आखिर कौन विकास के मौजूदा बुलट ट्रेन समय में विचार व विवेक के समभाव की पदयात्रा कर सकता है? राज्यों के जन, और उनके जनसेवक अगर स्थानीय विकास पर जोर देते तो भारत कभी से विकसित राष्ट्र हुआ होता। समाज को ही एकजुट होकर संपोषणीय विकास या सस्टेनेबल डेवलपमेंट के लिए आगे आना होगा। क्योंकि जीव परिस्थिति की समझ तो वहां जीने-बसने वालों से ही बनती है। असल विकास भी भविष्य में होने वाले जमीन या जलवायु परिवर्तन को जान-समझ कर ही किया जा सकता है।
देश में जगह-जगह इकोलॉजी या जीव-पारिस्थितिकी की आपदा बढ़ती जा रही हैं। वायनाड और फिर कुल्लू-मनाली में जो आपदा बरपी है उसने ‘विकास या विनाश’ का मुद्दा फिर छेड़ दिया है। कोई भी आपदा अचानक, अकेले नहीं आती है। उससे पहले समाज में, और सत्ता में भी अच्छे विचार की और सच्चे काम की आपदा आती है। आपदा प्राकृतिक हो या पारिस्थितिक, मानवीय हो या आर्थिक, या फिर सामाजिक या साम्प्रदायिक, हर आपदा का एक इकोलॉजिकल या जीव पारिस्थितिकी-तंत्र की बुनियादी लिए हुए होती है। यह सब होना कुछ के लोगों के निजी स्वार्थ के परिणामों में होता है। इससे समाज का बहुत कुठ स्वाहा हो जाता है।
इन दिनों कश्मीर से कन्याकुमारी तक, और मणीपुर से लेकर मुंबई तक जो भी जमीन या जलवायु आपदा घटना हैं उनको संस्थागत सत्ताओं का मानव स्वार्थ ही मानना होगा। क्योंकि प्रकृति तो सदा परिवर्तनशील रही है मगर आपदाग्रस्त नहीं। प्रकृति के परिवर्तन के साथ जीना ही जीवन का परिपक्व विकास रहा है। सवाल है भारत में हर मानसून में बढ़ती जा रही इभयावह त्रासदियों से मानवीय सत्ता क्यों सीख नहीं ले रही है? और क्यों धरती पर गहराते जमीन व जलवायु परिवर्तन से मानव सत्ता को डर नहीं लग रहा है? और क्यों विकास का सपना दिखाने वाली सत्ता मानवता को ही विनाश की ओर ढकेलने पर तुली है? क्या सत्ताउन्मुखी विकास की गति को जमीन व जलवायु परिवर्तन की गति से तेज किया जाना चाहिए? इस होड़ में आखिर तबाह कौन हो रहा है?
जल्दी में हर तरह से व हर जगह वर्चस्व, सत्ता पाने की होड़ ही ऐसे विनाशकारी विकास का कारण बनती है। आज के विकास का मॉडल समाज के सपने को सत्ता के लिए साकार करने का जुगाड़ भर है। इसीलिए पहली बारिश के पानी में पांच-सौ साल के इंतजार के बाद बना राममंदिर, और दूसरी बारिश को सौ साल बाद बनी नई संसद झेल नहीं पायी। हिंदू समाज पांच सौ साल सहनशील रहा, लेकिन सत्ता, कानूनी निर्णय के बाद राममंदिर बनाने में पांच साल भी वह क्या नहीं रुक सकती थी। आखिर निर्माण और विकास की जल्दबाजी, रफ्तार में समाज की नैतिक, वैचारिक भागेदारी क्यों नहीं होए? डायन बनी महंगाई और गहरी होती बेरोजगारी के बीच में आलीशान इमारतें, सुपर हाईवे, पर्यटन कॉरिडोर व छह-लेन चौड़ी सड़कें कैसे जरुरी हो सकती हैं?
समाज जो चाहता है या जो चलाना चाहता है, वही उसके जनसेवक का वैचारिक कैनवास भी हो जाता है। सत्ता तो अपने जमीनी विकास के लिए जलवायु की आध्यात्मिक समझ खो बैठी है। क्या समाज भी अपने सामाजिक धर्म भूल गया है? विकास का जो मॉडल तीन दशक से देश में चलाया जा रहा है उसको दो मापदंड यानी समाज और सत्ता के पैमाने पर देखना होगा। पहले समाज की आकांक्षाओं में देखना है और फिर सत्ता की महत्वाकांक्षाओं में। समाज के मन में घर कर गया है कि असल विकास तो विदेश का ही है। और हमें देश में भी विदेश जैसा विकास चाहिए। टीवी का आकाश खुलने से हमें जो दिखता है या दिखाया-दर्शाया जाता है वैसा ही विकास हमें भी चाहिए। यानी भारत को भौतिक तौर पर अमेरिका या इंग्लैंड ही बनना है। भले स्वभाविक तौर पर, मिजाज में हम बेशक हिंदुस्तानी ही बने रहें।
यह वैसा ही है जैसा 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज्य में दर्शाने की कोशिश की थी। यानी हमें बाघ का स्वभाव (निरंकुशता) तो चाहिए लेकिन बाघ (अंग्रेज) नहीं चाहिए। यह जानते हुए कि बाघ का स्वभाव तो बाघ के साथ ही आएगा। फिर भी भारत को हमें अमेरिका या इंग्लैंड ही बनाना है फिर बेशक स्वभाव से हम हिंदुस्तानी ही रहे।
