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हमारी फ़िल्में हमें कहां ले आईं

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pan india films: जिस 2024 से हम हाल में गुज़र कर आए हैं, उसकी शुरूआत ‘मेरी क्रिसमस’ से हुई थी जो बॉक्स ऑफ़िस पर अपनी लगभग 30 करोड़ की लागत तक भी नहीं पहुंच पाई थी। इसी तरह 180 करोड़ में बनी साल की अंतिम हिंदी फ़िल्म ‘बेबी जॉन’ का 50 करोड़ तक पहुंचना भी मुश्किल हो रहा है। यानी बीते साल हिंदी की पहली और आख़िरी दोनों ही फ़िल्में खेत रहीं। बल्कि ‘बेबी जॉन’ ने तो यह भी साबित किया कि पैन इंडिया फ़िल्म बनाना सबके बस की बात नहीं।

परदे से उलझती ज़िंदगी

एक तरफ़ ‘पुष्पा 2 – द रूल’ है और दूसरी तरफ़ ‘ऑल वी इमैजिन ऐज़ लाइट’ है। एक को इतने लोग देखने आ रहे हैं कि सबसे ज़्यादा कमाई का ‘दंगल’ का ख़िताब ख़तरे में लग रहा है जिसमें आमिर खान थे और जो चीन में अपनी अप्रत्याशित सफलता के कारण इस शिखर पर पहुंची थी।

और दूसरी का हाल यह है कि उसकी निर्देशक पायल कपाड़िया को सोशल मीडिया पर गुजारिश करनी पड़ रही है कि इसके ओटीटी पर आने का इंतज़ार करने की बजाय प्लीज़ इसे थिएटर में जाकर देखें।

अगर कोई उनसे शिकायत करता है कि उसके शहर में यह फ़िल्म नहीं लगी है तो वे उसे सलाह देती हैं कि अपने करीब के थिएटर को टैग करके यह बात लिखिए ताकि उस पर इसे दिखाने का दबाव बने।

ये दोनों फ़िल्में हालांकि दक्षिण का निर्माण हैं, लेकिन हिंदी में भी रिलीज़ की गई हैं। हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में साथ-साथ रिलीज़ होने वाली फ़िल्मों को पैन इंडिया फ़िल्म कहा जाता है, लेकिन अब ऐसी फ़िल्में इतनी ज़्यादा आ रही हैं कि हिंदी और दक्षिण का भेद ही मिटता दिख रहा है।

परदे पर यह एक नई स्थिति है और हिंदी वाले भी अब दक्षिण के निर्देशकों और कलाकारों को लेकर पैन इंडियन फ़िल्में बना रहे हैं।

मसलन ‘बेबी जॉन’ के लिए जियो स्टूडियो ने एटली और उनकी पत्नी के साथ मुंबई के भी दो निर्माता लिए, निर्देशक दक्षिण के कलीस को बनाया और दोनों तरफ़ के कलाकार रखे।

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मगर कभी-कभी कोई साल ऐसा भी होता है जिसका आरंभ और अंत दोनों समान नियति के होते हैं। जिस 2024 से हम हाल में गुज़र कर आए हैं, उसकी शुरूआत ‘मेरी क्रिसमस’ से हुई थी जो बॉक्स ऑफ़िस पर अपनी लगभग 30 करोड़ की लागत तक भी नहीं पहुंच पाई थी।

इसी तरह 180 करोड़ में बनी साल की अंतिम हिंदी फ़िल्म ‘बेबी जॉन’ का 50 करोड़ तक पहुंचना भी मुश्किल हो रहा है।

यानी बीते साल हिंदी की पहली और आख़िरी दोनों ही फ़िल्में खेत रहीं। बल्कि ‘बेबी जॉन’ ने तो यह भी साबित किया कि पैन इंडिया फ़िल्म बनाना सबके बस की बात नहीं।

