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क्लासिक फ़िल्मों के शीर्षक कौन बचाएगा?

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अब सवाल है कि क्या ‘शेखर एक जीवनी’, ‘गुनाहों का देवता’, ‘राग दरबारी’, ‘मैला आंचल’, ‘तमस’, ‘चित्रलेखा’, ‘आधा गांव’, ‘काशी का अस्सी’, ‘गोदान’, ‘झूठा सच’, ‘अंधेरे बंद कमरे’ आदि को फिर से लिखा जा सकता है? मगर फ़िल्मों के मामले में अजीब स्थिति है। दस साल बाद कोई भी उसी शीर्षक से फिर से फ़िल्म बना सकता है।… अच्छे-अच्छे अभिनेता और फ़िल्मकार इस अनैतिकता की चपेट में आ चुके हैं। कभी वे खुद इस चलन का शिकार बनते हैं तो कभी दूसरों को बनाते हैं।

परदे से उलझती ज़िंदगी

मुश्किल से तीन हफ़्ते पहले, यानी नवंबर की शुरूआत में, लंदन के ट्रिनिटी कॉलेज के म्यूज़िक सेक्शन के पाठ्यक्रम में हिंदी फ़िल्मों के दो गीतों को शामिल किए जाने को लेकर फ़िल्म संगीत से जुड़े विभिन्न वाट्सऐप ग्रुप्स में बधाइयां दी गईं। इनमें एक गीत है ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ का ‘अजीब दास्तां है ये’ जिसे शैलेंद्र ने लिखा और शंकर-जयकिशन ने संगीतबद्ध किया था। दूसरा है मदन मोहन के संगीत में राजा मेहंदी अली खान का लिखा ‘लग जा गले’ जो ‘वो कौन थी’ फ़िल्म में था। इन दोनों गीतों को लता मंगेशकर ने गाया था, हालांकि हम जानते हैं कि हिंदी फ़िल्मों में लता और दूसरे गायकों के गाए सैकड़ों गीत हैं जो संगीत के किन्हीं भी पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाने की ताब रखते हैं। वे अमूल्य गीत जो कभी किसी बाज़ार में किसी दुकान के रेडियो से, किसी शादी में बजते लाउडस्पीकर से या किसी बस, ट्रेन या मैदान या पार्क में, किसी के ट्रांजिस्टर से, दूर से भी सुनाई दे जाते थे तो लोगों को ठिठका देते थे। कोई माने या नहीं, फ़िल्म संगीत ने जीवन के संघर्षों में इस देश के करोड़ों लोगों को संबल दिया है। अपनी दिशा और अपनी यात्रा गढ़ने में वे उनके साथ-साथ चले हैं।

ऐसी ही थाती हमारी वे फ़िल्में हैं जिन्हें क्लासिक या कल्ट फ़िल्में कहा जाता है। ऐसी दर्जनों फ़िल्में हैं जो फ़िल्मकारिता और अभिनय सिखाने वाले संस्थानों में पढ़ाई जाती हैं और जो विधा अलग होते हुए भी अपने कथ्य, रचना-कौशल और प्रस्तुति में हमारे बड़े साहित्यिक उपन्यासों से मुकाबला करती हैं। उनका असर भी लोगों पर किसी बड़े उपन्यास जैसा, बल्कि उनसे ज़्यादा रहा है। अगर तीस, चालीस या पचास साल पहले पढ़ा कोई उपन्यास आप आज तक भूले नहीं हैं तो उन क्लासिक फ़िल्मों को भी कहां भुला पाए हैं। उनकी यादें भी वैसी ही अमिट हैं। किसी दोस्त या रिश्तेदार या किसी लाइब्रेरी से मिले वे उपन्यास पढ़ना आपके लिए जितना अहम साबित हुआ, उतनी ही ज़रूरी वे फ़िल्में भी रहीं। किसी तरह समय और एकांत निकाल कर पढ़े गए वे उपन्यास और बाद में तेजी से ख़त्म हुए सिंगल स्क्रीन थिएटरों में हज़ार-बारह सौ की भीड़ के बीच देखी गई वे फ़िल्में – दोनों को ही आप खुद से अलग नहीं कर सकते। आपकी समझ तैयार करने में दोनों का हिस्सा है। इसीलिए उनमें से कोई फ़िल्म दोबारा देखना बिलकुल ऐसा है जैसे उन दिनों पढ़े किसी उपन्यास को फिर से पढ़ना।

