भोपाल। यद्यपि अभी अगले लोकसभा चुनाव में करीब 200 दिवस की देरी है, लेकिन अपनी राजनीतिक संभावनाओं से डरे-सहमे राजनेताओं ने अपने राजनीतिक दांव खेलना शुरू कर दिए हैं, इसका ताजा उदाहरण देश पर पिछले 9 सालों से राज कर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी और भाजपा है, जिन्होंने देश की आधी आबादी को पूरा हक देने की कोशिश की है, उन्हें ‘आरक्षण’ का झुनझुना पकड़ा कर। जबकि भाजपा सहित सभी दलों को यह पता है कि सिर्फ अगले 100 दिनों बाद मध्य प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव होना है और उनके परिणाम ही देश की जनता के ‘राजनीतिक मूड’ को स्पष्ट करेंगे, अगले महीने याने अक्टूबर के अंत या नवंबर के प्रारंभ में इन पांच राज्यों में विधानसभाओं के लिए वोट डाले जायेंगे।
सबसे बड़े आश्चर्य व खेद की बात यह है कि आजादी के बाद देश में हुए डेढ़ दर्जन से अधिक चुनावों के बाद भी देश के राजनीतिक दल और उसके नेता देश के आम मतदाताओं को पिछली शताब्दी के छठे दशक का ही अज्ञानी व भोलाभाला मतदाता मानते हैं, इसीलिए पिछले 75 सालों में चुनाव प्रचार पद्धति में कोई समयानुसार फेरबदल नहीं किए गए। हम अनेक मामलों में चीन, अमेरिका, जापान, रूस जैसे महादेशों से सीख लेते हैं, किंतु हमारी चुनावी प्रक्रिया के बारे में आज तक हमने इन महान देशों से कोई प्रेरणा ग्रहण नहीं की। आज भी उसी पुरानी चुनाव प्रचार पद्धति पर यहां के चुनाव जीते-हारे जाते हैं और दल व उनके नेता पूर्णता: अवसरवादी बनाकर आम मतदाता का दिल जीतने की कोशिश करते हैं।
यदि हम इसी संदर्भ में मौजूदा राजनीतिक हालातो पर चर्चा करें तो यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि सत्तारूढ़ दल भाजपा तथा नरेंद्र मोदी सहित उसके वरिष्ठ नेता देश के आम वोटर का मनोविज्ञान पढ़ नहीं पा रहे हैं, वे देश की आधी आबादी अर्थात महिला मतदाताओं को अभी भी नासमझ और अज्ञानी मानते हैं, तभी तो देश की महिला मतदाताओं के सामने ‘आरक्षण का झुनझुना’ बजाना शुरू किया है, हर आम मतदाता यह जानता है कि मोदी की इस महिला आरक्षण की घोषणा को मूर्त रूप तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक की इसके नियम, कायदे-कानून तय नहीं हो जाते, अर्थात चुनाव क्षेत्रों का चयन और महिला मतदाताओं की पूरी जानकारी हासिल नहीं कर ली जाती? अर्थात जनगणना और चुनाव क्षेत्र परिसीमन, इस प्रक्रिया को पूरी करने के मूल सिद्धांत है, कब परिसीमन कमेटी बनेगी, कब वह क्षेत्र का दौरा करने के साथ चुनाव क्षेत्र तय करेगी, कब जनगणना होगी, कब रिपोर्ट आएगी और कब उसे अमल में लाया जाएगा? यह कुछ भी फिलहाल तय नहीं है, फिर भी चौबीस के चुनाव के लिए ‘आरक्षण’ का झुनझुना बजाना शुरू कर दिया गया है, अरे, वास्तविकता तो यह है कि महिला आरक्षण के पूर्व की यह प्रक्रियाएं अगले लोकसभा चुनावों के 5 साल बाद अर्थात 2029 तक भी पूरी हो जाए तो हम खुश नसीब होंगे, इतनी लंबी प्रक्रिया के बावजूद महिलाएं महिला आरक्षण के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि “शेखचिल्ली के सपने” से अधिक क्या हो सकती है?
फिर जहां तक लोकसभा व राज्य विधानसभा चुनाव में महिलाओं के आरक्षण का सवाल है, यह कानूनी प्रक्रियाओं से भी जुड़ा है, इसके लिए सबसे पहले संसद के दोनों सदनों से प्रस्ताव पारित करवा कर, संविधान संशोधन की प्रक्रिया पूरी करनी होगी, यह महिला आरक्षण का मामला पिछले 60 सालों अर्थात 1960 से जारी है, तत्कालीन सरकारों ने प्रयास भी किये, किंतु यह संसद के दोनों सदनों से पारित नहीं हो पाया और यह प्रस्ताव आज तक लंबित हैं, अब मोदी जी ने फिर यह मसला उठाया है और इसका बिल संसद के दोनों सदनों से पारित भी हो जाएगा, पर यह लागू कब से होगा? इसी सवाल पर सबकी नज़रें हैं।
अब जो भी हो, कितनी ही कानूनी प्रक्रियाएं क्यों ना हो जब मोदी जी ने ठान ही लिया है तो वैसे मुहूर्त रूप तो देंगे ही, किंतु यहां अहम सवाल यही है कि क्या स्वयं मोदी जी अपने इस प्रस्ताव का राजनीतिक लाभ उठा पाएंगे या अन्य अच्छे कामों की तरह यह फैसला भी दूसरों के ही काम आएगा? साथ ही यह भी सवाल है कि क्या देश की महिला मतदाता मोदी जी के इस भावी राजनीतिक कदम से प्रभावित होकर मौजूदा माहौल में उनका साथ देगी?