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पौष्टिकता की चाह में बीमारियां न्यौतना

कुपोषित न हों, सेहत दूसरों से अच्छी रहे ये सोचकर सप्लीमेन्ट्स (मल्टीविटामिन) लेते हैं वो भी यह जाने बिना कि किसकी जरूरत है किसकी नहीं। जरूरत से ज्यादा सप्लीमेंट्स भूख मार देते हैं जिससे एसीडिटी, पेट में जलन और कब्ज जैसी समस्यायें होने लगती हैं। और वजह होती है नेचुरल फाइबर न खाने से पाचन-तन्त्र में गट-फ्लोरा का संतुलन बिगड़ना। गट-फ्लोरा यानी हमारे पेट में मौजूट गुड बैक्टीरिया जो खाना पचाने में मदद करते हैं। आम बोल-चाल की भाषा में इन्हें गट फ्रैन्डली बैक्टीरिया भी कहते हैं।

आर्थोरेक्सिया

खाना पौष्टिक हो इससे अच्छा कुछ नहीं, लेकिन इस बात पर इतना जोर नहीं होना चाहिये कि पौष्टिकता की चाह मनोरोग बन जाये। आप ज्यादातर चीजों के स्वाद से वंचित होकर बीमार और कुपोषित होने लगें। मेडिकल साइंस में इसे ऑर्थोरेक्सियाकहते हैं। इस शब्द को सबसे पहले कैलिफोर्निया के डॉक्टर स्टीवन ब्रेटमैन (एमडी) ने 1996 में इस्तेमाल किया था। उन्होंने देखा कि कुछ लोग भोजन की गुणवत्ता, शुद्धता और स्वच्छता को लेकर इतने जुनूनी हो जाते हैं कि ज्यादातर चीजें खाते ही नहीं। इसका परिणाम सामने आता है पेट में जलन, कुपोषण, एलर्जी, इरीटेबल बाउल सिंड्रोम, कब्ज और कुछ ऑटो-इम्यून बीमारियों के रूप में।

खतरनाक विकार

यह एनोरेक्सिया की तरह एक ईटिंग डिस्ऑर्डर है लेकिन इससे एकदम उलट। जहां एनोरेक्सिया में वजन बढ़ने के डर से लोग इतनी डाइटिंग करते हैं कि उनकी भूख मर जाती है वहीं ऑर्थोरेक्सिया पीड़ित हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि खाना पौष्टिक है या नहीं। अजीब सी मनोदशा हो जाती है। अगर पौष्टिक है तो पेट भरा होने पर भी खा लेंगे, नहीं तो छोड़ देंगे। पौष्टिकता के चक्कर में सामाजिक शिष्टाचार भूल जाते हैं। समारोहों में केवल वही खायेंगे जो इनकी नजर में पौष्टिक है। अगर कोई व्यंजन ड्राइ-फ्रूट्स से बना है तो उसमें से ड्राइ-फ्रूट्स चुनकर खा जायेंगे, बाकी छोड़ देंगें चाहे पूरी डिश बर्बाद हो जाये। अगर किसी ने चाय को पूछा तो वहां दूध मांगने लगेंगे। लोग उनकी ऐसी हरकतों पर क्या सोचेंगे इसकी भी इन्हें कोई परवाह नहीं होती।

बात यहीं पर नहीं रूकती। ये जब भी कोई खाद्य पदार्थ खरीदते हैं तो पहले उसकी गुणवत्ता की जानकारी लेंगे। लेबल पर पोषक तत्वों की जानकारी देखकर खरीदेंगे। खाद्य-पदार्थों की शुद्धता को लेकर इतने सजग रहते हैं कि खरीदने के पहले उसका स्रोत पता करेंगे। खाने की पौष्टिकता और स्वच्छता को लेकर चिंतायें इस हद तक बढ़ जाती हैं कि एंग्जॉयटी का शिकार हो जाते हैं। बाहर का खाना बंद कर देते हैं। एक समय ऐसा आता है कि इन्हें किसी पर भरोसा नहीं रहता केवल खुद का बनाया ही खाते हैं।

खराब होती है सेहत?

