चंडीगढ़ नगर निगम के चुनाव में भाजपा ने जो किया वह राजनीति और संविधान दोनों की मर्यादा को तार तार करने वाला था। चंडीगढ़ में भाजपा का सात साल से मेयर था। तभी लाख टके का सवाल है कि आठवें साल भी भाजपा का ही मेयर बने, ऐसा क्यों जरूरी था? क्या 36 निर्वाचित और नौ मनोनीत सदस्यों वाले नगर निगम में भाजपा का मेयर नहीं बनता तो कोई आफत आ रही थी? सोचें, चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश है और केंद्र की ओर से नियुक्त प्रशासक के हाथ में वहां का प्रशासन है। सो सोचे, स्पष्ट रूप से केंद्र का शासन जिस प्रदेश में हो वहां छोटे से नगर निगम पर भी कब्जा करना किस मानसिकता का प्रतीक माना जाए? दिल्ली नगर निगम के चुनाव में हार जाने के बाद भी भाजपा ने कितनी तरह के उपाय किए थे कि आम आदमी पार्टी का मेयर नहीं बन पाए वह सबने देखा था। भाजपा ने एल्डरमैन नियुक्त कर दिए, उनको वोट देने का अधिकार दे दिया और प्रयास किया कि उसका मेयर बन जाए। कई बार मेयर का चुनाव इस वजह से टला और फिर अदालत के दखल देने के बाद एल्डरमैन चुनाव से बाहर रखे गए और आप का मेयर चुना गया। राजधानी दिल्ली में नगर निगम पर 10 साल भाजपा का नियंत्रण था। तभी वह हार के बाद भी निगम छोड़ना नहीं चाहती थी। जबकि दिल्ली में भी उप राज्यपाल के जरिए केंद्र का ही शासन चलता है।
फिर भी यह बात समझ में आती है कि दिल्ली नगर निगम बहुत बड़ा है। राजधानी है और इसका बजट भी बड़ा है। लेकिन चंडीगढ़ तो इतना छोटा शहर है, जहां दो राज्यों की राजधानी है और केंद्र का शासन है। फिर वहां के नगर निगम के लिए इतनी धांधली की क्या जरुरत थी? 36 सदस्यों के नगर निगम में भाजपा के 14, आम आदमी पार्टी के 13, कांग्रेस के सात और अकाली दल का एक सदस्य हैं। एक पदेन सदस्य चंडीगढ़ का सांसद होता है, जो कि भाजपा की किरण खेर हैं। सो, किरण खेर सहित भाजपा के 15 पार्षद थे, जबकि दूसरी ओर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के 20 पार्षद थे। पिछले चुनाव के बाद से दो बार मेयर के चुनाव हुए थे, जब कांग्रेस ने उसमें हिस्सा नहीं लिया था तो भाजपा जीत गई थी। लेकिन इस बार आप और कांग्रेस ने तालमेल कर लिया तो उनकी जीत पक्की होनी थी।
लेकिन किसी हाल में अपना कब्जा बनाए रखने की सोच में भाजपा ने पहले तो अचानक चुनाव टलवा दिया। प्रशासन की ओर से चुनाव के दिन यानी 18 जनवरी को अचानक कह दिया गया कि चुनाव छह फरवरी को होगा। लेकिन कांग्रेस और आप हाई कोर्ट गए, जहां अदालत ने हर हाल में 30 जनवरी तक चुनाव कराने को कहा। जब चुनाव टालने और पार्षदों को तोड़ने का दांव नहीं चला तो भाजपा के नेता रहे अनिल मसीह को 30 जनवरी के चुनाव के लिए पीठासीन अधिकारी नियुक्त कर दिया गया। उनके सामने 36 सदस्यों ने वोट डाले और वे सबके वोट निकाल कर गिनने लगेऔर भाजपा को 16 और आप के उम्मीदवार को 20 वोट मिले। लेकिन उन्होंने आप और कांग्रेस के आठ वोट अवैध कर दिए। फिर चार वोट से भाजपा की जीत घोषित कर दी। एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें वे बैलेट पेपर पर पेन चलाते दिख रहे हैं।
एक छोटे से नगर निगम के चुनाव को जीतने के लिए भाजपा ने संवैधानिक और राजनीतिक दोनों मर्यादा ताक पर रख दी। सबको दिख रहा है कि विपक्ष के वोट गलत तरीके से अवैध करके भाजपा जीती है। फिर भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भाजपा को जीत की बधाई दी। जिस पार्टी के पास देश की सत्ता है। जिस पार्टी की 17 राज्यों में अपनी या सहयोगी पार्टी के जरिए सरकार है। जो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है। वह पार्टी 36 सदस्यों के छोटे से नगर निगम का चुनाव जीतने के क्या इतनी बड़ी धांधली कर सकती है। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन भाजपा के लिए इतनी बड़ी चिंता का कारण बन गया है कि उसने दोनों को नगर निगम का चुनाव भी नहीं जीतने देने की कसम खा ली।