अब सवाल है कि क्या ‘शेखर एक जीवनी’, ‘गुनाहों का देवता’, ‘राग दरबारी’, ‘मैला आंचल’, ‘तमस’, ‘चित्रलेखा’, ‘आधा गांव’, ‘काशी का अस्सी’, ‘गोदान’, ‘झूठा सच’, ‘अंधेरे बंद कमरे’ आदि को फिर से लिखा जा सकता है? क्या कोई नया लेखक किसी क्लासिक उपन्यास को नए सिरे से और अपनी तरह से लिख सकता है? यानी चाहे तो उसी कहानी को अपने नज़रिये से लिखे या चाहे तो शीर्षक वही रखते हुए अपनी सुविधानुसार कहानी बदल दे। क्या ऐसा संभव है? जहां कानूनी अथवा कॉपीराइट की रोक नहीं रही है, मसलन प्रेमचंद की रचनाओं के मामले में, वहां भी साहित्यिक और लेखकीय नैतिकता के मद्देनज़र इससे ज़्यादा आपत्तिजनक और कुछ नहीं हो सकता कि कोई अन्य लेखक अपने हिसाब से ‘गबन’ या ‘निर्मला’ लिख डाले।

मगर फ़िल्मों के मामले में अजीब स्थिति है। दस साल बाद कोई भी उसी शीर्षक से फिर से फ़िल्म बना सकता है। किसी जानी-मानी फ़िल्म के शीर्षक पर जब कोई अन्य फ़िल्मकार कोई नई कहानी फ़िल्माता है तो उसका मकसद केवल उस शीर्षक का लाभ उठाना है। अपनी ही किसी हिट फ़िल्म के नाम में एक-दो-तीन जोड़ कर उसके सीक्वल बनाते चले जाना अलग बात है। लेकिन किसी बड़ी फ़िल्म का नाम उधार लेकर कोई और कहानी कहना उस बड़ी फ़िल्म को धता बताने से कम नहीं है। नई फ़िल्म घटिया बनी तो उस शीर्षक को चोट पहुंचती है। और अगर वह चल गई तो पिछली पूरी फ़िल्म का नुक्सान होता है। दर्शक भ्रमित होते हैं, सो अलग।

अच्छे-अच्छे अभिनेता और फ़िल्मकार इस अनैतिकता की चपेट में आ चुके हैं। कभी वे खुद इस चलन का शिकार बनते हैं तो कभी दूसरों को बनाते हैं। जब 1995 में कुक्कू कोहली ने अजय देवगन और तब्बू को लेकर ‘हक़ीक़त’ नाम की फ़िल्म बनाई तो सफल होने के बावजूद वह चेतन आनंद की 1964 की ‘हक़ीक़त’ का कुछ नहीं बिगाड़ पाई। विपुल शाह ने 2005 में अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा के साथ ‘वक़्त’ बनाई तो उससे भी बीआर चोपड़ा की 1965 वाली ‘वक़्त’ को कोई नुक्सान नहीं हुआ। मिलन लूथरिया ने 2004 में ‘दीवार’ नाम की एक फ़िल्म बनाई। दिलचस्प बात यह है कि संजय दत्त और अक्षय खन्ना के साथ इसमें अमिताभ बच्चन भी थे। यानी यह अमिताभ की दूसरी ‘दीवार’ थी। इसने कमाई भी अच्छी की, मगर इससे उस ‘दीवार’ को कोई चोट नहीं पहुंची जिसे यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था और जिसका अमिताभ को अमिताभ बनाने में भारी योगदान था। दूसरी तरफ़, दिलीप कुमार और राजकुमार के साथ सुभाष घई ने 1991 में ‘सौदागर’ बनाई जिसने राजश्री पिक्चर्स की 1973 की उस खूबसूरत ‘सौदागर’ को कहीं पीछे धकेल दिया जिसमें अमिताभ के साथ नूतन और पद्मा खन्ना ने काम किया था। ध्यान देने की बात यह है कि इन सभी पुरानी फ़िल्मों के शीर्षक उनकी कहानी पर सटीक बैठते थे, जबकि बाद वाली फ़िल्मों में वे ज़बरन लागू किए गए लगते हैं।

