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जान चली गई तो कहते हैं जानलेवा है

दिल्ली

दिल्ली में आई बाढ़ के पानी में डूबकर तीन बच्चों की मौत के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अब लोगों को शिक्षा दे रहे हैं कि बाढ़ ख़तरनाक मोड़ पर है, उसे देखने या वीडियो बनाने न जांए और न ही सेल्फ़ी ले। बात तो ठीक है पर यह शिक्षा या ऐसी हिदायत पहले ही दे दी होती या फिर बाढ़ तक जाने से रोकने के लिए पहले ही इंतज़ाम किए होते तो आज इस हादसे को रोका जा सकता था। माना कि सेल्फ़ी का बुख़ार लोगों को 2014 से ऐसा लगा है कि वे जान जोखिम की चिंता भी नहीं करते हैं। पर अगर सरकारें ही ऐसी घटनाओं को रोके तो बुराई भी कैसी।

लेकिन अगर सरकार को ऐसा ज्ञान ही न हो तो किया भी क्या जा सकता है। भला हो कि दिल्ली के मुकंदपुर में बाढ़ के पानी में डूबकर बच्चों की मौत से ही सही केजरीवाल को इसका ध्यान तो आया वरना तो दिल्ली की तीनों राजनैतिक पार्टियों को एक दूसरे की टांग खींचने से ही फ़ुरसत नहीं हो रही। बच्चों की मौत के बाद केजरीवाल ने सोशल मीडिया पर अपनी अपील जारी की या लोगों को सलाह के साथ हिदायत दी तो विरोधी पार्टियों ने उनके लत्ते फाड़ने शुरू कर दिए। कोई बाढ़ के लिए सरकार की लापरवाही को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है तो कोई सत्ता में बैठे पूर्व राजनैतिक दलों को। सरकार कह रही है कि बाढ़ के पीछे भाजपा की साज़िश है और वह अपनी हरियाणा सरकार के ज़रिए बाढ़ में डूबी दिल्ली को और डुबोना चाहती है।

सो उसने हथिनीकुंड बैराज का इस्तेमाल कर रही है। तो विरोधी कह रहे हैं कि केजरीवाल सरकार बहानेबाज़ी कर अपनी विफलताओं को छिपा रही है। भाजपाई कहरहे हैं कि बाढ़ पीड़ितों की मदद केन्द्र सरकार की टीमें कर रही हैं और मुख्यमंत्री बहानेबाज़ी में लगे हैं उन्हें दिल्ली की चिंता नहीं। या फिर यूँ कहो कि बाढ़ से लोगो को राहत दिलाने लिए मोर्चा खोलने की जगह तीनों राजनैतिक पार्टियों ने ही एक दूसरे के ख़िलाफ़ मोर्चा रखा है। दुआ दें दिल्ली वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कि विदेश दौरे से लौटते ही बाढ़ और दिल्ली लोगों के बारे में उपराज्यपाल से ही सही खबर तो ले ली वरना तो मणिपुर के लोगों से पूछो कि उन्हें प्रधानमंत्री के मणिपुर आकर हाल तक न पूछने की कितनी कसक है ।

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By ​अनिल चतुर्वेदी

जनसत्ता में रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव। नया इंडिया में राजधानी दिल्ली और राजनीति पर नियमित लेखन

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