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विपक्ष को समझने का मौका!

कांग्रेस ने ढर्रे पर चुनाव लड़ा। कांग्रेस मुख्यालय एआईसीसी ने भूपेश बघेल, अशोक गहलोत, कमलनाथ को चुनाव लड़ने का ठेका दिया। इन नेताओं ने फिर सर्वे-मार्केटिंग कंपनियों को ठेका दिया। इन सबने अरविंद केजरीवाल तथा नरेंद्र मोदी की रेवड़ियों की नकल पर गारंटियां बनाईं। राहुल गांधी ने पिछड़ों की राजनीति, जाति जनगणना के एक जुमले से कांग्रेस की आत्मघाती नई आईडेंटिटी बनाई। यह आत्मविश्वास पाला कि इसके बूते कांग्रेस अकेले चुनाव जीत लेगी। अंत में नतीजा?  कांग्रेस चारों खाने चित है। न कांग्रेस को समझ आ रहा है और न इंडिया एलायंस को कि आगे कैसे लोकसभा चुनाव लड़े?

उस नाते विपक्ष के लिए नतीजे समझने का अब मौका है। हार को ईवीएम के मत्थे मढ़ना बेकार बात है। मैं इसलिए ईवीएम के शक को फिजूल मानता हूं क्योंकि जमीन पर यह बार-बार दिखलाई दिया है कि विपक्ष खुद चुनाव से पहले और चुनाव दौरान अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारता है। भाजपा बनाम विपक्ष की ग्राउंड राजनीति, प्रबंधन, तैयारियों तथा वोट दिलाऊ भावनात्मक चिंगारियों के फर्क का हिसाब ही नहीं बनेगा। बतौर मिसाल चुनाव घोषणा से पहले मुझे दिल्ली में तनिक भनक नहीं थी कि छतीसगढ़ के दूरदराज तक में कैसे हिंदू-मुस्लिम, धर्मांतरण की सियासी चिंगारियां सुलगी हुई हैं। सभी मानते रहे हैं कि भूपेश बघेल या मध्य प्रदेश में कमलनाथ हनुमान मंदिर, बाबाओं को पटाने या राम वनगमन पथ आदि से सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति कर रहे हैं। मतलब मोदी-शाह की हिंदू राजनीति के सॉफ्ट क्लोन हैं। इसलिए भावनात्मक हिंदू राजनीति में मतदाता न्यूट्रल रहेंगे। कांग्रेस से चिढ़ नहीं होगी।

पर वोट इन सतही बातों से नहीं गिरा करते हैं। मुझे छतीसगढ़ जा कर ही मालूम हुआ कि फलां जगह एक मुसलमान से हिंदू मारा गया तो उस पर भाजपा ने न केवल लोकल राजनीति की, बल्कि बाद में मृतक के पिता को भाजपा (जबकि उसका राजनीति, भाजपा से कभी लेना देना नहीं रहा) ने उम्मीदवार बनाया। खुद अमित शाह ने मंच पर उसका हाथ खड़ा करके पूछा जिताओगे या नहीं! ऐसे ही बस्तर के आदिवासी इलाके में धर्मांतरण की आंचलिक चिंगारियों, राजधानी रायपुर में मुस्लिम मेयर के हवाले तुष्टीकरण की अंतरधाराएं बनी हुई थीं। इन बातों को प्रादेशिक या आंचलिक स्तर पर भांपने में न सर्वे एजेंसियां कामयाब हो सकती हैं और न दिल्ली के पत्रकार बूझ सकते है।

केजरीवाल, अखिलेश, राहुल, ममता, नीतीश आदि सब समझते हैं कि वे भाजपा को हराने का दम रखते हैं, जबकि इस बेसिक बात का किसी को ख्याल नहीं है कि मोदी-शाह और भाजपा का पूरा चुनाव मैनेजमेंट माइक्रो लेवल पर चुपचाप बनी उस भावनात्मक लहर पर होता है जिसका टॉप हमेशा मोदी की मेगा फिल्म के भव्य मंचन, अभिनय, शृंगारों और डायलॉग में चुपचाप पकती होती है।

तभी धर्म और जातियां पूरे भक्तिभाव से भाजपा को वोट देती हैं। लोगों का न तो महंगाई-बेरोजगारी पर ध्यान होता है और न स्थानीय मसलों पर। यों भी उत्तर भारत को ले कर मेरा मानना रहा है कि सत्ता परिवर्तन तभी होता है जब भ्रष्टाचार के खिलाफ लावा खदबदाए। खुद नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार विरोधी खदबदाहट पर अच्छे दिनों का जुमला बना कर प्रधानमंत्री बने। इसी की समझ में वे पहले दिन से विपक्ष को बेईमान करार दिए रहने का येन केन प्रकारेण नैरेटिव चलाए हुए हैं। इसके लिए ईड़ी और सीबीआई का उपयोग निःसंकोच है। मतलब विपक्ष हिम्मत न कर पाए, राहुल गांधी (राफेल से लेकर अडानी) और विपक्ष किसी भी कीमत पर भ्रष्टाचार को लेकर जनता में बतौर क्रूसेडर न उभरे, अरविंद केजरीवाल के ईमानदार होने का चोगा भी उतरे, यह मोदी-शाह की कोर चुनावी रणनीति है। इसलिए कि जात-पांत, ओबीसी, महंगाई-बेरोजगारी सबसे पार पाना भाजपा की चुनाव मशीनरी के लिए मामूली बात है लेकिन यदि भ्रष्टाचार-असमानता और गरीबी का हल्ला बना तो लोग सचमुच मोदी पर लोग पुनर्विचार में सोचने लगेंगे। ऐसा खतरा राफेल और अडानी विवाद से बनता लग रहा था लेकिन दोनों मसलों पर पहले खुद विपक्ष में पूरी समझ नहीं बनी तो राहुल गांधी भी भारत यात्रा, जातीय जनगणना जैसी सलाह से भ्रष्टाचार के मसले को छोड़ बैठे। विपक्ष के बाकी नेताओं की मजबूरी यह है जो वे किसी न किसी बात के बतंगड़ में ईडी-सीबीआई से घिरे हुए हैं।

बहरहाल, विधानसभा चुनावों के सेमी-फाइनल के बाद विपक्ष के लिए सोचने का मौका है कि न तो किसी एक पार्टी के बूते भाजपा को हराना संभव है और न बासी-पुराने मुद्दे से चुनाव लड़ा जा सकता है। फिलहाल साबित है कि नरेंद्र मोदी की इमेज के आगे विपक्ष मुद्दे और नैरेटिव के मामले में अंधकार में है। ले देकर दस वर्षों के राजकाज में विकसित देश के मोदी के नए जुमले के आगे 80-100 करोड़ लोगों के खैरात पर जीने की हकीकत में गरीबी, क्रोनी पूंजीवाद, अडानी-अंबानी और असमानता के ईर्द-गिर्द चुनावी नैरेटिव गुंथने का

विकल्प बनता है। मगर हालात यह है कि इंडिया एलायंस में फिलहाल चिंता है कि पार्टियां में पहले सीटों का बंटवारा हो। मानों परस्पर सीटें बंट गईं तो वहां पार्टी और उम्मीदवार भाजपा के खिलाफ लड़ लेंगे। असल में तब तक कुछ नहीं होना है जब तक कांग्रेस और इंडिया एलायंस की पार्टियां यह तय नहीं करतीं कि वे एक सुर में किस बात पर अखिल भारतीय हल्ला बनाएंगी?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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