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यूरोप में क्यों धुर दक्षिणपंथ लोकप्रिय हो रहा?

अमेरिका और यूरोप का अनुभव यह है कि जहां और जब कभी धुर दक्षिणपंथी ताकतों के हाथ में सत्ता आई है, तब भी विदेश नीति में लगभग कोई फर्क नहीं पड़ा है। यह दीगर बात है कि सत्ता से बाहर रहने पर ये ताकतें विदेश नीति से उत्पन्न तत्कालीन असंतोष का फायदा उठाने के लिए भ्रामक संकेत देती हैं। तो यह स्पष्ट है कि धुर दक्षिणपंथ ना तो कोई नई परिघटना है और ना ही उससे संबंधित देश की मूलभूत विदेश एवं आर्थिक नीतियों पर कोई फर्क पड़ता है।

वैसे तो यूरोप में धुर-दक्षिणपंथ (Far-Right) के उभार का शोर कुछ पुराना हो चुका है, मगर 6-9 जून को हुए यूरोपीय संसद के चुनाव के बाद से वहां के लिबरल खेमे इन पार्टियों की बढ़ी ताकत से हिल गए हैं। चूंकि यूरोपीय यूनियन में जर्मनी और फ्रांस सबसे आर्थिक रूप से सबसे मजबूत और आबादी के लिहाज से चार सबसे बड़े देशों में शामिल हैं और उन दोनों में ही धुर दक्षिणपंथ को बड़ी कामयाबियां मिलीं, इसलिए यूरोपीय लिबरल खेमे का भयाक्रांत हो जाना स्वाभाविक भी है।

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों इन नतीजों से इतने हिले कि उन्होंने नतीजों वाली रात ही संसद भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने का एलान कर दिया। अब 30 जून और 7 जुलाई को ये चुनाव होंगे। चुनाव-पूर्व जनमत सर्वेक्षणों से नहीं लगता कि मैक्रों का ये दांव कारगर होगा। मैक्रों का दांव यह है कि धुर-दक्षिणपंथ के खतरे से आशंकित तमाम दल और मतदाता उनकी मध्यमार्गी पार्टी के पक्ष में गोलबंद हो जाएंगे।

लेकिन चुनाव की घोषणा के बाद एक अप्रत्याशित घटना यह हुई है कि फ्रांस की सभी वामपंथी पार्टियों ने नेशनल पॉपुलर फ्रंट नाम से साझा मोर्चा बना लिया है। (France’s New Popular Front Has a Plan to Govern (jacobin।com)) कुछ अनुमानों में बताया गया है कि अगले चुनाव में मुख्य मुकाबला मेरी ली पेन की धुर-दक्षिणपंथी नेशनल रैली पार्टी और पॉपुलर फ्रंट के बीच हो सकता है। (The New Popular Front Can Win in France (jacobin।com)) नेशनल रैली को यूरोपीय चुनाव में 31।5 प्रतिशत वोट मिले, जबकि दूसरे नंबर पर रही मैक्रों की पार्टी असेंबल 16 फीसदी से भी कम वोट हासिल कर सकी।

उधर जर्मनी में नव-नाजी बताई जाने वाली एएफडी (ऑल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैंड) पार्टी को नेशनल रैली जैसी कामयाबी तो नहीं मिली, मगर कंजरवेटिव क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स (सीडीयू) के नेतृत्व वाले गठबंधन के बाद वह दूसरे नंबर पर आई। जबकि चांसलर ओलोफ शोल्ज की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसडीपी) तीसरे नंबर पर चली गई। नतीजा भौगोलिक आधार पर बंटा हुआ आया। पूर्वी जर्मनी में एएफडी का जलवा रहा, जबकि पश्चिम में परंपरागत दलों को सफलता मिली। इसी वर्ष के उत्तरार्द्ध में पूर्वी जर्मनी स्थित तीन राज्यों में प्रांतीय चुनाव होने वाले हैं। संभावना है कि वहां एएफडी पहली बार सत्ता में आएगी।

