यों उम्मीदवारों की पूरी लिस्ट घोषित नहीं हुई है लेकिन जितनी हुई है और जमीनी तौर पर जैसा माहौल बना दिख रहा है उससे चुनावी लड़ाई कांटे की है। जीत-हार का फैसला उम्मीदवार के खुद के दमखम और मौजूदा विधायक के पक्ष या विरोधी लोकल माहौल से होगा। फिर जातीय समीकरण कुछ काम करेंगे तो प्रादेशिक नेतृत्व को लेकर बनी धारणा से भी मतदाताओं का मन बना या बिगड़ा हुआ होगा।
और मेरा मानना है कि जमीनी सच्चाई को बूझ कर ही मोदी-शाह-नड्डा (पहली लिस्ट के बाद) ने और कांग्रेस हाईकमान ने (शुरुआती लिस्ट से ही) उम्मीदवारों के फैसले ठोक-बजाकर किए हैं। प्रयोग नहीं किए और प्रयोग करने का जो इरादा था उसे मोदी-शाह ने पहली लिस्ट के बाद बदल दिया।
सबसे बड़ी बात कांग्रेस की एआईसीसी मशीनरी का चुस्त दिखना है। वह पहले जैसी अराजक, ढीली-लापरवाह नहीं दिखी। उधर भाजपा में मोदी-शाह-नड्डा हर तरह की सख्ती व सावधानी बरतते हुए। कांग्रेस ने भूपेश बघेल, कमलनाथ और अशोक गहलोत पर सब कुछ छोड़ा हुआ है बावजूद इसके दिल्ली में एआईसीसी ने अपने सर्वे तथा जमीनी हकीकत का हवाला देते हुए एक-एक उम्मीदवार पर विचार किया। उम्मीदवारों को ले कर क्षत्रपों से गांरटी ली। राजस्थान की पूरी लिस्ट अभी घोषित नहीं है लेकिन मोटा मोटी कह सकते हैं कि छतीसगढ़-मध्य प्रदेश में कांग्रेस के उम्मीदवार सॉलिड हैं। कांग्रेसी टिकटार्थियों का विद्रोह न्यूनतम है। उधर भाजपा की पहली लिस्ट में जरूर चौंकाने वाले और ऊपर से तय हुए नाम थे। मगर बाद की सूचियों में पुराने ढर्रे और पुराने चेहरे रिपीट हैं। इसलिए भाजपा में बागी उम्मीदवारों की संख्या अधिक होती लगती है।
ऐसा कमलनाथ-दिग्विजय सिंह ने नहीं होने दिया। भाजपा के चेहरे देख कर इन्होंने ऐन वक्त उम्मीदवार बदले। सो, कांग्रेस ने एक-एक सीट पर कड़ा मुकाबला बना दिया है। जबकि भाजपा इस मुगालते में है कि नरेंद्र मोदी की सभाएं होंगी तो पार्टी उम्मीदवारों के लिए कोई मुश्किल नहीं होगी।
इसका अर्थ यह नहीं कि संघ परिवार के संगठन जमीनी स्तर पर सक्रिय नहीं है या लापरवाह है। बतौर पार्टी भाजपा जरूर तीनों हिंदी प्रदेशों में बिखरी हुई है लेकिन संघ परिवार के संगठन अपनी फीडबैक अनुसार चुपचाप काम करते हुए है। इसलिए चुनाव में टॉप पर मोदी की रैलियों का फैक्टर होगा वही बूथ स्तर पर संघ मशीनरी के संगठन, पन्ना प्रमुखों की सक्रियता है। बीच में याकि प्रादेशिक स्तर पर जरूर भाजपा नाम की पार्टी इस बार बिखरी रहेगी और नेता अनमनेपन व बूझे मन से चुनाव लड़ेंगे।
सो, कांग्रेस में दिल्ली, प्रदेश नेता और उम्मीदवार सभी चुनाव लड़ने, जीतने की अधिक जद्दोजहद में है वही भाजपा में मोदी-शाह के बावजूद, नीचे-प्रादेशिक स्तर पर कोई धणी-धोरी याकि माई-बाप नहीं है। नीचे यदि भाजपा का कोई बागी उम्मीदवार खड़ा हुआ है तो उसे समझाने-बैठाने के लिए भाजपा के बड़े प्रादेशिक नेता या संघ के बड़े प्रचारक-पदाधिकारी पहले जैसे घूमते थे वैसे इस चुनाव में नहीं दिख रहे। मतलब कौन बैठाए बागियों को? आखिर पिछले चुनावों में जिन्होंने बैठाते वक्त बागियों से जो वादे किए थे उसे न शिवराज सिंह ने पूरे किए और सन संघ ने पूरे कराए। या जैसे मध्य प्रदेश में ग्वालियर, मालवा, महाकौशल, बुंदेलखंड में भाजपा के बागी हैं तो उन्हें यदि नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय या संघ के शिवप्रकाश बैठने के लिए कहें, चुनाव बाद कुछ करने का वादा करें तो बागी क्या यह नहीं कहेगा- आप लोगों को खुद का पता नहीं की क्या होगा तो मुझसे वादा कैसे कर रहे हो? पिछले चुनाव में भी तो वादा किया था लेकिन शिवराज ने क्या उसे पूरा किया? सो सचमुच बतौर पार्टी भाजपा इस चुनाव में बहुत बिखरी हुई है। बिना धणी-धोरी के है।