कायदे से तो खाने की शुद्धता, स्वच्छता और गुणवत्ता का स्तर ऊंचा होने से सेहत अच्छी होनी चाहिये लेकिन होता इसका उल्टा है। वजह, कम पौष्टिक खाद्य-पदार्थ न खाने से इनकी खाने की सूची छोटी हो जाती है। इससे पेट में नेचुरल फाइबर कम पहुंचता है। जिसका असर पेट सम्बन्धी बीमारियों और कुपोषण के रूप में नजर आने लगता है। कुपोषित न हों, सेहत दूसरों से अच्छी रहे ये सोचकर सप्लीमेन्ट्स (मल्टीविटामिन) लेते हैं वो भी यह जाने बिना कि किसकी जरूरत है किसकी नहीं। जरूरत से ज्यादा सप्लीमेंट्स भूख मार देते हैं जिससे एसीडिटी, पेट में जलन और कब्ज जैसी समस्यायें होने लगती हैं। और वजह होती है नेचुरल फाइबर न खाने से पाचन-तन्त्र में गट-फ्लोरा का संतुलन बिगड़ना। गट-फ्लोरा यानी हमारे पेट में मौजूट गुड बैक्टीरिया जो खाना पचाने में मदद करते हैं। आम बोल-चाल की भाषा में इन्हें गट फ्रैन्डली बैक्टीरिया भी कहते हैं।

जरूरी है गट-फ्लोरा

हमारे पाचन-तन्त्र में कई अरब गुड बैक्टीरिया होते हैं जिनका काम है खाना पचाकर हमें स्वस्थ रखना। इनकी संख्या जितनी ज्यादा होगी हम उतनी ज्यादा चीजें पचा पायेंगे। और ये संख्या तभी बढ़ेगी जब हमारे भोजन में तरह-तरह के फाइबर रिच खाद्य-पदार्थ हों। जैसे फल, सब्जियां, बीन्स, मटर, छिलके वाली दालें, छोले, राजमा, मल्टीग्रेन आटा, ड्राइ फ्रूट्स इत्यादि। वास्तव में प्राकृतिक फाइबर ही गुड बैक्टीरिया का भोजन है। जब हम फाइबर से भरपूर खाना खाते हैं तो पाचन तन्त्र में इनकी संख्या बढ़ती है, खाना ठीक से पचता है और कब्ज, एसीटिडी, इरीटेबल बाउल सिंड्रोम तथा फूड एलर्जी जैसी समस्यायें नहीं होतीं।

फाइबर रिच खाद्य-पदार्थ जरूरी

जब भोजन में फाइबर रिच खाद्य-पदार्थों की संख्या घटती है तो पेट में फाइबर न जाने से गुड बैक्टीरिया को पर्याप्त खाना नहीं मिलता। ऐसे में अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये ये पेट की लाइनिंग खाने लगते हैं। पेट की लाइनिंग पर अटैक होते ही हमारा इम्यून सिस्टम सक्रिय होकर हमारे अपने पाचन तन्त्र में मौजूद गुड बैक्टीरिया को आक्रमणकारी समझकर नष्ट करने लगता है। इससे पाचन क्रिया कमजोर, फूड एलर्जी और ऑटो-इम्यून बीमारियां (त्वचा रोग, अस्थमा, डॉयबिटीज) उभरने लगती हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि पेट में मौजूद गट-फ्लोरा (माइक्रोब्स), एक विशेष संचार प्रणाली, गट-ब्रेन एक्सेस के जरिये दिमाग पर असर डालते हैं। मेडिकल भाषा में साइकोबॉयोटिक्स कहे जाने वाले ये गुड बैक्टीरिया हमें कॉग्नेटिव और न्यूरोलॉजिकल डिस्आर्डर से बचाते हैं। डाइट में फाइबर रिच खाद्य-पदार्थों के कम होने का अर्थ है सूजन, एलर्जी, अल्सर, इरीटेबल बॉउल सिंड्रोम, डाइरिया, टाइप-2 डॉयबिटीज, मेटाबॉलिक सिन्ड्रोम, कोलोरेक्टल कैंसर, एंग्जॉयटी, डिप्रेशन, ऑटिज्म, एल्जाइमर और पार्किन्सन जैसी बीमारियों को बुलावा।

क्यों होता है ऑर्थोरेक्सिया?