असल में यह बिजनेस का मामला है जो इस तरह की मनमानी करता है। इसकी इंतहा देखिए कि सलमान खान ने सलीम-जावेद पर बनी डॉक्यूमेंट्री में फराह खान से बातचीत में ‘शोले’ और ‘दीवार’ के रीमेक बनाने की ख़्वाहिश जताई। बल्कि उन्होंने यह कहा कि वे जय, वीरू और गब्बर तीनों की यानी तिहरी भूमिकाएं करना चाहेंगे। यह कोई गंभीर बातचीत नहीं थी, लेकिन सलमान के जवाब से एक बात साफ़ थी कि उनकी इस विचित्र ख़्वाहिश से ‘शोले’ का कचूमर निकलता है तो निकलता रहे।

अमिताभ बच्चन ने कई ऐसी फ़िल्मों में काम किया है जो पुरानी और कई बार तो उनकी ही मशहूर फ़िल्मों के शीर्षक लेकर बनी थीं। लेकिन जब दक्षिण के एक बड़े निर्माता ने उनके सामने नई ‘मुगले आज़म’ बनाने की पेशकश की तो वे हड़बड़ा गए। वह निर्माता उनके पूरे परिवार को लेकर यह रीमेक बनाना चाहता था। मतलब, अमिताभ उसमें अकबर बनते, जया बच्चन जोधाबाई, अभिषेक बच्चन सलीम और ऐश्वर्या राय अनारकली बनतीं। उन्हीं दिनों मेहुल कुमार ने इस निर्माता की एक फ़िल्म में निर्देशन दिया था और वे उससे मिलने आने वाले थे। अमिताभ ने उस निर्माता से यह कह कर पीछा छुड़ाया कि एक बार मेहुल से पूछ लीजिए, वह कहेंगे तो इस पर सोचते हैं। और जब उसने मेहुल से पूछा तो मेहुल ने कहा कि यह आइडिया दिमाग से निकाल दो, ‘मुगले आज़म’ दोबारा नहीं बनाई जा सकती। उन्होंने कहा कि बच्चन साहब ने आपको इसीलिए कोई जवाब नहीं दिया।

जैसा कि फ़िल्मकार राजकुमार हीरानी कहते हैं, पुरानी फ़िल्मों को बिजनेस के लिहाज़ से मत देखिए। उन्होंने कहा, ‘मुगले आज़म’ को हम उसकी महानता के लिए याद करते हैं, इसलिए नहीं कि उसने बहुत बिजनेस किया था। ‘मुगले आज़म’ को कुछ साल पहले पूरी तरह रंगीन करके रिलीज़ किया गया था। हीरानी इसे भी बिजनेस का मामला मानते हैं, क्योंकि इससे उसकी महानता नहीं बढ़ी। असल में फ़िल्मकारिता की ख़ूबी तो यह है कि आप कुछ नया सोचें। ऐसा कि आपको किसी पुरानी फ़िल्म की कहानी या उसके शीर्षक का सहारा नहीं लेना पड़े। मगर बहुत से फ़िल्मवालों को लगता है कि पहले जो चीज़ पसंद की गई है वह फिर पसंद की जाएगी। उसे फिर से बेचा जा सकता है।

