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आजादी की हसरत लिए डुबते लोग!

दूर के ढोल के अलावा, दूर की घास भी अक्सर ज्यादा सुहावनी लगती है, खासकर तब जब आप पश्चिम की ओर देख रहे हों। वह चमकदार लगती है। वह खुशनुमा लगती है और लगता है मानों वो आपको बुला रही हो। उस तरफ का घास का मैदान बड़ा और खुला-खुला सा लगता है। जाहिर है इस खुलेपन में आज़ादी शामिल होती है।‘आज़ादी’ – वाह, सोचे, इस शब्द पर। कितनी तरह के मतलब हैं?‘आजादी’ का शब्द उम्मीद जगाता है, मोहित करता है।तानाशाही, शैतानी सरकारों से आजादी, कठोर कानूनों से आजादी, असुरक्षा से आजादी, डर से आजादी तथा खुलकर सांस लेने की आजादी। मतलब ऐसा जीवन जीने की आजादी जिसका कोई अर्थ हो तथा जिसमें ख़ुशी हो। हर साल इस मोहक सपने में डूबे और सम्मोहित गरीब और दमित देशों से कई लोग यूरोप और ब्रिटेन की अपेक्षाकृत आजाद धरती की ओर कूच करनते हैं।

शेक्सपियर के हेमलेट में क्लोडिअस कहता है, “दुःख जब आता है तो वह अकेले सिपाही की तरह नहीं आता, वह बटालियनों में आता है।” और यह अनुभव आजाद दुनिया में जाने के लिए फडफाडते लोगोंका भी है। कितनी तरह की तकलीफों से ये गुजरते हैं। ये लोग (इन्हे शरणार्थी कहें या आजादी परस्त?)  घने जंगलों, ऊंची लहरों वाले विशाल महासागरों को पार करते हैं। वे घने अंधेरे में, एक दूसरे के ऊपर बैठकर, भूखे, प्यासे, परेशान और डरे हुएभयावह सफर करते हैं।नतीजे में कई बार उन्हें आजादी हासिल हो जाती है तो कई बार मौत उन्हें जिंदगी की सभी परेशानियों से आजाद कर देती है।

पिछले हफ्ते इस तरह का एक बड़ा हादसा देखा। एक मछली पकड़ने वाली नाव, जिसमें किसी भी तरह यूरोप पहुँचने के इच्छुक लोगों को भेड़-बकरियों की तरह भरा गया था, ग्रीस के तट के पास डूब गई। इस दुर्घटना में कम से कम 500 लोगों की मौत हुई या गहरे सागर में लापता हैं। ऐसी खबरें आ रही हैं कि इस हादसे में 300 पाकिस्तानी मारे गए जो अपने देश में गरीबी और अस्थिरता के हालात से आज़ादी पाने का रास्ता ढूंढ रहे थे। चकनाचूर हो चुकी इस नीली नौका की आसमान से ली गई एक तस्वीर ग्रीस के तटरक्षक बल ने जारी की है। इसमें साफ नजर आ रहा है कि ढेर सारे लोग इस नाव की एक-एक इंच जगह पर बैठे हुए थे। इस तस्वीर ने तीन साल के उस सीरियाई बच्चे की तस्वीर की यादें ताज़ा कर दीं है जो अपने परिवार के साथ इस्लामिक राष्ट्र सीरिया से भागकर यूरोप के स्वर्ग में जाने का प्रयास कर रहा था।

अफ्रीका, मध्यपूर्व और एशिया के गरीब देशों से यूरोप की ओर आने वाले प्रवासियों या शरणार्थियों की संख्या सन् 2015 से लगातार बढ़ती जा रही है। बताया जाता है कि पिछले 8 सालों में 10 लाख से ज्यादा नए लोग यूरोप में आ चुके हैं जिससे इस महाद्वीप की तस्वीर बदल रही है। सन् 2017  में ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने आंकड़ों और ग्राफ के जरिए प्रवासियों के आगमन के सकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डाला था। उसने लिखा था, “प्रवासियों के कारण राजनैतिक परेशानियां तो हो सकती हैं लेकिन यदि हम अपनी अर्थव्यवस्थाओं को सिकुड़ने से बचाना चाहते हैं तो हमें और ज्यादा प्रवासियों की जरूरत होगी”।और जनता के दिमाग में समुद्र में डूबे सीरियाई बच्चे की तस्वीर कुछ इस तरह बैठ गयी थी कि यूरोपीय संघ और उसके देशों को प्रवासियों के लिए अपने दरवाजे खोलने पड़े। अकेले जर्मनी ने दस लाख से ज्यादा शरणार्थियों को अपने देश में आने दिया।