इससे पिछले साल हिंदी सिनेमा उद्योग ने लगभग पांच हज़ार करोड़ का बिजनेस किया था। मगर 2024 में वह चार हज़ार करोड़ के लिए भी तरसता रहा।

और हिंदी फ़िल्म उद्योग के कर्ताधर्ता इतने साहसी भी नहीं हैं कि मलयालम सिनेमा की तरह साफ़-साफ यह घोषित करें कि हम इस साल इतने घाटे में रहे।

केरल फ़िल्म प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ने हाल में ऐलान किया कि बीते साल कुल 199 मलयाली फ़िल्में बनी जिनमें से केवल 26 सफल हुईं।

एसोसिएशन ने कहा कि हमारी इंडस्ट्री करीब 700 करोड़ रुपए के नुक्सान में रही। इसके लिए उसने बढ़ती निर्माण लागत, कलाकारों के बढ़ते पारिश्रमिक और थिएटरों में घटते दर्शकों को कारण बताया।

उसके मुताबिक, हालात तभी सुधरेंगे जब हम कम लागत की, मगर बेहतरीन फ़िल्में बनाएं। मुश्किल से चार महीने पहले मलयालम सिनेमा हेमा कमेटी कि रिपोर्ट से महिलाओं के शोषण और उत्पीड़न के आरोपों से घिर गया था।

उसके बाद वहां कई मठाधीशों की बड़े पदों से छुट्टी हुई। कई केस दर्ज़ हुए। कई लोग गिरफ़्तार हुए और कई ज़मानत पर हैं। इस सबके बावजूद वहां उद्योग के लाभ और हानि के ऐलान की व्यवस्था बनी।

छोटी फ़िल्मों की पूछ नहीं…(pan india films)

सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि छोटी फ़िल्मों को दर्शक नहीं पूछ रहे। दक्षिण के स्टार सिद्धार्थ ने कुछ दिन पहले कहा कि ‘ऑल वी इमैजिन ऐज़ लाइट’ ने फ्रांस के कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल और गेल्डन ग्लोब पुरस्कार समारोह में कितनी भी वाहवाही हासिल की हो, मगर यहां लोग उसे थिएटर में देखने नहीं आएंगे।

वही हो रहा है। याद कीजिए, दो साल पहले जब अनुराग कश्यप की ‘कैनेडी’ कान फ़ेस्टिवल में दिखाई गई थी तो फ़िल्म के ख़त्म होने पर तीन-चार मिनट तक लोग खड़े होकर तालियां बजाते रहे थे।

अनुराग इससे इतने अभिभूत हुए कि बजती तालियों के बीच ही वे तीन लाइन पीछे खड़े सुधीर मिश्रा के पास पहुंचे और उनके पांव छुए जिन्हें वे फ़िल्मकारिता में अपना अग्रज मानते हैं। मगर यह जो ‘कैनेडी’ नाम की फ़िल्म थी वह दो साल बाद भी रिलीज़ नहीं हो सकी है।

अनुराग की पहली फ़िल्म ‘पांच’ भी पच्चीस साल से रिलीज़ नहीं हो सकी और उनकी ‘मैग्ज़िमम सिटी’ जो एक ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए बन रही थी वह भी बीच में ही रुकवा दी गई। हार कर 2024 के अंत में अनुराग कश्यप ने मुंबई छोड़ कर दक्षिण चले जाने का इरादा जताया।

यानी बीता साल इस माने में भी मनहूस रहा कि उसने अनुराग कश्यप को हिंदी फ़िल्म उद्योग को छोड़ने की बात सोचने पर मजबूर कर दिया।

हिंदी में बेहतर फ़िल्में बनाने वाले फ़िल्मकारिता का जो मुहावरा इन दिनों इस्तेमाल कर रहे हैं उसमें अनुराग का भारी योगदान रहा है।