यूरोप के दो और बड़े देशों में से एक इटली में आरंभिक राजनीतिक जीवन में खुद को उत्तर-फासीवादी (post-fascist) कहने वाली जियोर्जिया मेलोनी पहले ही प्रधानमंत्री बन चुकी हैं। (Italy May Get a Leader With Post-Fascist Roots – The New York Times (nytimes।com))।उनकी ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी वहां सत्ताधारी दक्षिणपंथी गठबंधन का नेतृत्व कर रही है। आबादी के लिहाज से एक अन्य बड़े देश स्पेन में हालांकि धुर दक्षिणपंथी कही जाने वाली ताकतें अभी सत्ता के करीब तो नहीं हैं, मगर इस धारा की प्रमुख पार्टी वॉक्स कई नगरीय चुनावों में भारी सफलता हासिल कर चुकी है। यूरोपीय संसद के चुनाव में भी उसका प्रदर्शन काबिल-ए-गौर रहा।

इनके अलावा 27 सदस्यीय यूरोपियन यूनियन (ईयू) से जुड़े कई अन्य देशों में भी धुर दक्षिणपंथी पार्टियां सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बन चुकी हैं। नीदरलैंड्स में पिछले साल हुए आम चुनाव में गर्ट विल्डर्स के दल पार्टी फॉर फ्रीडम को सबसे ज्यादा वोट मिले थे। हंगरी में धुर दक्षिणपंथी माने जाने वाले विक्टर ऑर्बान लंबे समय से प्रधानमंत्री हैं। बहरहाल, अब आर्थिक रूप से ईयू का केंद्र समझे जाने वाले जर्मनी और फ्रांस में ऐसी पार्टियां सत्ता के दरवाजे पर दस्तक देती लग रही हैं।

मगर बुनियादी सवाल है कि ये धुर दक्षिणपंथकौन हैं और इनका मजबूत होना क्यों एक यूरोपीय परिघटना बन गई है? क्या इनसे सचमुच यूरोपीय शासक वर्ग के लिए सचमुच कोई खतरा उत्पन्न हो सकता है? या इस परिघटना से सिर्फ यह होगा कि शासक वर्ग लिबरल मुखौटे को त्याग कर अधिक उग्र और कुछ मामलों में अमानवीय-से दिखने वाले मुखौटे को पहनने के लिए मजबूर हो जाएगा?

तो सबसे पहले इस प्रश्न की पड़ताल करते हैं कि धुर-दक्षिणपंथी ताकतें हैं कौन?

इसे समझने के लिए इनके उभार की पृष्ठभूमि पर ध्यान देना चाहिए। गौरतलब है कि बीसवीं सदी में राजनीतिक व्यवस्थाओं की वैधता (legitimacy) का पैमाना सोवियत क्रांति ने तय किया था। पैमाना यह था कि किसी व्यवस्था की वैधता का निर्णायक तत्व जन-कल्याण की उसकी क्षमता है। इस पैमाने से पूंजीवादी देशों पर भी दबाव बना। नतीजतन, पूंजीवाद के उदय के साथ यूरोप और बाद में अमेरिका में अस्तित्व में आई राज्य-व्यवस्थाओं को पहली बार welfarism को गले लगाना पड़ा। नतीजतन, दूसरे विश्व युद्ध के बाद विकसित पूंजीवादी देशों में कल्याणकारी राज्य की धारणा प्रचलित हुई। इस तत्व के साथ इन व्यवस्थाओं ने लोकतंत्र, खुलेपन और मानव अधिकारों की रक्षा के नाम पर अपनी विशिष्ट पहचान एवं वैधता बनाने की कोशिश की।

ऐसी राज्य व्यवस्थाओं में मोटे तौर पर दो तरह के राजनीतिक दल मुख्यधारा राजनीति का हिस्सा बनेः सेंटर राइट (मध्य से दक्षिण झुकाव वाली पार्टियां) और सेंटर लेफ्ट (मध्य से वामपंथी झुकाव वाली पार्टियां)। सेंटर राइट पार्टियों का प्रमुख एजेंडा पूंजीपति वर्ग के लिए टैक्स छूट और धनी वर्ग के हितों का यथासंभव संरक्षण रहा। जनता के बीच इस एजेंडे को स्वीकार्य बनाने के लिए कई देशों में उन्होंने कंजरवेटिव चेहरा भी अख्तियार किया। इसका मतलब था धार्मिक मान्यताओं एवं पारंपरिक संस्कृति का संरक्षण की वकालत करना।

लेफ्ट राइट पार्टियों ने खुद को श्रमिक वर्ग के हितैषी के रूप में पेश किया और साथ ही सामाजिक मामलों में उदार मूल्यों की वकालत की। इसके तहत महिला अधिकारों, अल्पसंख्यक अधिकारों और आगे चल कर सेक्सुअल माइनॉरिटीज (एलजीबीटीक्यू) के अधिकारों के प्रोत्साहन को उन्होंने अपने एजेंडे में शामिल किया। बहरहाल, गौरतलब यह है कि राज्य की कल्याणकारी भूमिका बनी रहे, इस समझ को सेंटर राइट ने भी तब चुनौती नहीं दी थी।

