यह यक्ष प्रश्न है कि भारत में अल्पसंख्यक कौन है? उसकी परिभाषा क्या है? उसका आधार क्या है, धार्मिक या भाषायी या कुछ और? उसका अखिल भारतीय और राज्यस्तरीय पैमाना एक ही है या अलग अलग है? क्या जितने गैर हिंदू हैं सब अल्पसंख्यक हैं? इन सवालों के जवाब तलाशने की जरुरत है। कोई पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट में यह मामला पहुंचा था और तब सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को निर्देश दिया था कि वह अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करे। लेकिन पांच साल बाद भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिल पाया है। हालांकि यह जरूर हुआ है कि केंद्र सरकार ने सर्वोच्च अदालत को सूचित कर दिया है कि राज्यों में सरकारें किसी भी धार्मिक या भाषायी समूह को अल्पसंख्यक का दर्जा देने का फैसला कर सकती हैं। लेकिन इससे यह सवाल हल नहीं होता है कि अल्पसंख्यक कौन है? राज्य सरकारें किसी भी धार्मिक या भाषायी समूह को किस आधार पर या किस मानक पर अल्पसंख्यक का दर्जा देंगी?
एस. सुनील
यह बहुत हैरान करने वाली बात है कि संविधान में कई जगह अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 29, 30, 350 ए और 350 बी में अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल है लेकिन कहीं पर इसको परिभाषित नहीं किया गया है। यह नहीं बताया गया है कि किसको अल्पसंख्यक कहा जाएगा। यह अस्पष्टता आजादी के 77 साल बाद भी बनी हुई है, जिसका असर सामाजिक विभाजन के रूप में दिखता है, सरकारी नीतियों में भेदभाव और राजनीतिक दलों के तुष्टिकरण की राजनीति में दिखता है। इसलिए जरूरी है कि अल्पसंख्यक को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए। भाषा या धर्म के आधार पर किसी समूह को अल्पसंख्यक मानने का स्पष्ट पैमाना भी तय किया जाए।
भारत के संविधान, संसद या सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अल्पसंख्यक की कोई परिभाषा तय नहीं की गई है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ की एक परिभाषा है, ‘जिसके मुताबिक ऐसा समुदाय, जिसका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से कोई प्रभाव न हो और जिसकी आबादी नगण्य हो, उसे अल्पसंख्यक कहा जाएगा’। यह परिभाषा भी बहुत स्पष्ट नहीं है फिर भी इससे एक दिशा मिलती है। यह समझ में आता है कि किसी देश या राज्य की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में बहुत मामूली असर रखने वाले धार्मिक या भाषायी समूह को अल्पसंख्यक माना जाएगा। सवाल है कि इस पैमाने पर मुस्लिम कैसे भारत में अल्पसंख्यक होंगे? भारत में उनकी आबादी 14 फीसदी से ज्यादा है और संख्या के लिहाज से कहें तो 20 करोड़ के करीब है। संख्या के लिहाज से भारत के मुस्लिमों का अलग देश बने तो वह इंडोनेशिया के बाद दूसरा सबसे बड़ा मुस्लिम आबादी वाला देश होगा और दुनिया में भारत, चीन, अमेरिका, इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद छठी सबसे बड़ी आबादी वाला देश होगा। सोचें, इतने बड़े समुदाय को कैसे अल्पसंख्यक माना जा सकता है?
लेकिन चूंकि संविधान में कोई परिभाषा नहीं बताई गई और आजादी के बाद बनी सरकारों ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए कोई परिभाषा तय नहीं की तो यह मान लिया गया कि हिंदू को छोड़ कर इस देश में जितने धर्म समूह हैं वो अल्पसंख्यक हैं। यह एक बहुत बड़ी भूल थी। अब इस भूल सुधार की जरुरत है। यह भूल सुधार तीन पहलुओं से जरूरी है, जिसकी मांग सुप्रीम कोर्ट में भी की गई है। पहला, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून की धारा 2 (सी) रद्द की जाए क्योंकि यह मनमानी और अतार्किक है। इसमें केंद्र को किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने के असीमित अधिकार है। दूसरा, केंद्र सरकार की 23 अक्टूबर 1993 की वह अधिसूचना रद्द की जाए, जिसमें पांच समुदायों मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सिख और पारसी को अल्पसंख्यक घोषित किया गया है। बाद में 2014 में जैन भी अल्पसंख्यक में शामिल किए गए। तीसरा, अल्पसंख्यक की परिभाषा और अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशा निर्देश तय हों, ताकि यह सुनिश्चित हो कि सिर्फ उन्हीं अल्पसंख्यकों को संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में अधिकार और संरक्षण मिले, जो वास्तव में धार्मिक और भाषायी, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली न हों और जो संख्या में बहुत कम हों।
