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आजादी के नारे लगे तो देशद्रोह!

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पिछले 10 साल में आजादी को लेकर चले विमर्श का एक पहलू यह भी है कि आज अगर आजादी की बात होती है तो उसे देशद्रोह मान लिया जाता है। याद करें कि जेएनयू के आंदोलन को, जिसमें तब के जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के नेतृत्व में बड़ी संख्या में छात्र इकट्ठा होकर आजादी के नारे लगा रहे थे और वहीं से टुकड़े टुकड़े गैंग का जुमला निकला था। कन्हैया सहित अनेक लोग गिरफ्तार किए गए थे। उसके बाद से जेएनयू को टुकड़े टुकड़े गैंग का अड्डा माना जाने लगा था। एक बार छात्रों के आंदोलन के समय फिल्म अभिनेत्री दीपिका पदुकोण जेएनयू चली गई थीं कि आज तक उनकी फिल्मों के बहिष्कार के नारे लगते हैं।

बहरहाल, कन्हैया उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई के साथ थे और उनके नारे बिल्कुल उसी तरह थे, जैसे आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता लगाते थे। आजादी के बाद कम्युनिस्ट नेता हों या सोशलिस्ट या जनसंघी सब चुनावों में शामिल होते थे लेकिन आजादी को झूठा मानते थे। बहुत बाद में रघुवीर सहाय ने कविता लिखी, राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुण हरचरणा गाता है। यह सवाल आज भी है कि फटा सुथन्ना पहने हुए करोड़ों भारतीयों के लिए आजादी का क्या मतलब है?

हर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी को कुछ लोग यह सवाल पूछते हैं और फिर अपनी अपनी खोल में दुबक जाते हैं। उनको पता है कि अगर कन्हैया की तरह उन्होंने ‘हमें चाहिए आजादी’ का नारा लगाया तो देशद्रोही घोषित कर दिए जाएंगे। लेकिन क्या भारत के लोगों को भय से, भूख से, गरीबी, बेरोजगारी से, छुआछूत और रोटी के लिए गुलामी करने से आजादी नहीं चाहिए? क्या सरकार के माई बाप वाले स्वरूप से भारत को आजादी दिलाने की जरुरत नहीं है? 80 करोड़ लोग सरकार के दिए पांच किलो अनाज पर पल रहे हैं और दूसरी ओर देश के जाने माने उद्यमी कह रहे हैं कि इसी वजह से देश के युवाओं को हफ्ते में 70 घंटे काम करने की जरुरत है। आजाद हालांकि वो भी नहीं हैं। इस देश में आजादी का मतलब यह है कि जो अरबपति है वह भी गुलाम है, माई बाप सरकार का। तभी वह भी माई बाप बन कर अपने कर्मचारियों से गुलामी कराना चाहता है। आजादी के अमृत काल में न भय, भूख, घृणा, हिंसा किसी चीज से आजादी नहीं मिली और अगर इनसे आजादी की मांग की जाए तो उसे सत्ता के खिलाफ बगावत माना जाएगा।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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