ऑर्थोरेक्सिया के तीन कारण हैं। पहला है बॉयोलॉजकिल। अगर फैमिली हिस्ट्री में कोई किसी भी तरह के ईटिंग डिस्ऑर्डर या टाइप-1 डॉयबिटीज से पीड़ित रहा है तो ऑर्थोरेक्सिया के चांस बढ़ जाते हैं। दूसरा है मनोवैज्ञानिक। शोध से सामने आया कि परफैक्शन पर जोर देने वाले,  अपने शरीर से असन्तुष्ट और एंग्जॉयटी से पीड़ित लोगों को दूसरों की अपेक्षा ऑर्थोरेक्सिया का रिस्क अधिक होता है। तीसरी वजह है सामाजिक और सांस्कृतिक। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक अगर किसी के कुनबे या परिवार को पीढ़ियों तक प्रताड़ित किया गया हो, समाज में उन्हें कभी सही स्थान न मिला हो तो ऐसे परिवारों में जन्मे लोग दूसरों की तुलना में जल्द ऑर्थोरेक्सिया का शिकार हो जाते हैं। इसके अलावा अपने शारीरिक आकार और वजन को लेकर ताने सुनने वाले या किसी एक्टर-प्लेयर की तरह बॉडी बनाने का संकल्प लेने वाले भी ऑर्थोरेक्सिया का शिकार हो जाते हैं।

कैसे छुटकारा मिलेगा आर्थोरेक्सिया से?

ऑर्थोरेक्सिया से छुटकारा पाने के लिये सबसे पहले ये मानना होगा कि आप इसके शिकार हैं और इसकी वजह से ही आपकी फूड हैबिट्स बदली हैं। पढ़ने और सुनने में ये आसान लगता है लेकिन ये सबसे कठिन काम हैं। लोग जानते हुए भी नहीं मानते कि वे ऑर्थोरेक्सिया, एनोरेक्सिया या बुलिमिया जैसे ईटिंग डिस्ऑर्डर का शिकार हैं। अगर ये बात खुद समझ में आ जाये तो ठीक अन्यथा किसी साइकियाट्रिस्ट की मदद लें। अगर एक बार ये मान लिया कि आप ऑर्थोरेक्सिया के शिकार हैं तो समझिये आधी समस्या दूर हो गयी। शेष आधी के लिये आपको अपनी फूड हैबिट्स में धीरे-धीरे बदलाव करने होंगे। कारण लम्बे समय तक बहुत से खाद्य-पदार्थों का सेवन छोड़ देने से ऑर्थोरेक्सिया के ज्यादातर मरीज फूड एलर्जी का शिकार होने के साथ वहमी भी हो जाते हैं। बहुत से खाद्य-पदार्थों से उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन ये वहम हो जाता है कि फलां फूड आइटम उन्हें नुकसान करेगा। इसलिये थोड़े से शुरूआत करें।

उदाहरण के लिये अगर आपको चिप्स खाने से पेट में जलन होती है तो ये संकेत है चिप्स से एलर्जी का। ऐसे में पहले दिन आपको पहले दिन केवल एक चिप्स खाना है। थोड़ी जलन होगी लेकिन एक-दो घंटे में शांत हो जायेगी। ये आपको तब तक करना है जब तक आपका पेट एक चिप्स बिना जलन के पचा न ले। इसके बाद दो चिप्स, फिर तीन और फिर चार…। यह गट-फ्लोरा को प्रशिक्षित करने की लम्बी और धीमी प्रक्रिया है लेकिन इससे बिना दवाओं के आप फूड एलर्जी दूर कर सकेंगे। साथ ही खाने को लेकर दिमाग में चल रहे तरह-तरह के वहम भी समाप्त हो जायेंगे। इसी तरह खाने में धीरे-धीरे फाइबर रिच खाद्य-पदार्थों की मात्रा बढ़ायें। इससे गट-फ्लोरा बढ़ेगा और 5-6 महीनों में ऑर्थोरेक्सिया से मुक्ति मिल जायेगी। खाने को लेकर हो रही एंग्जॉयटी दूर करने के लिये योगा और मेडीटेशन को अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनायें। अगर आपके प्रयासों को वांछित सफलता नहीं मिल रही तो डॉक्टर और मनोचिकित्सक की सलाह लें।

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