पिछले कुछ वर्षों से ये देखने में आ रहा है कि जब भी विपक्ष सरकार को भ्रष्टाचार या अन्य किसी मुद्दे पर घेरने की कोशिश करता है तो संसद का वह सत्र शोर-शराबे के बीच बर्बाद हो जाता है। वैसे तो हर सरकार ही ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना चाहती, जहां उसकी छीछालेदर हो। वो उससे बचने के रास्ते खोजती है।
संसद का शीतकालीन सत्र पहले दिन से हंगामेदार बना हुआ है। विपक्ष ने सरकार को अडानी मुद्दे पर घेर रखा है। विपक्ष की माँग है कि सरकार अडानी मुद्दे पर बयान दे कर अपना रुख़ साफ़ करे। परंतु जैसे ही विपक्ष अडानी मुद्दे को उठाता है तो हल्ला मच जाने के कारण संसद के सत्र को स्थगित करना पड़ता है। इसके साथ ही राज्य सभा में भी सभापति के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है।
पिछले कुछ वर्षों से ये देखने में आ रहा है कि जब भी विपक्ष सरकार को भ्रष्टाचार या अन्य किसी मुद्दे पर घेरने की कोशिश करता है तो संसद का वह सत्र शोर-शराबे के बीच बर्बाद हो जाता है। वैसे तो हर सरकार ही ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना चाहती, जहां उसकी छीछालेदर हो। वो उससे बचने के रास्ते खोजती है। यदि सरकार का दमन साफ़ है और वो किसी भी तरह की जाँच के लिए तैयार है तो उसे ऐसे किसी मुद्दे का सामना करने से हिचकना नहीं चाहिए। पर ऐसा हो नहीं रहा।
सरकार की उदासीनता: भ्रष्टाचार रिपोर्ट पर अनदेखी
विपक्षी दलों का आरोप है कि जब भी सरकार के पास उनके सवालों का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं होता तो वे संसद को ठप कर देती है पर इसके लिए विपक्ष को ही ज़िम्मेदार ठहराती है। भ्रष्टाचार की बात करें तो दुनिया के देशों में भ्रष्टाचार के सूचकांक को जारी करने वाली संस्था ‘ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनल’ की एक रिपोर्ट में बताया है कि भारत का 28 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक का धन अवैध रूप से विदेशों में जमा है। ऐसी ठोस और विश्वसनीय रिपोर्ट के बाद किसी भी सरकार को हरकत में आना चाहिए था और इस एजेंसी व ऐसी अन्य एजेंसियों की मदद से इस रिपोर्ट के आधार बिन्दुओं की जाँच करनी चाहिए थी। जिससे भ्रष्टाचार की जड़ पर कुठाराघात किया जा सकता।
पर सरकार किसी भी दल की क्यों न रही हो जब-जब उससे इस बाबत पूछा गया कि उसने इस रिपोर्ट को लेकर तथ्य जानने की क्या कोशिश की, तो सरकार का उत्तर था, चूंकि ‘ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनल’ नाम की संस्था भारत सरकार का अंग नहीं है, इसलिए उसकी रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया जा सकता।
यहाँ 2011 की एक घटना को याद करना उचित होगा। जब सत्तापक्ष को भ्रष्टाचार के मामले में जोड़-शोर से घेरने वाली भाजपा को ही मीडिया ने घेर लिया था। मीडिया का सवाल था कि सत्तापक्ष के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की माँग करने वाली भाजपा अपनी कर्नाटक सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री येदुरूप्पा के घोटालों के विषय में चुप क्यों है? ऐसे में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी ने एक बड़ा ही हास्यास्पद बयान दिया था। उन्होंने कहा कि “येदुरूप्पा ने जो कुछ किया, वह अनैतिक है पर अवैध नहीं।” अब इस बयान को पढ़कर कौन ऐसा होगा जो अपना सिर न धुने। यानि कि क्या भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व सार्वजनिक जीवन में अनैतिक आचरण को स्वीकार्य मान रहा था?
यही वजह है कि उस समय की भाजपा की कथनी और करनी में भ्रष्टाचार से लड़ने और उसे समाप्त करने की कोई मंशा दिखाई नहीं दी। सारा शोर राजनैतिक लाभ उठाने को मचाया गया। जनता को सन्देश ये दिया गया कि विपक्ष भ्रष्टाचार के विरूद्ध है, जबकि हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ भाजपा नेतृत्व भ्रष्टाचार से लड़ना ही नहीं चाहता था। इसलिए उस समय का विपक्ष जे.पी.सी. की माँग पर अड़ा हुआ था। जिसका कोई हल निकलने वाला नहीं था और उस समय का गतिरोध यूं ही चलता रहा।
चुनाव आयोग और ईवीएम विवाद: विपक्ष की बढ़ती चिंता
न सिर्फ़ भ्रष्टाचार व अन्य मामलों को लेकर सरकार पर, बल्कि चुनाव आयोग पर भी चुनावों की प्रक्रिया में गड़बड़ी के आरोप लग रहे हैं। चुनावों के बाद सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों न बने। चुनावों का आयोजन करने वाली सर्वोच्च संविधानिक संस्था केंद्रीय चुनाव आयोग हर चुनावों को पारदर्शिता से कराने चाहिये। यह बात बीते कई महीनों से सभी विपक्षी दल और अन्य जागरूक नागरिक कर रहे हैं। चुनाव आयोग की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हर दल को पूरा मौक़ा दिया जाए और निर्णय देश की जनता के हाथों में छोड़ दिया जाए।
बीते कुछ समय से चुनाव आयोग पर, पहले ईवीएम को लेकर और फिर वीवीपैट को लेकर और चुनावी आँकड़ों को लेकर काफ़ी विवाद चल रहा है। हर विपक्षी दल ने एक सुर में यह आवाज़ लगाई कि देश से ईवीएम को हटा कर बैलट पेपर पर ही चुनाव कराया जाए। परंतु देश की शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश देते हुए अधिक सावधानी बरतने को कहा और ईवीएम को जारी रखा।
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‘इंडिया’ गठबंधन अगर सोचता है कि वो देश में अडानी मुद्दे और ईवीएम के मुद्दों पर ‘बोफोर्स’ जैसा माहौल बना लेगा, तो यह सम्भव नहीं लगता। क्योंकि बोफोर्स के समय नेतृत्व देने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसी साफ छवि वाला नेता मौजूद था और आज के राजनेताओं में ऐसा एक भी चेहरा नहीं जिसे देश की जनता बेदाग मानती हो। जब नेतृत्व में ही जनता का विश्वास नहीं तो ऐसे मुद्दों पर जन आन्दोलन कैसे बनेगा?
हाँ, अगर विपक्ष एकजुट होकर किसी साफ़ छवि वाले नेता को अपना नेतृत्व सौंपती है, तब सम्भावना अवश्य है कि जनता का कुछ विश्वास हासिल किया जा सके। पर इसमें भी पेच है। ऐसे नेतृत्व को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकारने में सभी विपक्षी दल इसके लिए मानसिक रूप से तैयार हों। परंतु देश की संसद में गतिरोध पैदा करके सिवाय करदाता के पैसे की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं हो रहा। इसलिए सत्तापक्ष और विपक्ष को इस गतिरोध को जल्द से जल्द ख़त्म कर देना चाहिए।