यह सारे परिदृश्य में बदलाव की शुरुआत 1980 के दशक में हुई, जब अमेरिका में रिपब्लिकन राष्ट्रपति रोनॉल्ड रेगन और ब्रिटेन में कंजरवेटिव प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने नव-उदारवादी नीतियों पर आक्रामक अंदाज में अमल शुरू कर दिया। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद यह प्रक्रिया को पूर्णतः निर्बाध हो गई। पश्चिमी देशों ने इन्हें खुद अपनाने के साथ-साथ आईएमएफ और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के जरिए सारी दुनिया पर भी थोप दिया। इन नीतियों के तहत अर्थव्यवस्था के प्रबंधन एवं नियोजन में राज्य की भूमिका पूरी तरह बदल गई। साथ ही यह सूत्रवाक्य प्रचारित किया गया- और यह मान्य भी हो गया कि आर्थिक नीतियों को राजनीति से अलग रखा जाए।

जब आर्थिक नीतियां और अर्थव्यवस्था का स्वरूप राजनीतिक बहस और प्रतिस्पर्धा के दायरे से बाहर कर दिए गए, तो फिर लेफ्ट, सेंटर और राइट में कोई मूलभूत अंतर नहीं बचा। तब लेफ्ट और राइट के सामने खुद को सांस्कृतिक-सामाजिक नीतियों पर अलग दिखाने की मजबूरी बनी। इस नए दौर में लेफ्ट का मतलब हो गया- महिला स्वतंत्रता, अल्पसंख्यक एवं एलजीबीटीक्यू अधिकारों, आव्रजकों के प्रति उदार रुख, आदि की वकालत और लैंगिक पहचान जैसे मुद्दों पर बहस छेड़ना। राइट का अर्थ हो गया इन सभी मुद्दों का विरोध, बहुसंख्यकों की धार्मिक (यानी ईसाई) परंपराओं का समर्थन और राष्ट्रवादी नीतियों में अधिक से अधिक उग्र रुख अपनाना।

मतलब यह कि सत्ता में इनमें से कोई भी पार्टी आए, आर्थिक नीतियों पर फर्क पड़ने की संभावना न्यूनतम होती गई। यह दौर निर्बाध रूप से अमेरिका में 2008-09 की महामंदी आने तक चला। इसी मंदी के सिलसिले के रूप में 2010 से यूरो ज़ोन में ऋण संकट खड़ा हुआ। मंदी और इस संकट से उबरने के समाधान के तौर पर नव-उदारवादी संस्थाओं ने किफायत (austerity) की नीतियों को थोपना शुरू किया। इसके परिणामस्वरूप जन कल्याण के बजट में भारी कटौती शुरू हुई और धीरे-धीरे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा अतीत की बात बनती चली गई। इससे उत्पन्न जन असंतोष का इज़हार सड़कों पर होने लगा।

मंदी के तुरंत बाद अमेरिका में ऑक्यूपाई वॉलस्ट्रीट मूवमेंट उभरा, जो धीरे-धीरे यूरोप में भी ऑक्यूपाई मूवमेंट के रूप में फैल गया। उधर अमेरिका में बराक ओबामा के पहला ब्लैक राष्ट्रपति की श्वेत समुदाय में हुई तीखी प्रतिक्रिया का परिणाम टी पार्टी (Tea Party) मूवमेंट के रूप में सामने आया। इन दोनों परिघटनाओं से तीव्र सामाजिक ध्रुवीकरण की जड़ें पड़ीं। यह पूरी कहानी अलग-अलग रूप में यूरोपीय देशों में भी दोहराई गई है।

आम समझ है कि ऑक्यूपाई मूवमेंट का राजनीतिक परिणाम अमेरिका में बर्नी सैंडर्स परिघटना के रूप में सामने आया, जबकि टी पार्टी आंदोलन की कोख से डॉनल्ड ट्रंप की परिघटना जन्मी। उधर यूरोप में ऑक्यूपाई की धारा में सिरिजा (ग्रीस), यूनिदास पोदेमॉस (स्पेन), जेरमी कॉर्बिन (ब्रिटेन), डाई लिंके (जर्मनी) आदि जैसी नव-वामपंथी शक्तियां उभरीं।

