पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में दो राज्य- तेलंगाना और मिजोरम ऐसे हैं, जहां भाजपा कभी मजबूत नहीं रही है। न विधानसभा चुनावों में उसकी चुनौती को गंभीरता से लिया गया है। इस बार भी दोनों राज्यों में भाजपा लड़ रही है लेकिन वह किसी के लिए चुनौती नहीं है। हां, बाकि तीन राज्यों में वह बहुत गंभीरता से पहले भी लड़ती रही है और अब भी लड़ रही है। इस बार फर्क यह है कि अब तक इन राज्यों में भाजपा प्रादेशिक क्षत्रपों के नाम और काम पर लड़ती थी, इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ रही है। प्रधानमंत्री ने खुद ऐलान किया है कि इस बार के चुनाव में कमल का फूल ही चेहरा है। मध्य प्रदेश में तो प्रचार के जो रथ निकले हैं उन पर नारा लिखा है- मोदी के मन में बसता है एमपी और एमपी के मन में मोदी। प्रधानमंत्री ने मध्य प्रदेश के लोगों के नाम एक खुली चिट्ठी भी लिखी है। तभी सवाल है कि मोदी का चेहरा चुनाव में कितना फर्क डालेगा?
मध्य प्रदेश में विधानसभा का चुनाव कभी भी बड़े अंतर वाला नहीं रहा है। पिछली बार यानी 2018 में जब कांग्रेस पार्टी जीती थी, तब भी कांग्रेस और भाजपा के वोट में एक फीसदी से कम का अंतर था और वोट के लिहाज से भाजपा बड़ी पार्टी थी। पिछला चुनाव शिवराज सिंह चौहान के चेहरे पर लड़ा गया था, जो 12 साल से ज्यादा समय से लगातार मुख्यमंत्री थे। इसके बावजूद पूरे राज्य में उनके खिलाफ नाराजगी की कोई लहर नहीं दिख रही थी। यह जरूर हो रहा था कि प्रचार में राम मनोहर लोहिया का यह नारा सुनने को मिला था कि तवे पर रोटी को उलटते-पलटते रहना चाहिए नहीं तो रोटी जल जाती है। तभी ऐसा लगा कि लोगों ने सिर्फ बदलाव के लिए बदलाव कर दिया और कांग्रेस को भाजपा से ज्यादा सीटें आ गईं। पांच साल बाद भी हालात बहुत नहीं बदले हैं।
शिवराज के खिलाफ अब भी कोई नाराजगी की लहर नहीं है लेकिन भाजपा आलाकमान ने खुद ही उनकी नैतिक सत्ता कमजोर कर दी है। उनके नाम और काम पर चुनाव लड़ने की बजाय भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के नाम और काम पर लड़ रही है। अगर मोदी का नाम भाजपा के पारंपरिक वोट में एक फीसदी का भी इजाफ कर दे तो तस्वीर बदल जाएगी। ध्यान रहे पिछले चुनाव में कांग्रेस ने जो 114 सीटें जीती थीं उनमें 40 सीटें ऐसी थीं, जिन पर वह 10 हजार से कम वोट जीती थी और भाजपा ने 109 में 44 सीटों पर 10 हजार से कम अंतर से जीत दर्ज की थी। कम अंतर से जीत-हार वाली इन 84 सीटों पर जो समीकरण बनेगा उससे मध्य प्रदेश का नतीजा तय होगा। प्रधानमंत्री मोदी अपना जादू चला कर इन सीटों पर भाजपा की जीत सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी ओर एकजुट होकर लड़ रही कांग्रेस शिवराज को किनारे किए जाने का फायदा मिलने की उम्मीद में है।
राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा के बीच पिछले चुनाव में एक फीसदी से थोड़े ज्यादा वोट का अंतर था। कांग्रेस को 39.3 और भाजपा को 38.08 फीसदी वोट मिले थे। इतने भर से 27 सीटों का अंतर आ गया था। पिछली बार भाजपा वसुंधरा राजे के चेहरे पर लड़ी थी। वे पांच साल से मुख्यमंत्री थीं। इस वजह से उनकी सरकार के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी भी थी। दूसरे राजस्थान में पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज रहा है। 1993 के बाद से कोई भी सरकार रिपीट नहीं हुई है। यह बात कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ जाती है। फिर भी उन्होंने अपने कार्यकाल के आखिरी साल में बहुत मेहनत की है और अनेक बड़ी योजनाओं की घोषणा की है। लोक लुभावन घोषणाओं और लाभार्थी वोट के दम पर गहलोत कड़ी टक्कर देने की उम्मीद कर रहे हैं। उनको भी प्रदेश के किसी नेता से नहीं लड़ना है। उनकी लड़ाई नरेंद्र मोदी से है। गहलोत पिछड़ी जाति का दांव भी चल रहे हैं और चुनाव की घोषणा से दो दिन पहले जातीय गणना की अधिसूचना जारी कर दी। लेकिन दूसरी ओर मोदी भी अपने को पिछड़ा नेता बता कर ही प्रचार कर रहे हैं।
कुल मिलाकर राज्यों में कांग्रेस के मजबूत प्रादेशिक क्षत्रपों का मुकाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से है। मोदी ने जान-बूझकर कांग्रेस के क्षत्रपों से अपना मुकाबला बनाया है तो निश्चित रूप से उनके पास कुछ दांव होंगे, जिन्हें चुनाव प्रचार में आजमाया जाएगा। लेकिन इन तीनों राज्यों के राजनीतिक इतिहास और मौजूदा हालात को देखते हुए लगता है कि मोदी और अमित शाह ने बड़ा जोखिम लिया है। लोकसभा चुनाव से पहले अगर इन तीनों राज्यों में या तीन में से दो राज्य में कांग्रेस जीतती है तो वह भाजपा को बड़ा झटका होगा।