लेकिन हालिया समय में सब बदल गया है। लोकलुभावन नेता शरणार्थियों का स्वागत करने को तैयार नहीं हैं। रूस से लड़ाई शुरू होने के बाद से अब तक करीब 50 लाख यूक्रेनी यूरोपियन यूनियन में आ चुके हैं जिनकी शरणार्थियों की तरह देखभाल की जा रही है। इसके चलते यूरोप और यूके में प्रवासियों को लेकर कड़ी नीतियां अपनाई जा रही हैं और इनके लिए दरवाजे लगभग बंद हो चुके हैं। यूरोपीय सरकारें सोच रही हैं कि इन गरीब और हताश लोगों से अपने धनी महाद्वीप को बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?  स्वीडन की अध्यक्षता में इयू ने अवैध प्रवास को मुख्य मुद्दा बना लिया है। सभी सदस्य राष्ट्रों द्वारा शरणार्थियों का बोझा बराबर-बराबर उठाने की कोई व्यवस्था नहीं है। नतीजे में सीमाओं पर इनके साथ होने वाला व्यवहार पहले कहीं अधिक कठोर हो गया है और इन्हें गैरकानूनी तरीकों से वापस भेजने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।

हंगरी, क्रोएशिया और रोमानिया में योरोपीय संघ के कानूनों और संयुक्त राष्ट्र संघ के कायदों का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है। प्रवासियों को कड़कड़ाती ठंड में देशों की सीमाओं के बीच रहने के लिए बाध्य किया जा रहा है। इटली में जिओर्जिया मेलोनी की नई सरकार ने भूमध्य सागर में शरणार्थियों को ढूंढकर उन्हें बचाने वाले एनजीओ के लिए समस्याएं खड़े करने वाले कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। ब्रिटेन ने अवैध प्रवासियों को रवांडा भेजने की जो नीति बनाई है, भले ही उसको लागू करना मुश्किल हो रहा हो, परन्तु ऑस्ट्रिया जैसे देश कह रहे हैं कि ईयू को भी ऐसा ही कुछ करना चाहिए।

यह निश्चित है कि कड़े कानूनों, बंद दरवाजों और आजादी की घटती उम्मीदों के बावजूद अधिकाधिक शरणार्थी यूरोप के तटों पर आते रहेंगे और इससे तनाव बढ़ता रहेगा। अफगानी और सीरियाई अपने-अपने देशों के निराशाजनक हालात के चलते अभी भी अपने देश छोड़ रहे हैं। उनके साथ जुड़ रहे हैं एशियाई और अफ्रीकी जो यूक्रेन युद्ध के कारण खाद्य पदार्थों और इंधन की बढ़ती कीमतों के चलते गरीबी के जाल में फंस गए है। यहां तक कि अब भारतीय भी गैरकानूनी ढंग से यूके में प्रवेश कर रहे हैं। यूके होम आफिस के अनुसार वे इंग्लिश चैनल के रास्ते छोटी-छोटी नावों पर खतरनाक यात्राएं करके वहां आने वाला दूसरा सबसे बड़ा समूह हैं।

आंकड़ों के अनुसार जनवरी से मार्च के दौरान 675 भारतीय वर्क वीजा प्रतिबंधों से बचने के लिए छोटी नावों के जरिए यूके में आए। दमनकारी राजनैतिक परिदृश्य के साथ-साथ क्लाइमेट चेंज के चलते भी अधिकाधिक लोग अपनी तकदीर आजमाएंगे। इसमें कोई शक नहीं कि इस दौरान यूरोप, यूके और अमेरिका में प्रवास एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन जाएगा जो बड़ी चुनावी जीतों और हारों का कारण बनेगा। आने वाले समय में प्रवासियों के लिए क़ानूनी प्रक्रिया के निर्धारण और यूरोप की सीमाओं के बाहर अधिक आर्थिक सहायता पहुंचाने की जबरदस्त वकालत की जाएगी। लेकिन तब तक आजादी की हसरत में अधिकाधिक प्रवासी अवैधानिक ढंग से भूमध्य सागर पार करते रहेंगे। हमारे दिलोदिमाग में ऐसी कई और डरावनी तस्वीरें अंकित होती रहेंगीं। समस्या गहराएगी और बिगड़ेगी और यह मानवीय आपदा उन मानवीय आपदाओं पर भारी पड़ेगी जो हम अपनी ताकत बढ़ाने के लिए रोजाना पैदा करते हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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