यूरोप में आज जो धुर दक्षिणपंथताकतें हैं, असल में इसी नव-वामपंथी धारा की प्रतिक्रिया में उभरी हैं। बेशक, नेशनल रैली का इतिहास पुराना है, लेकिन बाकी सभी देशों में उभरीं धुर दक्षिणपंथपार्टियां नई हैं। दरअसल, यह कहने का आधार है कि शासक वर्ग ने नव-उदारवाद के तहत बनाई और थोपी गई आर्थिक आम सहमति को चुनौती दे रहीं नव-वामपंथी ताकतों का मुकाबला करने के लिए इन ताकतों को राजनीतिक अखाड़े में उतारा। (How populism emerged from the shadow of neoliberalism in Central and Eastern Europe. EUROPP (lse.ac.uk)) यह कोई संयोग नहीं है कि हालिया यूरोपीय चुनावों में कॉरपोरेट्स ने जो चंदा दिया, उसका एक चौथाई हिस्सा धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों के खाते में गया। (Quarter of political donations in EU go to extremist and लोकप्रिय parties, data reveals. Europe. The Guardian)

और यह कोई नई बात नहीं है। इतिहास में जाएं, तो इस बात के पर्याप्त सबूत मिलेंगे कि कैसे कम्युनिस्ट चुनौती का मुकाबला करने के लिए हिटलर और नाजीवाद को जर्मनी के तत्कालीन बड़े कारोबारियों ने वित्तीय सहायता दी थी। (How Big Business Bailed Out the Nazis. Brennan Center for Justice)।मुसोलिनी (Daniel Guerin: Fascism and Big Business (1938) (marxists।org)) या किसी अन्य फासीवादी/नाजीवादी घटना के पीछे भी ऐसी मिलीभगत रही है, जिसके पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं।

इस नजरिए से देखें, तो उदारवाद और फासीवाद/नाजीवाद/ धुर-दक्षिणपंथ एक ही सिक्के के दो पहलू नजर आएंगे। तजुर्बा यह है कि पूंजीवादी शासक वर्ग राजसत्ता को अपने शिकंजे में रखने के लिए इन दोनों मुखौटों को अपने पास रखता है और जरूरत के मुताबिक इनका इस्तेमाल करता है। 2010 के बाद बनी स्थितियों में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के साथ-साथ सांस्कृतिक उदारवाद को अपनाए रखना जोखिम भरा और महंगा हो गया। तो धीरे-धीरे धुर दक्षिणपंथी ताकतें उभरने और मजबूत हो लगीं। अब चुनावी लोकतंत्र वाले देशों में इन्हें आगे किया गया है।

कई देशों में यह देखने में आया है कि परंपरागत दक्षिणपंथी पार्टी ही नए दौर में धुर-दक्षिणपंथ का प्रतिनिधि चेहरा बन गई। ब्रेग्जिट के बाद ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी और डॉनल्ड ट्रंप के दौर में रिपब्लिकन पार्टी इस परिवर्तन का श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

नए दौर में धुर दक्षिणपंथ

तो नए दौर में धुर दक्षिणपंथपार्टियों की पहचान क्या है? आज के दौर में धुर दक्षिणपंथके साथ-साथ एक अन्य जो शब्द प्रचलित किया गया है, वह पोपुलिस्ट लोकप्रिय(पोपुलिस्ट)है। इन दोनों शब्दों का कई बार समानार्थी रूप में उपयोग किया जाता है, हालांकि नए उभरे वामपंथी नेताओं को भी कई संदर्भों में लोकप्रियबताया जाता है। इस शब्द का अर्थ है वे नेता या दल, जो लोक-लुभावन बातें करते हैं। लेफ्ट और राइट लोकप्रियमें समानता यह देखी जाती है कि दोनों नव-उदारवादी आर्थिक आम सहमति को चुनौती देते दिखते हैं। मगर धुर-दक्षिणपंथी उसके साथ-साथ आव्रजन और अल्पसंख्यक विरोध, सांस्कृतिक उदारता की सोच पर हमला, इस्लामोफोबिया का प्रचार आदि जैसे तेवर भी अपनाते हैं। यूरोप में इनमें से कई दल यूरोपियन यूनियन से अपने देश को बाहर निकालने का इरादा भी जताते हैं।

