाल नहीं दी जा सकती है। आज चीन और भारत का फर्क यह है कि चीन में 80 फीसदी आबादी के पास अपना पक्का मकान है और सबसे बड़ी बात यह है कि उसमें ज्यादातर मकान कर्ज मुक्त हैं। अब चीन भीड़ वाली अर्थव्यवस्था यानी फैक्टरी मोड से निकल कर उस स्तर पर पहुंच गया है, जो अमेरिका और यूरोपीय देशों का है। शुक्रवार यानी पांच जनवरी की खबर है कि साइंस और इंजीनियरिंग के दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित जर्नल्स में अब अमेरिका से ज्यादा चीन के शोधपत्र प्रकाशित हो रहे हैं। 2012 में अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित होने वाले शोधपत्र में अमेरिका का हिस्सा 21 फीसदी और चीन का 15 फीसदी था लेकिन 2022 चीन का हिस्सा बढ़ कर 27 फीसदी हो गया। जबकि अमेरिका का घट कर 14 फीसदी रह गया। भारत पांच से बढ़ कर सात फीसदी पहुंचा है।

दरअसल भारत में आबादी के बेहतर इस्तेमाल की योजना कभी बनी ही नहीं। और अब उसका समय नहीं रहा। इसलिए क्योंकि अब आधुनिक तकनीक श्रम की जरुरत को लगातार कम करती हुई है। हर जगह छंटनी हो रही है। यही कारण है कि शिक्षित व प्रशिक्षित लोग ऐसी नौकरियों के लिए जा रहे हैं, जो न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता वाले लोगों के लिए निर्धारित हैं। भारत की बड़ी आबादी के लिए अब कोई विकल्प नहीं बचा है। जो हालात से समझौता कर लेते हैं वे उन 80 करोड़ लोगों की भीड़ में शामिल हैं, जिनको सरकारी राशन मिल रहा है। इस 80 करोड़ की आबादी में मनरेगा के मजदूर भी हैं और किसान सम्मान निधि पाने वाले किसान भी हैं। उन्हें पांच किलो अनाज मुफ्त में मिल रहा है और कुछ नकद पैसे हर महीने किसी न किसी योजना के तहत मिल जाते हैं तो जैसे तैसे जीवन चल जा रहा है। क्रास भीड बन गई है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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