गांधी विचार को लेकर केन्द्र सरकार की मंशा जगजाहिर है। लेकिन गांधी विचार हर कीमत पर राज करने और भूमि हड़पने की सत्ता से परे है। गांधी के जाने के बाद उनके नाम पर ली, दी या ग्रहण की गयी भूमि या जमीन पर गांधी अपना कोई दावा नहीं करते। न ही ऐसी जमीन से गांधी का कोई वास्ता रहा।..सर्व सेवा संघ ने जो अपना हाल किया, उसे देखते हुए गांधी होते तो कभी का इसको भी भंग कर देते।…सर्व सेवा संघ के परिसर में बने गांधी विद्या संस्थान पर ताला लगे डेढ़ दशक हो रहे थे। बंद पड़े परिसर में कितनी विद्या चल रही होगी यह अपन सभी समझ सकते हैं। फिर बंद पड़े विद्या संस्थान की किताबों से गांधी विचार को बढ़ावा मिले या सावरकर वाद को, इससे क्या फर्क पड़ता है?
महात्मा गांधी ने दो बातें साफ तौर पर जीते जी ही कह दी थीं। एक तो “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। इसलिए जो कुछ भी मैंने लिखा या बोला, है उसे छोड़ दें। जो मैंने किया उसको ही ध्यान में रखें।” दूसरा अगर किसी विषय पर मेरे पहले और बाद के वक्तव्यों में अंतरभेद दिखे तो आखिर में दिए गए को ही मेरा वक्तव्य मानें। इन दो बातों से समझ सकते हैं कि गांधी दूरदर्शिता में कितने प्रगतिशील थे। कितने विकास प्रिय या मॉडर्न थे। थोपी गयी या उधार ली गयी सभ्यता को गांधीजी किसी भी देश के लिए अपनाए जाने लायक नहीं मानते थे। समाज अपनी सभ्यता अपनी समझ, अपने विवेक और अपने व्यवहार से गढ़ता है। गांधीजन क्या गांधी विचार के इस मॉडर्न मॉड्यूल को आज समझ कर अपना विकास कर सकते हैं? या फिर सरकारों की तरह आज सिर्फ गांधी नाम को सत्ता के लिए भुनाने भर की होड़ लगी है?
पिछले दिनों गांधी नाम को लेकर दो विवाद सामने आए। दोनों विवादों में गांधी विचार नदारद ही रहे। सर्व सेवा संघ के बनारस परिसर में बरसों से बंद पड़े गांधी विद्या संस्थान की जमीन को हड़पने का आरोप इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पर लगा। सर्व सेवा संघ के कर्मचारी गांधी विद्या संस्थान की भूमि अधिग्रहण के मसले को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। सर्व सेवा संघ को गांधीजी के जाने के बाद विनोबाजी ने बनाया था। गांधीजी चाहते भी थे की स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस पार्टी सर्व सेवा संघ का रूप ले। और गांधी विद्या संस्थान जयप्रकाश नारायण द्वारा बनाई गई संस्था हैं। रेलवे और सर्व सेवा संघ के बीच भूमि विवाद बरसों से बेवजह चला आ रहा है। समय के साथ जो बदलता नहीं है, समय उसको बेदखल कर देता है।
इस सब के बीच दूसरी खबर आई कि गीता प्रेस, गोरखपुर को केन्द्र सरकार ने गांधी शांति पुरस्कार दे दिया। इससे कांग्रेस को गड़े-मुर्दे उखाड़ने का मौका मिला। गीता प्रेस और गांधीजी के अमधुर संबंधों का हवाला दिया गया। सरकार के विरोध की बेवजह कोशिश हुई। गीता प्रेस ने एक करोड़ की पुरस्कार राशि ठुकरा दी। जाहिर है गांधी नाम पर सिर्फ सत्ता की रस्साकशी चल रही है।
गांधी नाम में ऐसा क्या है जो गांधी विचार को ही दबाने के काम में लिया जा रहा है? प्रधानमंत्री अपनी हर विदेश यात्रा पर सारे देश और प्रवासी दुनिया के सामने महात्मा गांधी की प्रतिमा पर फूल चढ़ाते, नमन करते देखे जा सकते हैं। लेकिन जब उनके किए या न किए का विरोध जताने वाले देशवासी गांधी प्रतिमा के सामने आंदोलन करते हैं तब स्वयंसेवी सरकार के पास सवाल के जवाब नहीं होते। अब इस सबको कैसे समझें? लोकतंत्र के संकल्प व स्वतंत्र विचार के गांधी को सामने रख कर एकतंत्र राज चलाने की महत्वाकांक्षा भी अजब-गजब रंग दिखाती है। क्यों हिंदू पैदा हुआ मोहनदास गांधी अखण्ड हिन्दुस्तान बनाए जाने के आड़े आ रहा है? बेशक आप-हम यह न जानते हों, मगर इस देश की जनता अपने गांधी को, अपने समाज को और अपने द्वारा बनायी सरकारों को अच्छे से जानती है। देर-सबेर तो सभी की दूरदर्शिता सामने आ ही जाती है।