याद कीजिये, ‘आशीर्वाद’ की कामयाबी के बाद निर्माता एनसी सिप्पी और निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी की जोड़ी ने बेहतरीन फ़िल्मों की लाइन लगा दी थी। मसलन ‘गुड्डी’, ‘आनंद’, ‘चुपके-चुपके’, ‘मिली’, ‘बावर्ची’, ‘गोलमाल’, ‘खूबसूरत’ इत्यादि। सिप्पी परिवार ने गुल़ज़ार के निर्देशन में भी ‘मेरे अपने’ और ‘कोशिश’ जैसी फ़िल्में बनाईं। अब एनसी सिप्पी के पोते समीर राज सिप्पी ‘मिली’, ‘बावर्ची’ और ‘कोशिश’ का रीमेक बनाना चाहते हैं। उनका कहना था कि अब समय आ गया है कि हम क्लासिक कहानियों को नए और मॉर्डन टच के साथ आज के परिदृश्य में पेश करें। क्या सचमुच ऐसा समय आ गया है कि यह किया जाए? दो साल पहले ख़बर आई थी कि वे ‘आनंद’ का रीमेक बनाने वाले हैं। पता नहीं उसका क्या हुआ। मगर इस लिहाज़ से देखें तो ‘मदर इंडिया’, ‘गाइड’, ‘मुगले आज़म’, ‘प्यासा’ या कोई भी फ़िल्म सुरक्षित नहीं है। कोई दूसरा नहीं तो इनके निर्माताओं के परिजन ही इनके नाम से कुछ और बना सकते हैं।

टीम इंडिया ने जब 1983 का विश्वकप जीता तब बीसीसीआई यानी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पास खिलाड़ियों को पुरस्कृत करने तक के पैसे नहीं थे। उस समय क्रिकेटर, कमेंटेटेर और लता मंगेशकर से मित्रता के लिए जाने जाते रहे दिवंगत राज सिंह डूंगरपुर ने दिल्ली में लता नाइट आयोजित करवा के बीसीसीआई की लाज बचाई थी। आज उनके भतीजे शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ‘फ़िल्म हैरिटेज फ़ाउंडेशन’ बना कर पुरानी और लुप्त होती फ़िल्मों को ढूंढ़-ढ़ूंढ़ कर सहेजने के बेहद महत्वपूर्ण काम में जुटे हैं। लेकिन जिन फ़िल्मों के लिए यह मेहनत हो रही है, क्या उन्हीं के नाम पर स्तरहीन अथवा ऊटपटांग फ़िल्में बनाने की इजाज़त होनी चाहिए? मगर इसे रोकेगा कौन? कुछ बरसों से अपने रवैये के कारण विवादों में रहे फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड से इसकी उम्मीद करना व्यर्थ है। इसका कोई तरीका शायद खुद फ़िल्म उद्योग को सोचना होगा।

अब तो ऐसी फ़िल्मों को भी कुछ थिएटरों में री-रिलीज़ किया जा रहा है जो बहुत ज्यादा पुरानी नहीं हुई हैं। हाल में ‘वीर-ज़ारा’, ‘करण अर्जुन’, ‘हम आपके हैं कौन’, ‘चक दे इंडिया’, ‘जब वी मेट’, यहां तक कि ‘तुम्बाड़’ तक को दोबारा रिलीज़ किया गया। इसमें भी कमाई हो रही है। लोग इन्हें देख कर पुरानी यादों में खोना पसंद कर रहे हैं। लेकिन उन यादों के शीर्षक बचाने पर किसी का ध्यान नहीं है। संभव है कि किसी दिन किसी पुरानी फ़िल्म की टिकट लेते समय दर्शकों को पूछना पड़े कि क्या यह वही राजकपूर वाली ‘संगम’ है?

By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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