फ्रांस में लोग बुरी तरह भड़के हुए हैं और राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। वहां पांच दिनों से दंगे चल रहे हैं और देश में तनाव इतना ज्यादा बढ़ा है कि राष्ट्रपति को अपनी पहले से तय तीन दिन की जर्मनी की वह यात्रा टालनी पड़ी है, जो पिछले 23 वर्षों में किसी फ्रांसीसी राष्ट्रपति की जर्मनी की पहली यात्रा होती। साफ़ है फ्रांस में हालात कितने ख़राब हैं।
कुछ दिन पहले तक राष्ट्रपति मैक्रों पेंशन पाने की न्यूनतम आयु 62 साल से बढ़ाकर 64 साल करने के अपने फैसले से पैदा हुए राजनैतिक संकट से जूझ रहे थे। इस निर्णय ने उन्हें काफी अलोकप्रिय बना दिया था। यह एक विडंबना ही है कि राष्ट्रपति मैक्रों दुनिया के नेताओं को एक मंच पर लाने में आगे रहे हैं। वे स्वच्छ पर्यावरण वाली पृथ्वी, शांति और आर्थिक स्थिरता की प्राथमिकता लिए हुए हैं।लेकिन अपने देश में ही उन्हे अशांति और अस्थिरता का मुकाबला करना पड रहा हैं। यूक्रेन युद्ध प्रारंभ होने से पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात करने वालों में वे सबसे पहले बड़े नेता थे – हालांकि उनके इस कदम की उस समय तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। मैक्रों को उम्मीद है कि वे “वह अंतर्राष्ट्रीय मेल-मिलाप कायम कर पाएंगे जो युद्ध रोकने और मौजूदा चुनौतियों का मुकाबला करने में उपयोगी होगा‘” और “एक शक्तिशाली यूरोप का निर्माण कर पाएंगे जो बदली हुई दुनिया में एक मज़बूत आवाज़ बन सकेगा और जिसके सिद्धांत दुनिया के लिए उपयोगी होंगे।” तभी अपने करिश्माई व्यक्तित्व के कारण वे अपने समकालीन नेताओं के बीच एक हीरो बनकर उभरे हैं।
लेकिन अपने देश में उन्हें हिकारत और नफरत का सामना करना पड़ रहा है। वे जनता में बहुत अलोकप्रिय हो गए हैं। यहां तक कि देश के इतिहास में पहली बार फ्रांसीसियों के एक बड़े क्षेत्र में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई है जहां 8 मई को मुक्ति दिवस के रूप में मनाया जाता था।
वे फ्रांस के सबसे युवा राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने दुनिया में चल रही दक्षिणपंथ और पोपुलिज्म की लहर को शिकस्त दी थी। लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें थी। उन्होंने राजनैतिक ढांचे की बांटने वाली दीवारों को ध्वस्त किया था। लेकिन आज वे निंदा और तिरस्कार का सामना कर रहे हैं। सार्वजनिक आयोजनों में उनका मजाक उड़ाया जाता है। उनके साथ धक्का-मुक्की हुई है।उन्हें थप्पड़ मारे गए हैं और उन पर अंडे-टमाटर फेंके जाते हैं। राजनैतिक दृष्टि से भी वे असुरक्षित हैं। उनकी अल्पमत मध्यमार्गी सरकार धुर वामपंथी और राष्ट्रवादी व धुर दक्षिणपंथी समूहों के दो पाटों के बीच फंसी हुई है। पहले पेंशन के मुद्दे और अब इन दंगों के चलते विपक्ष को उन पर कीचड़ उछालने का एक और मौका मिल गया है।
हालांकि इस बार दंगों की प्रकृति अलग है। वे किसी सरकारी नीति के कारण नहीं भड़के हैं बल्कि इनके मूल में है पुलिस द्वारा की गई हिंसा और नस्लवाद। पिछले हफ्ते मोरक्को और अल्जीरियाई मूल के एक 17 साल के युवक को एक ट्रैफिक स्टाप पर एक पुलिस अधिकारी ने गोली मारी,जिससे उसकी मौत हो गई। इस हत्या ने पुलिसिया हिंसा के सबसे अतिवादी स्वरूप को बेनकाब किया जिसमें उन समुदायों को लंबे समय से निशाना बनाया जाता रहा है जो श्वेत नहीं हैं। इस घटना से पूरे देश में असंतोष फैला। यह राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की सत्ता के