राम गोपाल वर्मा की ‘सत्या’ लिखने से उनकी शुरूआत हुई थी जिसके बाद वे निर्देशन और निर्माण में उतरे। हिंदी पट्टी से आए जिन कलाकारों का काम देख कर आज हम चमत्कृत होते हैं उनमें से ज़्यादातर अनुराग की ही देन हैं।

दक्षिण के स्टारों के लिए पागल

कुछ समय पहले, ‘रायफ़ल क्लब’ नाम की एक मलयाली फ़िल्म में अभिनय का मौका मिलने पर उन्होंने वहां देखा कि सब सलाकार कैसे एक-दूसरे से सहयोग कर रहे हैं। कोई दूसरे से आगे निकलने की जुगाड़ में नहीं है।

यह बात हिंदी सिनेमा में देखने को वे तरस गए थे। उन्होंने कहा कि कभी हिंदी के दर्शक अमिताभ बच्चन, सलमान और गोविंदा के दीवाने होते थे।

मगर आज वे भी दक्षिण के स्टारों के लिए पागल हैं। इसीलिए ‘पुष्पा 2 – द रूल‘ का ट्रेलर पटना में रिलीज़ किया गया। उन्होंने टिप्पणी की कि हमारे फ़िल्मकार अब ‘क्रिएटर नहीं बल्कि केटरर बन कर रह गए हैं।’

निर्माताओं का ध्यान केवल इस बात पर है कि फ़िल्म बिकेगी कैसे और अभिनेताओं का ध्यान अभिनय की बजाय स्टार बनने पर है।

उन्होंने कहा, इसीलिए हिंदी में सिर्फ़ रीमेक या पुरानी सफल फ़िल्मों के सीक्वल बन रहे हैं। ऐसे में मैं कोई अलग तरह की फ़िल्म नहीं बना सकता, कोई प्रयोग नहीं कर सकता। फिर मैं यहां क्या करूं? अनुराग के इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।

श्याम बेनेगल चल बसे 

नब्बे की उम्र में, हाल में श्याम बेनेगल हमें छोड़ कर चले गए। समानांतर सिनेमा के मुरीद बख़ूबी जानते हैं कि यह कितना बड़ा नुक्सान है।(pan india films)

यही नहीं, गुज़रे साल राज कपूर और मोहम्मद रफ़ी की सौवीं जयंती भी मनाई गई। पता नहीं रफ़ी की याद में कोई बहुत महत्वपूर्ण समारोह किया गया या नहीं। लेकिन राजकपूर के लिए बड़ा समारोह हुआ।

उनकी फ़िल्में कई शहरों में फिर से रिलीज़ की गईं। मगर हर जगह राजकपूर को ‘द ग्रेटेस्ट शोमैन’ कहा गया। हम हमेशा यही करते हैं।

याद रखिए, राजकपूर की शोमैनशिप का केंद्र एक बेहद बेचारा और सामान्य सा व्यक्ति रहा करता था। केवल शोमैन कह कर हम राजकपूर के साथ अन्याय करते हैं।

यही वजह है कि शोमैनशिप की उनकी विरासत को आगे बढ़ाने वाले सुभाष घई, संजय लीला भंसाली और करण जौहर ने कभी उस सामान्य व्यक्ति की खोज-ख़बर नहीं ली, जो उस समय हमारे समाज के एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था।

मोदी ने इस फिल्म की तारीफ़ की

विक्रांत मैसी के मामले में भी बीता साल अनोखा रहा। गोधरा कांड पर आधारित उनकी फ़िल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ संसद के बालयोगी ऑडिटोरियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अन्य मंत्रियों और सत्ता पक्ष के सांसदों व नेताओं को दिखाई गई।

बाद में मोदी ने इस फिल्म की और इसे बनाने वालों की तारीफ़ की। हालांकि यह फ़िल्म विवादों में फंस गई और ट्रोलिंग से परेशान होकर विक्रांत मैसी ने फ़िल्मों से ब्रेक लेने का ऐलान कर दिया। वे और निर्माता एकता कपूर लगातार कहते रहे कि हमने वही दिखाया है जो सच था।