परिवर्तनशील प्रकृति में भी सभी की जरूरत के लिए पर्याप्त संसाधन हैं। लेकिन एक की भी लालसा या स्वार्थ के लिए कम ही रहने वाला है। इसीलिए एक तरफ तो हमें गर्व कराया जाता है की अडानी-अंबानी दुनिया के सबसे रईस आदमी हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ बताया जाता है की 80 करोड़ देशवासियों को मुफ्त अनाज दिया जा रहा है। गहरी आर्थिक असमानता क्या सामाजिक समभाव की समरसता ला सकती है? इसलिए महत्वपूर्ण यह है कि सत्ता के विकास और उसके सत्य के इस अंतरभेद को समाज कैसे देखता है।
समाज के विकास के नाम पर विचारहीन सरकारें उद्योगपति व ठेकेदार के पास ही जाती हैं। उद्योग में सिर्फ मुनाफे के लिए आए उद्योगपति विकास मॉडल के हिस्सेदार बनते हैं। इसलिए सड़के बनानी हो या इमारतें, या कोई अन्य उद्योग लगाने हों उसमें जमीन पर जीने-बसने वालों को अनावश्यक मान लिया जाता है। वायनाड, कुल्लू-मनाली या अन्य पहाड़ी इलाकों में सत्ता व उद्योगपतियों की सांठगांठ ने सिर्फ मुनाफे का ही विकास दर्शाया। और क्योंकि विकास लाने-वाले और विकास देने-वाले दोनों को ही वहां रहना-बसना नहीं है इसलिए पेड़ कटने की रफ्तार का पेड़ उगाने की गति से कोई सामंजस्य नहीं बैठता। बादल फटने या तेज बारिश होने से भूसा बनी मिट्टी भूस्खलन ही लाती है। या नदी का जल बिना ठहरे तेजी से बहता है और रास्ते से सब कुछ बहा ले जाता है। फिर वही होता है जो अपने टीवी पर लगातार दिख रहा है। समाज को अपने विकास के लिए अपने विवेक को व्यवहार में लेना सीखना होगा।
ऐसी ही सांठगांठ दिल्ली के राजेन्द्र नगर के कोचिंग सेंटर हादसे में भी दिखी। रिहायशी इलाकों में कोचिंग सेंटर चलाने की मंशा भी मुनाफे की है। बस उनमें पढ़ने वाले प्रतिभाशाली बच्चे दूसरे गांव से आए थे। महात्मा गांधी पर फिर लौटते हैं। सन् पैंतीस-छत्तीस में गांधी जी ने तय किया कि देश के बीचों-बीच सेवा कार्य करने-सीखने का गांव बने। सेवाग्राम आश्रम उद्योगपति जमनालाल बजाज को बनाना था। गांधी जी ने बजाज से शर्त रखी कि आश्रम बनाने के लिए जो भी जरूरत होगी वह उसके सिर्फ 5 किलोमीटर के दायरे से ही ली जाए। शर्त के तीन कारण भी बताए। आसपास के लोगों को रोजगार मिलेगा, आत्मनिर्भरता बढ़ेगी और समरसता पैदा होगी। सभ्य समाज में सबका विकास ऐसी ही समरस अर्थव्यवस्था से होना चाहिए।
वायनाड, कुल्लू-मनाली और पहाड़ों में रहने-बसने वालों के लिए ऐसा ही जंगल-काटू, दम-घोटू व जलवायु दूषित करने वाला विकास हुआ है। विकास के नाम पर साठ प्रतिशत जंगल तेजी से काट लिए गए हैं। जीवनदायिनी बारिश को आज ऐसे ही विकास कार्यों के लिए मुसीबत माना जा रहा है। टीवी खबरों में इसको जल-सैलाब कहा जा रहा है। दिल्ली मुंबई से आने वाले पर्यटकों के लिए पेड़-पहाड़ काट कर सड़के बनाना वहां रहने-बसने वालों के लिए रोजगार का बहाना भर है। ऐसे ही रोजगार का विकास कभी दिल्ली आकर कुसुमपुर पहाड़ी पर या मुंबई के धारावी के स्लमों में बसे लोगों ने भी देखा था। आज वे न घर के रहे हैं और न घाट के।
दिल्ली के जमनापार में एक उच्च मध्यवर्गीय कालोनी निर्माण विहार है। उसमें कभी बारिश के पानी को सहेजने के लिए अलग से खुली नालियां बनाई गयी थी। फिर विकास का भोंपू बजा और उन नालियों को सीमेंट की जाली से ढक दिया गया। अब उन नालियों पर कारें खड़ी होती हैं, सफाई भगवान भरोसे और जल निकासी की सभी संभावनाओं पर सीमेंट रोप दी गयी है। जमना तो दूर है लेकिन हर बारिश में कालोनी बाढ़ ग्रस्त ही होती है। और यह सब विकसित होने के सपनों के साथ चला आ रहा है।
आखिर कौन विकास के मौजूदा बुलट ट्रेन समय में विचार व विवेक के समभाव की पदयात्रा कर सकता है? राज्यों के जन, और उनके जनसेवक अगर स्थानीय विकास पर जोर देते तो भारत कभी से विकसित राष्ट्र हुआ होता। समाज को ही एकजुट होकर संपोषणीय विकास या सस्टेनेबल डेवलपमेंट के लिए आगे आना होगा। क्योंकि जीव परिस्थिति की समझ तो वहां जीने-बसने वालों से ही बनती है। असल विकास भी भविष्य में होने वाले जमीन या जलवायु परिवर्तन को जान-समझ कर ही किया जा सकता है।
नकल का विकास अक्ल का विनाश भी लाता है। इसलिए समाज को ही अपने विचार-विवेक से विकास का अलग सपना विकसित करना होगा। अगर समाज अपनी जिम्मेदारी अभी भी नहीं समझा तो जो विकास आज तैरता दिख रहा है कल वो विनाश में डूबता दिखेगा।