लिए एक और झटका है क्योंकि उन्हें एक बार फिर आग की लपटों में घिरे फ्रांस का सामना करना पड़ रहा है। राष्ट्रपति ने पुलिस की कार्यवाही को ‘अक्षम्य’ और ‘गैर-जिम्मेदाराना’ बताया। सन् 2017 की शुरूआत में पुलिस द्वारा हथियारों के उपयोग के बारे में नियमों में ढील दी गई थी (यह मैक्रों के पूर्ववर्ती फ्रेंकोइस हॉलैंड ने किया था)। इसके नतीजे में उसके बाद के सालों में पुलिस द्वारा प्राणघातक गोलीबारी की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है। सन् 2017 में जहां इन घटनाओं में 27लोगों की मौतें हुईं थीं वहीं सन् 2021 में इनमें 52 लोग मारे गए।
सन् 2022 में सड़कों पर वाहनों की जांच के दौरान 13 लोग मारे गए, जो एक रिकार्ड है। बॉनल्यु (बड़े शहरों के उपनगरों) में हालात ज्यादा बुरे हैं। वहां रहने वालों का मानना है कि पुलिस अहंकारी है और उनके साथ बुरा व्यवहार करती है। बताया जाता है कि युवकों के आईडी कार्ड देखे जाते हैं और उनके ‘इरादों’ की पड़ताल की जाती है।30 जून को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय ने फ्रांस से गुहार की कि वह “कानून लागू करने में नस्लवाद और भेदभाव के गंभीर मामलों की ओर ध्यान दे।” राष्ट्रपति मैक्रों अत्यंत गंभीर मुश्किल में हैं। सन् 2017 में पद संभालने के बाद से उन्होंने पुलिस पर भरोसा किया जिससे देश की सियासत में पुलिस की भूमिका और महत्वपूर्ण हुई। विभिन्न सामाजिक सुधारों के विरोध के लंबे सिलसिले – जिसमें पेंशन प्रणाली का मुद्दा सबसे ताजा है – का मुकाबला पुलिस ने सख्ती से किया। महामारी के सबसे बुरे दौर में मैक्रों द्वारा लगाए गए लाकडाउन और कर्फ्यू पर अमल करवाने में पुलिस अधिकारी सबसे आगे थे। अब जबकि पुलिस राष्ट्रस्तरीय टकरावों और विवादों के केन्द्र में है, कोई आश्चर्य नहीं कि मैक्रों के हाथ बंधे हुए होंगे।
इसके अलावा राजनीति में भी मुश्किले है। राजनीति में भी मैक्रों की स्थिति अब अच्छी नहीं है। उनकी विरोधी और प्रतिद्वंद्वी नेशनल रैली की मारीन ल्युपेन ने इसे “तानशाह सत्ता का नशा” बताया और स्थानीय स्तर पर कर्फ्यू लगाने और जरूरत होने पर आपातकाल लागू करने की बात कही। उन्होंने प्रवासियों से जुड़े कानूनों के ‘ढीले-ढाले’ होने की बात भी कही हालांकि 17 साल का मृतक नाहेल देश में ही पला-बढ़ा फ्रांस का नागरिक था।
गोलीबारी की यह घटना, ल्युपेन द्वारा बुने जा रहे राजनैतिक नैरेटिव, और हिंसा रोकने में राष्ट्रपति मैक्रों की अक्षमता और पुलिस के अत्यधिक उपयोग – इन सबके मिलेजुले असर के चलते देश की जनता बहुत गुस्सेमें है। इसमें शक नहीं है कि हाल के समय में फ्रांस में हालात दूसरे धर्मों के लोगों और गैर-श्वेतों के विरूद्ध रहे हैं। समय-समय पर फ्रेंच पहचान और राष्ट्रवाद का धुर दक्षिणपंथी नैरेटिव लोगों के मन में बिठाने की कोशिशें होती रही हैं। हाल की गोलीबारी की घटना से समाज का वह तबका भड़क उठा है, जो इस तरह के नैरेटिव से सहमत नहीं है बल्कि चाहता है कि ऐसे विचारों के लिए समाज में कोई जगह न हो।तभी गुस्सा अब सड़कों पर है और फ्रांस वैसे ही सोच रहा है जैसी कि पूरी दुनिया सोच रही है। जहाँ तक राष्ट्रपति मैक्रों का सवाल है, इतिहास उन्हें एक ऐसे राष्ट्रपति के रूप में याद करेगा जिसने फ्रांस के समाज के लम्बे समय से चले आ रहे विभाजनों को ख़त्म करने की कोशिश हुई की लेकिन न केवल उसमें बुरी तरह असफल रहे बल्कि सर्वाधिक अलोकप्रिय भी हुए। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)