इनमें भी सबसे पहले अल्पसंख्यक की पहचान के दिशा निर्देश तय करने की जरुरत है। यह पहचान क्या होगी, उसका पैमाना है कि ‘वह समुदाय, जिसकी आबादी नगण्य हो और जिसकी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हैसियत मामूली हो’। अगर आबादी के पैमाने की बात करें तो नगण्य का मतलब एक या दो फीसदी आबादी होती है। भारत जैसे 145 करोड़ की आबादी वाले देश में एक फीसदी का मतलब भी करीब डेढ़ करोड़ होता है, जो दुनिया के कई देशों की आबादी से ज्यादा है। इसलिए अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करते हुए एक या दो फीसदी का ही पैमाना रखना चाहिए। अगर बहुत उदारता दिखाई जाती है तब भी पांच फीसदी से ज्यादा आबादी वाले समूहों को किसी हाल में अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं मिलना चाहिए। भारत में पांच फीसदी आबादी का मतलब भी साढ़े सात करोड़ की संख्या होती है। यह ब्रिटेन की आबादी से ज्यादा है। इस पैमाने से मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय से बाहर हो जाएंगे और अगर सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक असर को पैमाना बनाया गया तो आर्थिक रूप से संपन्न कुछ और धार्मिक समूह भी अल्पसंख्यक की सूची से बाहर हो जाएंगे। लेकिन सरकार को यह नहीं देखना चाहिए कि कौन अंदर रह रहा है और कौन बाहर हो रहा है। सरकार को अपने सारे पूर्वाग्रह और राजनीतिक नफा नुकसान की भावना छोड़ कर अल्पसंख्यक की परिभाषा और उनकी पहचान के लिए दिशा निर्देश तय करना चाहिए।
भारत में अभी परिभाषा तय नहीं होने से कई किस्म की विसंगतियां हैं। जैसे अखिल भारतीय स्तर पर करीब 80 फीसदी आबादी के साथ हिंदू बहुसंख्यक है लेकिन जम्मू कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर के कई राज्यों में वह अल्पसंख्यक है। इसके बावजूद उसको वह लाभ नहीं मिलता है, जो अल्पसंख्यक समुदायों को राष्ट्रीय स्तर पर मिलता है। तभी बार बार टीएमए पई मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के फैसले को आधार बना कर फैसला करने की बात होती है। उस फैसले में अदालत ने कहा था कि अल्पसंख्यकों की पहचान राज्य स्तर पर की जाए न कि राष्ट्रीय स्तर पर क्योंकि कई राज्यों में जो वर्ग बहुसंख्यक हैं, उन्हें भी अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है। अब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बता दिया है कि राज्यों को अधिकार होगा अल्पसंख्यक तय करने का। लेकिन उसने न तो राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक तय करने का कोई पैमाना बनाया है और न राज्यों के लिए कोई दिशा निर्देश दिया है।
अगर अल्पसंख्यक होने के लिए पांच फीसदी आबादी की सीमा तय कर दी जाए तो मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं रह जाएंगे। ऐसा होते ही कई तरह के सकारात्मक बदलावों की शुरुआत हो सकती है। जैसे तुष्टिकरण की राजनीति बंद हो जाएगी। अभी मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक है तो उसे संविधान के तहत कई सुविधाएं मिली हुई हैं और राजनीतिक दल अपना चुनावी हित साधने के लिए उनके हितों का पोषण करते हैं। उन्हें संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अपने शिक्षण संस्थान बनाने और उनका संचालन करने का अधिकार है। लेकिन मुस्लिम समुदाय के जो शिक्षण संस्थान हैं यानी मदरसे और कुछ अन्य उच्च शिक्षा के संस्थानों से मुस्लिम समुदाय का क्या भला हो रहा है? इन संस्थानों में क्या आधुनिक ज्ञान, विज्ञान की पढ़ाई हो रही है? क्या मुस्लिम बच्चे और बच्चियां इन संस्थानों से पढ़ कर देश और दुनिया की मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं? यह मुस्लिम समाज के लिए भी सोचने की बात है। हकीकत यह है कि मदरसों में धार्मिक शिक्षा तो मिल जाती है, जिससे उनके अंदर एक तरह की कट्टरता आती है लेकिन आधुनिक ज्ञान और विज्ञान से बच्चे अपरिचित रह जाते हैं। यही कारण है कि देश की उच्च सरकारी नौकरियों से लेकर निर्माण सेक्टर और सबसे तेजी से फले फूले आईटी सेक्टर में भी मुस्लिम प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है। मुस्लिम डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक आदि चिराग लेकर खोजने पर मिलते हैं। इसलिए मुसलमानों को भी अपने घेटो से बाहर निकल कर मुख्यधारा से जुड़ने की कोशिश करनी चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि अब तक उनका तुष्टिकरण करने वाली पार्टियों और सरकारों ने उनका भला नहीं किया है, बल्कि उनको अनपढ़ और पिछड़ा बनाए रखा है। उनका भला तभी होगा, जब वे मुख्यधारा से जुड़ेंगे। इसके लिए जरूरी है कि मदरसों को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के दायरे में लाकर उनको यूनिवर्सल पाठ्यक्रम से जोड़ा जाए ताकि वहां के बच्चे भी आधुनिक शिक्षा हासिल कर सकें।
सरकार को निर्मम होकर इस बारे में फैसला करना होगा। सबसे पहले अल्पसंख्यक के तौर पर पहचान के लिए पांच फीसदी से कम आबादी का पैमाना तय करना चाहिए और दूसरा, कौन अल्पसंख्यक होगा यह तय करने का अधिकार राज्यों को देना चाहिए। ये दो काम करने के साथ ही केंद्र सरकार को जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी जनसंख्या नियंत्रण का कानून लाना चाहिए और घुसपैठ रोकने के उपाय करने चाहिए। जनसंख्या में बेहिसाब बढ़ोतरी और बेलगाम घुसपैठ का नतीजा यह है कि पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, झारखंड आदि राज्यों में जनसंख्या संरचना तेजी से बदल रही है। मुस्लिम आबादी में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो रही है। दुर्भाग्य से राजनीतिक दल अपने छोटे छोटे फायदे के लिए इसे बढ़ावा दे रहे हैं। इससे समाज में भेदभाव और विभाजन बढ़ रहा है।
(लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)