लेकिन असल में जब सत्ता हाथ में आई है, तो अक्सर देखा गया है कि आर्थिक ढांचे में धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां कोई बदलाव नहीं करतीं। बल्कि वे नव-उदारवादी आम सहमति से संबंधित नीतियों पर अधिक आक्रामक अंदाज में अमल करती हैं। इसकी बेहतरीन मिसाल इटली की प्रधानमंत्री जियोर्जिया मिलोनी हैं। आर्थिक और ईयू से संबंध के मुद्दों पर फ्रांस की नेशनल रैली की नेता मेरी ली पेन के रुख में भी हाल में स्पष्ट बदलाव देखने को मिला है।

अगर इस रूप में इस घटनाक्रम पर ध्यान दें, तो इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होती कि वर्तमान धुर-दक्षिणपंथी दौर असल में 1990 के बाद से आगे बढ़ी आर्थिक-राजनीतिक परिघटना का स्वाभाविक परिणाम है। अगर पश्चिमी शासक वर्ग के नजरिए से मुक्त होकर सोचें, तो नज़र आएगा कि धुर-दक्षिणपंथी ताकतें दरअसल, वहां की राजसत्ता के मूलभूत चरित्र की ही नुमाइंदगी करती हैं। (Domenico Losurdo interviewed by Opera Magazine (redsails।org))

यह भी गौरतलब है कि यूरोप में उभरीं सभी कथित धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों को एक कोष्ठक में रखना सही नहीं है। उनके बीच गंभीर आपसी मतभेद हैं। खुद एएफडी के नेता मेक्सिमिलन क्राह ने कहा है- ‘समस्या यह है कि यूरोपीय दक्षिणपंथ बंटा हुआ है। हमें दक्षिणपंथ की तरफ आगे बढ़ना है। यूरोपीय संसद में अकेला सबसे मजबूत दक्षिणपंथी समूह फ्रांस की नेशनल रैली है। जहां तक आव्रजन, सांस्कृतिक युद्ध, “समाजवादी” नौकरशाही को ध्वस्त करने, जलवायु परिवर्तन संबंधी बकवास आदि की बात है, तो हम उनसे सहमत हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल विदेश नीति का है। दुर्भाग्य से इस प्रश्न पर यूरोपीय दक्षिणपंथ पूरी तरह विभाजित है।’ (AfD’s Maximilian Krah on Europe’s political quake – Asia Times)

पूंजीवादी व्यवस्थाओं में विदेश नीति असल में शासक वर्ग के हित-साधन का माध्यम होती है। इसलिए अक्सर इन बिंदु पर चुनावी लोकतंत्र वाले देशों में अक्सर विभिन्न पार्टियों के बीच आम सहमति देखी जाती है। अमेरिका और यूरोप का अनुभव यह है कि जहां और जब कभी धुर दक्षिणपंथी ताकतों के हाथ में सत्ता आई है, तब भी विदेश नीति में लगभग कोई फर्क नहीं पड़ा है। यह दीगर बात है कि सत्ता से बाहर रहने पर ये ताकतें विदेश नीति से उत्पन्न तत्कालीन असंतोष का फायदा उठाने के लिए भ्रामक संकेत देती हैं।

तो यह स्पष्ट है कि धुर दक्षिणपंथ ना तो कोई नई परिघटना है और ना ही उससे संबंधित देश की मूलभूत विदेश एवं आर्थिक नीतियों पर कोई फर्क पड़ता है। फर्क सिर्फ सामाजिक और सांस्कृतिक नीतियों पर पड़ता है, क्योंकि मतदाताओं को गोलबंद करने के लिए इन्हीं मुद्दों को राजनीतिक पार्टियां अपना प्रमुख औजार बनाती हैं। इस समझ के साथ देखें, तो यूरोप में धुर दक्षिणपंथ की सफलता से वहां के उदारवादी प्रतिष्ठान और उनमें निहित स्वार्थ रखने वाले तत्वों के अलावा किसी और परेशानी नहीं होगी। नव-उदारवादी दौर में आम मेहनतकश आवाम के हितों को सत्ता तंत्र पहले ही अपने सोच-विचार के दायरे से बाहर कर चुका है। हकीकत यह है कि अगर ऐसा नहीं किया गया होता, तो धुर-दक्षिणपंथ का दौर आता ही नहीं।

इसलिए कम-से-कम विकासशील देशों के बाशिंदों के लिए ताजा यूरोपीय परिघटना से परेशान होने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। उनके लिए इससे कोई नई चुनौती खड़ी नहीं होगी, यह बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है।

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By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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