इस सप्ताह मालूम हुआ कि नीति आयोग ने माना है कि चीन से भागती कंपनियां ने भारत की बजाय वियतनाम, थाईलैंड, कंबोडिया और मलेशिया जैसे देशों में फैक्टरियां खोलीं। दूसरे, भारत में विदेशी पर्यटक कम आ रहे हैं। कोरोना से पहले जितने आते थे उससे कम आ रहे हैं। इस हकीकत को यदि भारत से भागते अमीर-उद्यमियों, से जोड़ें और भारतीयों के भारत में घूमने के बजाय दुबई, मकाऊ, हांगकांग, वियतनाम, बैंकाक, श्रीलंका, तुर्की आदि के सैर सपाटे पर गौर करें तो क्या साबित होगा? भारतीयों को भी विदेश में सुकून, सुरक्षा और सस्ते में अच्छा अनुभव हो रहा है। इसलिए यह जान हैरानी नहीं हुई कि सर्दियों में यूरोपीय लोगों के लिए बहुत राहतदायी, अपेक्षाकृत शांत गोवा में भी विदेशी पर्यटकों की आवक कम है। उत्तर भारत के लोग भी गोवा के बजाय श्रीलंका, तुर्की, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान जैसे देश घूमने जा रहे हैं।
क्यों? इसलिए क्योंकि भारत की आबोहवा, ट्रैफिक और इंफ्रास्ट्रक्चर आदि की अव्यवस्थाओं, असुरक्षाओं के अनुभव दुनिया को मालूम है। गोवा में विदेशियों के कम आने को लेकर किसी ने सोशल मीडिया पर कमेंट किया तो वहां की सरकार ने उसे झूठा बताते हुए उस पर कार्रवाई शुरू की। जबकि देशी और विदेशी पर्यटकों के आगे वहां के ट्रैफिक माफिया, असुरक्षा और लगातार सब महंगे होने का अनुभव इंटरनेट पर खुलता हुआ है। खुद गोवा के पर्यटन उद्योग को अनुभव है। तब सरकार को पहले हालात सुधारने चाहिए या सोशल मीडिया में किसी की टिप्पणी को तूल देकर देश-विदेश में और चर्चा फैलानी चाहिए?
लेकिन सत्ता का अहंकार है जो सच्चाई और आईने की ओर देखता ही नहीं।
दुनिया के बड़े देशों, बड़ी आबादी के सभी देशों में उन सभी गतिविधियों का बेइंतहां विस्तार और विकास होता हुआ है, जिससे मानव जिंदगी को मजा, आनंद और सुकून मिले। इतना ही नहीं अब सैर सपाटे और मनोरंजन के लिए अंतरिक्ष के सैर सपाटे का भी इंफास्ट्रक्चर बनता हुआ है। लेकिन 140 करोड़ लोगों की भारतीय भीड़ का राजनीति और सोशल मीडिया की दो बीमारियों में बेड़ा गर्क होते हुए है। भारतीय भीड़ घूम रही है, तीर्थों पर जा रही है, वीकएंड मनाने के नाम पर होटलों में भीड़ बनाती है।
क्रेडिट कार्ड और बैंकों से कर्ज ले कर दुबई, सिंगापुर, बैंकाक, मकाऊ के फैमेली सैर सपाटे हैं तो इस सबमें भी टाइमपास सा होता है! क्रंक्रीट की विशाल इमारतों को देखना, होटल, मॉल, साफ-सफाई तथा व्यवस्था की भव्यताओं की वाह याकि उससे लक्जरी का ख्याल बना कर भारतीय टाइमपास कर लौटते है। शराब, मौजमस्ती, खरीदारी से यह अहम बनाए होते है कि हम भी घूम कर आए हैं। देखो हमारी फोटो इंस्टाग्राम, फेसबुक, सोशल मीडिया पर!
यही हमारा पर्यटन है, हमारा टाइमपास है। और जैसे हमारा सैर सपाटा है वैसा ही भारत के पर्यटन उद्योग, सरकारी रीति-नीति का ढर्रा है। भारत की सरकारें तुर्की, बाली, क्रोएशिया, थाईलैंड, वियतनाम से भी सीखने, समझनेऔर विकास बनाने में कमतर है। इन देशों में भारतीयों सहित दुनिया भर के लोग जाते हैं तो इसलिए क्योंकि वहां घूमने का मकसद सार्थकता से पूरा होता है। लोग रिलैक्स महसूस करते हैं। उन्हें एयरपोर्ट पर उतरने, टैक्सी, होटल और तयशुदा प्रोग्राम अनुसार समय के पूरे उपयोग (टाइमपास नहीं) के सुकून में बिना किसी झंझट के यात्रा का अनुभव होता है। तभी फ्रांस से मालदीव तक के तमाम डेस्टिनेशन में प्रकृति से लेकर म्यूजियम, ऐतिहासिक धरोहरों की विभिन्नाताओं में उनकी भव्यता या शांति-सुकून की दिल-दिमाग में स्मृति बनती है।
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पर भारत में झंझट ही झंझट है। तभी दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता, तमाम धरोहरों व विभिन्नताओं वाले भारत का विदेशियों के टूरिज्म की ताजा 50 देशों की लिस्ट में 22वां स्थान है। विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने में भारत को कुछ-कुछ लाख या करोड़ की आबादी के वियतनाम, नीदरलैंड, क्रोएशिया, हंगरी, यूएई, सिंगापुर से बराबरी या उनके बीच कंपीटिशन करना पड़ रहा है। समझ सकते हैं भारत का अतिथि देवो भव कितना और कैसा खराब है!
सो, कथित अमृतकाल में राजनीति, धर्म, समाज का ही संकट नहीं है, बल्कि हवा, गंदगी, बदसूरत व्यवस्थाओं का ऐसा भारी संकट है, जिससे इस नए वर्ष के मौके पर भी पर्यटन केंद्रों, तीर्थों में होटल भले खूब भरे मिलें लेकिन विदेशी पर्यटकों के सैलाब में भारत को चीन, फ्रांस, तुर्की, रूस (हां, रूस से भी), जर्मनी, मेक्सिको जैसे सभी बड़े देशों से पीछे ही रहना है।