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विदेशी किताबों को आने से रोका जा रहा!

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भारत में लोगों के लिए नई विदेशी किताबों को पढ़ना मुश्किल हो गया है! इसकी हकीकत बौद्धिक भानु प्रताप मेहता ने बताई। लेकिन उसे ठीक करने की कोई चिंता नहीं है। मानों भारत में लोगों को पढ़ने नहीं देना है।  कोई उपाय नहीं किया जा रहा है। भारत में अब विदेश में छपी Books मंगाना और उन्हें पढ़ना हिमालय पहाड़ की चढ़ाई चढ़ने जैसा है। विदेशी Books मंगाने के लिए दस तरह की जानकारी देनी होती है। कहां काम करते हैं, क्या काम करते हैं, किसलिए किताब मंगा रहे हैं, सांस्थायिक इस्तेमाल है या निजी इस्तेमाल के लिए मंगा रहे हैं आदि आदि।

इतना होने के बाद भी किताबें समय से नहीं आती हैं, आती हैं तो एड्रेस की कमी या फोन नंबर नहीं होने की वजह से कुरियर कंपनी में ही रूक जाती हैं, इसके बाद कुरियर कंपनियां स्थानीय कानूनों या नियमों का हवाला देकर डिलीवर में डेरी करती हैं। इसके बाद केवाईसी यानी नो यूअर कस्टमर का नाटक शुरू होता है। उसमें आधार से लेकर सारी जानकारी देनी होती है। इसके बाद भी जब किताब की डिलीवरी नहीं होती है तो लोग थक हार कर उसे लौटा देने का फैसला करते हैं।

भारत में विदेश से किताबों की डिलीवरी में आने वाली समस्याएं

हैदराबाद के प्रोफेसर ज्योतिर्मय शर्मा ने इस मामले में अपना अनुभव बताया। उन्होंने कहा कि उनके दोस्त ने विदेश से किताब भेजी थी, जो डीएचएल इंडिया के जरिए आई। लेकिन कई बार केवाईसी अपडेट करने के बाद भी किताब डिलीवर नहीं हुई और अंत मे उन्होंने इसे लौटा देने को कहा। ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ के दक्षिण एशिया के पूर्व ब्यूरो चीफ एमी काजमिन ने भी कहा है कि उनको भारत में रिव्यू के लिए भेजी गई किताबें रिसीव करने में बड़ी समस्या होती थी। अब वे रोम में पोस्टेड हैं। ऐसे ही अनेक बौद्धिक, जिनमें नीलांजन रॉय, रोशन दलाल, रविंदर कौर आदि का नाम चर्चित है, सबने ऐसी शिकायत की है। उनका कहना है कि विदेश से किताबें पढ़ने के लिए मंगाएं या कोई लेखक, प्रकाशक समीक्षा के लिए भेजे, उसे हासिल करना बड़ा मुश्किल काम होता है।

जब यह समस्या बढ़ी तब प्रताप भानु मेहता ने देश के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और कुरियर कंपनी फेडेक्स को टैग करके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर अपनी शिकायत सार्वजनिक की। उन्होंने लिखा कि एक किताब तो केवाईसी के कारण लौट गई। एक किताब मंगाने का अपना अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि उनसे आधार अपलोड करने को कहा गया, फिर यह पूछा गया कि किस संस्थान से जुड़े हैं, यह बताने के बाद दोबारा इस बात को लेटरहेड पर और संस्थान की मुहर के साथ अपलोड करने को कहा गया। इसके बाद भी किताब उनको डिलीवर नहीं हो सकी। मेहता ने सवाल उठाते हुए कहा कि ये कारण है कि भारत में विदेशी निवेश नहीं आ रहा है, इतना सरकारी दखल है, सरकारी मंजूरी की इतनी जरुरत है, ऐसे कानून हैं और बिना दिमाग लगाए कानूनों पर अमल है तो विदेश से किताब मंगाना भी नामुमकिन हो रहा है।

भारत में किताबों की उपलब्धता और वितरण से जुड़ी समस्याएं

सोचें, भारत में वैसे भी कम लोग किताबें पढ़ते हैं और विदेश में छपी किताबें तो और भी कम लोग पढ़ते हैं। फिर भी अगर गिनती के कुछ लोग, जो अकादमिक जगत से जुड़े हैं या लेखक, प्रकाशक हैं वे विदेश से किताबें मंगाते हैं तो या तो किताबें समय पर नहीं मिलती हैं या मिलती ही नहीं हैं। तभी सवाल है कि क्या सरकार यह नजर रख रही है कि लोग क्या पढ़ रहे हैं और क्या बाहर से मंगा रहे हैं और क्या लिख रहे हैं? क्या सरकार नहीं चाहती है कि लोग विदेश से किताबें मंगाएं और पढ़ें? लेकिन ऐसा लग रहा है कि समस्या सिर्फ विदेशी किताबों से नहीं है, बल्कि मोटे तौर पर किताबों से ही है। क्योंकि भारत में भी किताबें नहीं मिलती हैं।

यहां तक की पाठ्यपुस्तकें यानी टेक्स्ट बुक भी समय पर नहीं मिल पाते हैं। एनसीईआरटी की किताबें समय पर छपती नहीं हैं। किताबें समय पर अपडेट नहीं होती हैं और समय पर छात्रों को मिलती भी नहीं।

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भारत में निगरानी होने या किताबें आने में देरी का एक कारण यह भी है कि भारत में सबसे ज्यादा किताबें प्रतिबंधित होती हैं। दुनिया के किसी भी दूसरे देश के मुकाबले भारत में किताबों पर पाबंदी ज्यादा लगती है। पूरी दुनिया में जितनी किताबें प्रतिबंधित होती हैं उनमें से 11.11 फीसदी सिर्फ भारत में होती हैं। भारत के बाद तानाशाह देश चीन का नंबर है। चीन में दुनिया की 8.9 फीसदी यानी करीब नौ फीसदी किताबें प्रतिबंधित होती हैं।

इसके बाद सिंगापुर में 8.47 फीसदी और आयरलैंड में 6.35, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका 5.29 फीसदी किताबें प्रतिबंधित होती हैं। भारत में किताबों को लेकर समस्या यह भी है कि कोलकाता स्थित नेशनल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया में किताबों के कैटलॉग तैयार होने में बहुत समय लगता है। इसमें विदेशी भाषा की किताबें भी शामिल हैं और 14 भारतीय भाषाओं की किताबें भी हैं। कैटलॉग नहीं बन पाने की वजह से किताबों की सार्वजनिक उपलब्धता में देरी होती है और दिक्कत भी होती है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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