गांधी विचार को लेकर केन्द्र सरकार की मंशा जगजाहिर है। लेकिन गांधी विचार हर कीमत पर राज करने और भूमि हड़पने की सत्ता से परे है। गांधी के जाने के बाद उनके नाम पर ली, दी या ग्रहण की गयी भूमि या जमीन पर गांधी अपना कोई दावा नहीं करते। न ही ऐसी जमीन से गांधी का कोई वास्ता रहा। गांधी विचार का वास्ता तो समरस भावना के सर्वहारा समाज और उससे जुड़ी सर्व सेवा से रहा। सर्व सेवा संघ ने जो अपना हाल किया, उसे देखते हुए गांधी होते तो कभी का इसको भी भंग कर देते। गांधी ने संस्थाएं केवल सेवा कार्य के उद्देश्य से बनायीं। और इसलिए भी कि सेवाकर्मी संस्थाओं के कार्य से अपना जीवन भी चला सकें। संस्थाएं जो हर कीमत पर और कैसे भी समय में आत्मनिर्भर ही बनी रहें।
सर्व सेवा संघ के परिसर में बने गांधी विद्या संस्थान पर ताला लगे डेढ़ दशक हो रहे थे। बंद पड़े परिसर में कितनी विद्या चल रही होगी यह अपन सभी समझ सकते हैं। फिर बंद पड़े विद्या संस्थान की किताबों से गांधी विचार को बढ़ावा मिले या सावरकर वाद को, इससे क्या फर्क पड़ता है? इसलिए बंद संस्थान के बदले खुला संस्थान ही लोगों के विचार करने के काम आ सकता है। आज गांधी-विनोबा का सर्व सेवा संघ से या जेपी का गांधी विद्या संस्थान से कोई लेना-देना नहीं हो सकता। लेना-देना अगर किसी का है तो संस्था से जुड़े सर्वसेवकों का और उनके गांधी विचार से ही हो सकता है। मगर सर्व-सेवक अगर भूमि पचड़े की कानूनी जद्दोजहद में पड़ेंगे तो गांधी विचार का क्या होगा? सरकार से भूमि के मालिकाना हक के लिए लड़ेंगे तो सर्व सेवा कौन करेगा? संघ की भूमि के लिए लड़ेंगे तो समाज में फैले भ्रम को दूर करने की लड़ाई कौन लड़ेगा? बेशक बंद पड़े गांधी विद्या संस्थान भूमि की कीमत करोड़ो में होगी लेकिन उसके खुले रहने से ही समाज में फैले भ्रम को ख़ाक में मिलाया जा सकता है।
गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देने का विवाद भी गांधी विचार से विमुख है। सरकारें सत्ता के ही काम में लगती हैं। समाज की आध्यात्म जागृति के लिए गीता प्रेस के योगदान को सभी मानते हैं। गांधीजी के पढ़े-लिखे को समझें तो उनके मन में भी गीता प्रेस के योगदान के प्रति कोई संदेह नहीं दिखेगा। जहां गीता प्रेस के आध्यात्म का प्रचार-प्रसार हिन्दुओं तक सीमित रहा, वहीं गांधी का आध्यात्म मनुष्यता की हर नीति, राजनीति को भी इस दायरे में लेने वाला रहा। बेशक गीता प्रेस के संपादक और गांधी जी के आध्यात्मिक विश्वास में फर्क रहा होगा, लेकिन आध्यात्म के प्रचार-प्रसार में गीता प्रेस के योगदान को गांधीजी भी नकार नहीं पाते। इसलिए भाजपा द्वारा गांधी को गीता प्रेस से, और कांग्रेस द्वारा गीता प्रेस से गांधी को भिड़वाने का औचित्य जनता को समझना होगा।
ऐसा क्यों होता है कि गांधी नाम को तो अपन सब अपनाना चाहते हैं लेकिन गांधी विचार को विवाद में पड़ने देते हैं। गांधी विचार पर विवाद के बजाए नए सिरे से विचार भी हों। सर्व सेवा और स्वयं सेवा का अंतर समझे बिना गांधी विचार को समझा नहीं जा सकता। सेवा भाव रहेगा तभी सरकारें, संघ या संस्थाएं चलती रह सकती हैं। समाज के लिए गांधी नाम हमेशा विचार के काम ही आता रहेगा।
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