बल्कि फ़िल्म का प्रचार भी यह कह कर किया गया कि हम उस कांड का सच दिखाने जा रहे हैं। मगर यह सच वही था जिसे जांच आयोग और अदालत पहले ही कह चुके थे।

दिलचस्प बात यह रही कि सच्चाई दिखाने वाली इस फ़िल्म को टैक्स फ्री करवाने के लिए विक्रांत उन्हीं राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मिलने गए जहां भाजपा की सरकारें हैं। इन सरकारों ने उनकी बात मान भी ली। मगर लगता है कि विक्रांत मैसी के लिए यह कोई छोटा जोखिम नहीं था।

वे भी अब उन कलाकारों में शामिल हो गए हैं जो भविष्य में जब भी परदे पर दिखेंगे तो दर्शक उनके अभिनय के बूते नहीं बल्कि उनकी विचारधारा की पृष्ठभूमि में उनका मूल्यांकन करेंगे।

लेकिन यह इस तरह की कोई अंतिम फ़िल्म नहीं है। धार्मिक और विचारधारात्मक ध्रुवीकरण व कथित राष्ट्रवादी सोच की जितनी फ़िल्में अब बन रही हैं, पहले कभी नहीं बनीं।

भूलभुलैया 3 के तो कहने ही क्या…(pan india films)

एक और मज़ेदार बात यह कि 2024 में ‘भूलभुलैया 3’ के हिट होने से हॉरर कॉमेडी जॉनर की कामयाबी और पुख़्ता हो गई।

हालत यह है कि ‘स्त्री-2’ और ‘मुंज्या’ के चलने से उत्साहित दिनेश विजन की मैडॉक फ़िल्म्स ने अपने हॉरर कॉमेडी यूनीवर्स के तहत 2028 तक आने वाली फिल्मों की लिस्ट भी जारी कर दी है।

इनके नाम देखिए – ‘स्त्री-3’, ‘भेड़िया-2’, ‘महामुंज्या’, ‘थामा’, ‘शक्तिशालिनी’, ‘चामुंडा’, ‘पहला महायुद्ध’ और ‘दूसरा महायुद्ध।‘ विजन साहब इस यूनीवर्स के बाहर भी कई फ़िल्में बना रहे हैं, मगर इन पर उन्हें ज़्यादा भरोसा है।

दरअसल, मेनस्ट्रीम एक बहुत ही ग़लत चीज़ है। चाहे वह राजनीति में हो, धर्म में हो, मीडिया में हो या फ़िल्मों में हो। कहीं का भी हो, मेनस्ट्रीम हमें बरगलाता है।

वास्तविकता और कई बार तो अच्छाई से भी हमें दूर रखता है। ‘सिलसिला’ फ़िल्म में जावेद अख़्तर का लिखा एक गीत था – ‘ये कहां आ गए हम यूं ही साथ-साथ चलते।‘

हिंदी सिनेमा के आज के हालात भी आपको सोचने पर बाध्य कर देंगे कि पता नहीं हमारी फ़िल्में हमें कहां ले आई हैं। लेकिन एक बात है जो आपके हाथ में है। जो आप कर सकते हैं।

बीते साल यानी 2024 को भविष्य में कभी भी ‘स्त्री 2’ ‘सिंघम अगेन’, ‘भूल भुलैया 3’ या ‘मैदान’ या ‘योद्धा’ के लिए अथवा ‘पुष्पा 2 – द रूल’ और ‘कल्कि 2898 – एडी’ के लिए याद मत कीजिए।

उसे आप ‘लापता लेडीज़’, ‘चमकीला’, ‘ऑल इंडिया रैंक’, ‘गर्ल्स विल बी गर्ल्स’, ‘चंदू चैंपियन’ और ‘ऑल वी इमैजिन ऐज़ लाइट’ के लिए याद कीजिए। विरोध में इतना तो आप कर ही सकते हैं।

By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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