राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

कांग्रेस ने सहमति बनवाई, भाजपा ने चौंकाया

भारतीय जनता पार्टी

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा की अभी तक की रणनीति के बुनियादी फर्क चौकाने वाले हैं। जैसे भाजपा जहां केंद्रीय नेतृत्व के नाम पर और उसके सहारे चुनाव लड़ रही है वही कांग्रेस का चुनाव प्रदेश नेताओं के बूते नाम है। इसके अलावा एक बुनियादी फर्क यह है कि कांग्रेस की रणनीति इस बार आम सहमति बनाने और पारदर्शिता के साथ सब कुछ सबके सामने रख कर लड़ने की है, जबकि भाजपा की रणनीति में सब टॉप से है, गोपनीयता में है और चौकाते हुए फैसले है। भाजपा ने बार बार चौंकाने का काम किया। अपनी पार्टी के मंत्रियों, सांसदों, नेताओं को चौंकाया। साथ ही मीडिया व मतदाताओं को भी चौंकाया।

अगर कांग्रेस की बात करें तो सभी राज्यों में उसके नेताओं ने पहला काम तो यह किया कि पार्टी के अंदरूनी मतभेद दूर किए ताकि चुनाव से पहले टिकट बंटवारे का काम सबकी सहमति से कराया जाए। मध्य प्रदेश में पहले कमलनाथ और दिग्विजय सिंह साथ मिल कर काम कर रहे थे।

इसी तरह राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट में विवाद था तो पार्टी आलाकमान ने दिल्ली में दोनों को साथ बैठा कर सुलह कराई। अब दोनों का कहना है कि बिल्कुल एक राय से उम्मीदवार तय हो रहे है। पायलट ने जाति गणना के फैसले को लेकर ही सही लेकिन अशोक गहलोत की तारीफ की है। उधर तेलंगाना में प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी को लेकर बड़ी शिकायत थी। कई नेता पार्टी छोड़ने की बात कर रहे थे तो मल्लिकार्जुन खड़गे ने वहां के प्रभारी रहे एक महासचिव और कांग्रेस के दिग्गज नेता को वहां भेजा और सुलह कराई।

सो, जब आंतरिक मतभेद दूर हुए तब कांग्रेस में टिकट बंटवारे का काम शुरू हुआ। पार्टी आलाकमान की ओर से पहले हर राज्य में यह तय कर दिया था कि कौन व्यक्ति नेतृत्व कर रहा है। राजस्थान में अशोक गहलोत को टिकट तय करनी थी तो मध्य प्रदेश में कमलनाथ को, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को और तेलंगाना में रेवंत रेड्डी को। लेकिन इन चारों नेताओं ने मनमानी नहीं की और न कोई पूर्वाग्रह दिखाया। कमलनाथ इस पचड़े में नहीं पड़े कि कौन दिग्विजय सिंह का आदमी है और कौन उनका आदमी है। उन्होंने सर्वे करने वाली एजेंसियों और जिला कमेटी से मिली फीडबैक के आधार पर संभावित उम्मीदवारों की सूची बनाई और छह महीने पहले ही सबको बता दिया कि सूची में किसका नाम है और किसका नहीं है। इसका फायदा यह हुआ कि कम गंभीर दावेदार पहले ही रेस से बाहर हो गए। इसके बाद जो रेस में थे उनको भी पूरी पारदर्शिता से बता दिया गया कि वे किस नंबर पर हैं। यानी उनकी संभावना कितनी है यह भी बता दिया गया। यह सब काम कमलनाथ ने खुद किया। इस पारदर्शिता का फायदा यह हुआ कि प्रतिस्पर्धा सीमित रही और जिसके जीतने की संभावना ज्यादा रही उसको टिकट मिली।

ऐसे ही कुछ राजस्थान में अशोक गहलोत ने किया। उन्होंने इसकी गांठ नहीं बांधी कि सचिन पायलट के साथ जो विधायक बागी होकर मानेसर गए थे उनको टिकट नहीं देनी है। आमतौर पर विरोधियों को निपटाने के लिए नेता ऐसा करते हैं। वे भले खुद हार जाएं पर विरोधी खेमे के नेताओं के जीतने नहीं देने की सोच रखते हैं। पर गहलोत ने ऐसा नहीं किया। उन्हे जब हाईकमान और खडगे ने बगावत के वक्त के चिंहित मंत्री धारिवाल, जोशी आदि के टिकटों पर जोर नहीं देने का कहा गया तो प्रतिष्ठा का मुद्दा नहीं बनाया। पायलट के समर्थकोंके टिकटो का विरोध नहीं किया।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *