भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित ऋषि महर्षि विश्वामित्र ने न सिर्फ अपने ज्ञान और तपस्या के बल पर भारतीय धर्म और संस्कृति को समृद्ध किया, बल्कि अपनी साधना व तपस्या के बल पर क्षत्रियत्व से ब्राह्मणत्व धारण कर सातवें मन्वन्तर के सप्तऋषियों में शामिल होने में सफलता प्राप्त कर ली और अपनी कर्म से शुद्धि (आर्य बनाने) आंदोलन के प्रथम पुरुष के रूप में कृणवंतों विश्वमार्यम के उद्घोषक भी बने। राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र ने अपने कर्म से यह सिद्ध कर दिखाया कि संध्योपासना व तपस्या के बल पर सब कुछ संभव किया जा सकता है तथा प्राणी को काम व क्रोध से अपनी शक्ति को बचाकर रखना चाहिए, अन्यथा जीवन का मार्ग और अधिक समय साध्य व कष्ट साध्य हो जाती है।
4 नवम्बर- महर्षि विश्वामित्र जयंती
गायत्री मंत्र के द्रष्टा (दृष्टा) महर्षि विश्वामित्र का वैदिक चिंतन में विशेष स्थान है। विश्वामित्र ही ऋग्वेद में दस मंडलों में से तृतीय मंडल के द्रष्टा हैं। इस कारण तृतीय मंडल को वैश्वामित्र मंडल कहा जाता है। तीसरे मंडल में इंद्र, अदिति, अग्नि, उषा, अश्विनी आदि देवताओं की स्तुतियों के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म और गौ महिमा का वर्णन है। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के 62वें सूक्त में गायत्री मंत्र का वर्णन अंकित है-
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
अर्थात- उस प्राणस्वरूप, दुखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपने अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।
गायत्री मंत्र को सभी वेद मंत्रों का मूल कहा जाता है। वैदिक और पौराणिक ग्रंथों में विश्वामित्र के संबंध में अंकित विस्तृत वर्णनों के समीचीन अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ऋषि विश्वामित्र शुद्धि (आर्य बनाने) आंदोलन के प्रथम पुरुष थे। वे देवासुर संग्राम काल में आर्यभूमि नाम से संज्ञायित सप्त सिंधु प्रदेश अर्थात सिंधु, सरस्वती, दृश्द्विती, शतद्र, परुष्णी, असीकृ और वितस्ता तक फैले विशाल प्रदेश, जो तिब्बत से होकर बिन्ध्य तक फैला हुआ था, में भरत नाम की प्रतापी जाति में उत्पन्न महाराजा गाधि के पुत्र थे। उनके जन्म की कथा भी रोचक है। महाराज गाधि को बड़ी उम्र हो जाने के बाद भी उनके उतराधिकारी के रूप में कोई पुत्र उत्पन्न नहीं होने से वे चिंतित थे। यद्यपि उनकी एक पुत्री सत्यवती थी, जिसका विवाह ऋषि भृगु ऋचिक के साथ हो चुका था। सत्यवती ने अपने पति भृगु से अपने भाई के पैदा हो सकने अर्थात अपनी माता के पुत्रवती होने की कामना करते हुए इसके लिए वरुण देव से प्रार्थना करने के लिए कहा। सत्यवती के बारम्बार इस बात के लिए कहे जाने पर भृगु ऋचिक ने वरुण देव से प्रार्थना की। राजा गाधि को और ऋचिक ऋषि अर्थात सत्यवती को एक साथ पुत्र हुआ। राजा गाधि के पुत्र का नाम विश्वरथ और सत्यवती के पुत्र का नाम जमदग्नि रखा गया। दोनों मामा- भांजे एक साथ रहने लगे। दोनों कभी अलग नहीं होना चाहते थे, जैसे दो शरीर एक प्राण हों। दोनों को साथ ही शिक्षा प्राप्ति हेतु ऋषि अगस्त के गुरुकुल भेजा गया। उस गुरुकुल में आर्यावर्त के बहुत से राजाओं के बच्चे भी पढ़ते थे, लेकिन ये दोनों बहुत मेधावी थे।
इसलिए कम समय में ही अपने गुरु के सर्वाधिक प्रिय शिष्य हो गए। एक बार गुरुकुल में आयोजित प्रतियोगिता में घूमती हुई मटकी पर निशाना लगाने की गुरु अगस्त की आज्ञा पर विश्वरथ ने वरुण देवता को ध्यान कर बाण छोड़ा, जो ठीक निशाने पर जाकर लगा। वहाँ राजा दियोदास भी अगस्त के गुरुकुल में मुख्य अतिथि के नाते तथा उनका पुत्र सुदास भी गुरुकुल के पुराने छात्र के रूप में उपस्थित था। नए- पुराने सभी छात्र प्रतियोगिता में अपनी करतब दिखला रहे थे। प्रतियोगिता में मटके पर ठीक निशाना लगाने से विश्वरथ सबमें प्रिय हो गया। तब तक विश्वरथ को गुरुकुल में आये केवल तीन महीने ही हुआ था।
गुरुकुल में शिक्षा प्राप्ति के समय ही वह सम्पूर्ण आर्यावर्त में सबसे बड़ा महारथी हो चुका था। तभी उसके पिता भरत राज गाधि का देहांत हो गया। अगस्त उसे अधूरी शिक्षा में छोड़ नहीं सकते थे। विश्वरथ का मन राज्य-काज में नहीं लगता था। उस समय तक उन्हें मंत्र दर्शन होने लगे थे। इसलिए उनकी इच्छा ऋषि बनने की थी। उनका मन आश्रम से निकलने को नहीं हो रहा था। उनकी यह जानने की इच्छा थी कि आखिर ऋषि अगस्त दस्यु राज को समाप्त करना क्यूँ चाहते हैं? वरुण देवता की कृपा असुरों पर क्यों नहीं?
उस समय दो प्रकार के चिंतन की दिशा उभरती दिखाई दे रही थी। ऋषि वशिष्ठ रक्त शुद्धि (अनुवांशिक) की बात करते थे, वहीं विश्वरथ सभी को आर्य बनाने का अधिकार मानते थे। असुर राज शंबर 99 किलों का स्वामी बहुत बलशाली था, लेकिन आर्यों में घृणा का पात्र था। दस्यु केवल दास बन सकते थे। दस्यु महिलाएं केवल दासी हो सकती थी। यही अंतर था विश्वरथ और वशिष्ठ में। विश्वरथ तपस्या के पक्ष में थे, तो वशिष्ठ सत्संग के। आज की भाषा में विश्वरथ राष्ट्रवादी थे, तो वशिष्ठ कर्मकांडी थे। विश्वरथ कृणवंतो विश्वमार्यम के असली उत्तराधिकारी थे। संयोग से इसी समय भूलवश शम्बर राज के सैनिकों ने विश्वरथ और उनके मित्र ऋक्ष का अपहरण कर लिया।
शम्बर को यह पता नहीं था जिसका अपहरण किया जा रहा है वह भरत वंश का राजकुमार है। असुरों की कोई लड़ाई भरतों से नहीं थी। अगस्त यह चाहते थे कि सभी आर्य एक क्षत्र के नीचे आ जाएँ। हालांकि यह अपहरण अनजाने में ही हुआ था। और दस्युराज शम्बर के यहाँ विश्वरथ के पहुंचने के समय भी ठीक से इनका परिचय यह नहीं हो पाया। बंदी जीवन ब्यतीत करते हुए घटनाक्रम में शम्बर राज का पुत्र बीमार हुआ। वहाँ का राजगुरु उपचार के लिए बुलाया गया, जो शैव (उग्रदेव) था, और भगवान शंकर का उपासक था। सभी असुर शंकर उपासक थे, अर्थात शिवलिंग की पूजा करते थे। विश्वरथ को यह समझने में देर नहीं लगी कि यह संघर्ष वरुण देव और शिवलिंग पूजकों (शैव) के बीच है। असुर राजपुरोहित ने शम्बर राज से कहा कि मृत्यु के देवता भी उसे वापस नहीं कर सकते। सभी निराश हो गए। बच्चे की माँ ब्यथित हो रोने-कलपने लगी। विश्वरथ उसके दुःख को देख न सके। उसने दस्युराज से कहा यह तो मृत्यु को प्राप्त हो ही चुका है, एक अवसर मुझे दो, हो सकता है मैं प्रार्थना कर अपने इष्ट के द्वारा मैं इसे जीवित कर सकूँ। अघोरी को यह स्वीकार तो नहीं था, लेकिन राजा ने आज्ञा दे दी। विश्वरथ ने वरुण देव का आवाहन किया और उनसे प्रार्थना करते हुए कहा- हे वरुण देव आखिर ये भी तो आपकी ही संतान हैं, उसे जीवित करो। उसने अपनी तपस्या को दांव पर लगा दिया। वरुण देव ने प्रसन्न हो उस बालक को जीवित कर दिया। दस्यु परिवार में विश्वरथ की धाक सी जम गई। दस्यु राजकुमारी उग्रा उससे प्रेम करने लगी। लेकिन उस अनार्य उग्रा को विश्वरथ कैसे स्वीकार कर सकता था? परंतु देवों को यह स्वीकार था कि सभी मानवों को आर्य बनाया जाय। देवाज्ञा से विश्वरथ ने उसे स्वीकार किया। वे पति-पत्नी के रूप में रहने लगे। लेकिन अगस्त कहाँ बैठने वाले थे? उन्होंने दस्युराज पर आक्रमण कर दिया। भरतों के राजकुमार का अपहरण होने की बात पर आर्य संगठित हो गए, और उन्होंने दस्युराज के 99 किलों को जीत लिया। उग्रा ने विश्वरथ को बलि होने से बचा लिया। समय पर अगस्त को सूचना दे अपने किले पर आक्रमण कराया। आर्यों की विजय हुई। उग्रा के पिता शम्बर ने उग्रा को कुल द्रोहिणी कह उसे पतित कहा । लेकिन उसने सभी अपमान पीकर विश्वरथ को जीवन दिया। अगस्त विश्वरथ पर दबाव बनाने लगे कि वह कुरूप अनार्य उग्रा को छोड़ दे अथवा अपनी दासी बना ले।
यह विश्वरथ को स्वीकार नहीं था। वे मानव-मानव में भेद नहीं मानते थे। उग्रा को आर्य में परिवर्तित करने के लिए विश्वरथ गायत्री मंत्र का जाप करते हैं, लेकिन लोग अभी भी उग्रा को स्वीकार करने से इंकार करते हैं। जल्द ही उग्रा एक पुत्र को जन्म देती है, लेकिन नाराज लोगों से पुत्र को बचाने के लिए उस समय की सबसे बड़ी महिला संत लोपामुद्रा बच्चे को एक सुरक्षित एवं गुप्त स्थान पर भेज देती हैं। लोग उग्रा को मार देते हैं। इससे लोपामुद्रा और विश्वरथ अत्यंत दुखी हो जाते हैं, परंतु उग्रा पुत्र बच जाता है। यह बात विश्वरथ को पता नहीं होती। धीरे-धीरे यह बच्चा बड़ा होता है और राजा अंबरीष के समारोह के कार्यक्रम में स्वयं को बलिदान करने के लिए उपस्थित होता है। इस समय तक विश्वामित्र को देव दर्शन और मंत्र दर्शन होने लगे थे। उनका मन राज-पाट में नहीं लगता। अब वे तत्सुओं को छोड़कर भरत ग्राम चले गए। वहाँ उनका राजतिलक भी हुआ। लेकिन उनका मन तो तपस्वी का था। उन्होंने तपस्यारत गायत्री मंत्र के दर्शन किए। उन्होंने कृण्वन्तो विश्वमार्यम का उद्घोष किया। उन्होने ब्रह्मांड को सिर्फ देखा ही नहीं उसके संघर्षण की आवाज भी गायत्री मंत्र- ऒ३म भूर्भुवः स्वः तत्स .. के रूप में सुनी। और इसके द्वारा सभी मनुष्यों की शुद्धि और सभी को आर्य बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई।
सुधार आंदोलन के अंतर्गत इस मंत्र के अभ्यास को स्त्रियों और सभी जातियों में फैलाया। और कहा कि गायत्री मंत्र का उच्चारण व जाप सभी के लिए खुला है। इसलिए इसका व्यापक रूप से जाप कर मनुष्यों को श्रेष्ठ बनना चाहिए। वास्तव में आर्यावर्त के सबसे बड़े महारथी के रूप में उनकी वशिष्ठ से कोई प्रतियोगिता नहीं थी। वे अपने मार्ग के अकेले ऋषि थे। उनके ब्रह्मर्षि बनने की इच्छा होने की बात गलत और अफवाह है। वे ऋग्वेद के प्रथम मंत्र द्रष्टा होने के कारण ब्रह्मर्षि तो अपने आप ही थे। विश्वरथ के रूप में अध्ययन करते समय ही मंत्र द्रष्टा हो जाने से विश्वामित्र बन महर्षि हो गए थे। तत्सुओं, भरतों समस्त आर्यावर्त के पुरोहित हुए। लंबी तपस्या की यात्रा के चरम पर ऋषि विश्वामित्र की योग शक्ति भी चरम पर पहुंच गई थी। इस बिंदु पर पहुंचकर भगवान ब्रह्मा ने इंद्रदेव के नेतृत्व में राजा कौशिक को ब्रह्मर्षि की उपाधि दी और उन्हें एक नाम दिया- विश्वामित्र अर्थात जो सबका मित्र हो, जिसके हृदय में असीमित करुणा हो।
उन्होंने प्रत्यक्ष देवासुर संग्राम को देखा था। वे सभी को समान देखते थे और शिव और वरुण दोनों को देव मानते थे। उन्होंने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया था। देवासुर संग्राम और कुछ नहीं शैव और वरुण के समर्थकों,अनुयायियों अथवा उस संस्कृतियों के मानने वालों के बीच का संघर्ष था। अपने कर्म से वे दोनों के पूज्य हो गए। वे राष्ट्र को मजबूत दिशा में ले जाना चाहते थे। वे सभी को आर्य बनने से वे बंचित नहीं होने देना चाहते थे। दोनों को एक करने का संकल्प आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ राजवंश भगवान श्रीराम द्वारा रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना करा सम्पूर्ण भारतवर्ष को आर्यावर्त में परिणित करना दोनों एक हैं, यह सिद्ध कर नवीन पूजा पद्धति विकसित कर भारतवर्ष को, आर्यावर्त को राष्ट्र स्वरुप दिया। ऋषि अगस्त और ऋषि लोपामुद्रा भी अपने प्रिय शिष्य से सहमत थे। उन्होंने दक्षिण में विश्वामित्र के इस महान कार्य को पूरा किया।
एक अन्य कथा के अनुसार राजा हरिश्चंद्र को वरुण देव के शाप से मुक्त करने हेतु नरमेध यज्ञ करने जमदग्नि और विश्वामित्र गए। वहाँ सम्पूर्ण आर्यावर्त के सभी राजा उपस्थित थे। वे विश्वामित्र का प्रताप देखने आए थे कि आज नर बलि होने से पूरे आर्यावर्त में विश्वामित्र की कैसी बदनामी होगी? वे आज क्या कहेंगे? लेकिन बलि के लिए लाए गए शुनःशेप के मुख से विश्वामित्र के प्रताप से वेद मंत्र उच्चरित होने लगा और सभी ने देव दर्शन किया। इस पर जय-जय कर होने लगा। उस शुनःशेप को उन्होंने अपना पुत्र स्वीकार किया। अपने राज्य के उत्तराधिकारी के नाते अपने पुत्र को राजतिलक कराया। और अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी शुनःशेप को अपनाया। अब वे महाराजा सुदास अथवा आर्यावर्त के पुरोहित नहीं थे। भरतों को उनका राज़ा मिल चुका था।