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नौ मन तेल नहीं तो राधा कैसे नाचेगी !

दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा को कब बदल दिया जाए यह तो अभी तय नहीं पर लोकसभा चुनावों के बाद से वे ऊँची उड़ान भरने को बेताब ज़रूर हैं। नेताजी का ऊँची उड़ान का यह ख़्वाब कोई आजकल का नहीं बल्कि लोकसभा चुनावों की टिकट बँटवारे के साथ से ही शुरू हुआ बताया जा रहा है। पर भाजपा अगर दिल्ली में अपनी सत्ता आ जाने का भ्रम पाल रही है तो नेताजी भी अगर दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं तो इसमें भला बुराई भी कैसी। अब भला अगर भाजपाई ही नेताजी के मुख्यमंत्री बनने की इच्छा और कोशिश का ज़िक्र करें तो कहीं से तो शुरुआत हुई ही होगी। चर्चा तो है कि लोकसभा टिकट की प्रक्रिया में अपने नेताजी ने दक्षिण दिल्ली से टिकट पाने वाले उम्मीदवार से मित्रता निभाई ।नेताजी के चहेते को टिकट मिला और वे जीते भी।

बस यहीं शुरू होती है नेताजी की चाहत । बदरपुर से विधायक रहे अब सांसद बन गए तो बदरपुर विधानसभा का उप-चुनाव होना ज़ाहिर है। इस सीट के ख़ाली होते ही विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद भी ख़ाली हैं सो अपने नेताजी के कान खड़े हो गए। अब बदरपुर विधानसभा का उप-चुनाव इस साल के आख़िर में होता है या फिर अगले साल के शुरूआत में यह अलग बात है पर खबर तो है कि अपने नेताजी यह उप चुनाव जीतकर दिल्ली विधानसभा में विपक्ष का नेता बन भाजपा के विधानसभा जीतने पर मुख्यमंत्री बनने का ख़्वाब पाले बैठे हैं। अब भला होता क्या है पर लोग तो क्या भाजपाई ही कह रहे हैं कि ‘ना नौ मन तेल होगा और ना राधा नाच पाएगी’। अब नेताजी को प्रदेश का अध्यक्ष बने तक़रीबन पौने दो साल हो ही चुके हैं। भाजपा के अध्यक्ष पद की मियाद अगर तोड़ी मरोड़ी नहीं जाए तो अध्यक्ष का कार्यकाल दो साल का होता है।अध्यक्ष के निपटने समय नज़दीक ही समझो सो अगर नेताजी को अपनी राजनीति बरकरार रखने के लिए सपने दिखने लगें तो किसी को हर्ज भी कैसा?

टिकट बँटवारे में दम भरेंगे हुड्डा,शैलजा व सुरजेवाला
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा लोकसभा चुनावों की तरह क्या विधानसभा चुनावों में भी चहेतों टिकट दिलवा पाएँगे। सवाल बस इतना सा ही है। और इसलिए भी क्योंकि सिरसा से सांसद और सूबे की पूर्व अध्यक्ष कु शैलजा और राज्यसभा सदस्य रणदीप सिंह सुरजेवाला ने एक सुर से हुड्डा पर मनमानी करने का आरोप जो लगा दिया है। और साथ ही आलाकमान से भी इस मामले में दखल देने की गुज़ारिश की है। यह अलग बात है कि लोकसभा चुनावों में कु शैलजा की टिकट को छोड़ बाक़ी सीटों के टिकट में हुड्डा की खूब चली थी।

पर लोकसभा में कांग्रेस की दोगुनी हुई सीटों ने कांग्रेस का मनोबल बढ़ाया है और अब वह बैकफ़ुट पर नहीं बल्कि फ़्रंट पर है,विपक्ष की बेहतरीन भूमिका निभा रही है , सो ऐसे में कोई नहीं कहता कि विधानसभा की टिकटों के बँटवारे में कांग्रेस किसी एक नेता को तरजीह देगी। अब भले कोई यह कहे कि शैलजा और सुरजेवाला के आरोपों के बाद हरियाणा में चुनावों को लेकर मीटिंग की गई और दोनों नेताओं से अपनी अपनी पसंद के नाम मांग लिए हैं और ज़मीनी स्तर पर इसके लिए फ़ीडबैक लिया जा रहा तो शक भी कैसा। तभी तो हरियाणा के कांग्रेसी भी मान रहे हैं कि टिकट की गांरटी तो फ़ीडबैक पर टिकी है। पर भला अब सवाल फिर वही कि हुड्डा कैसे दिलवा पांएंगे अपनों को टिकट और कैसे बनवा पांएंगे बेटे को सूबे का सीएम। आख़िर यही तो है किसी पिता की बेटे के लिए इच्छा ।

ग़ैरों को छोडिए ग़म तो अपनों सभी रहा
कांग्रेस को लेकर अक्सर यह कहा जाता है कि कांग्रेस को कोई दूसरी पार्टी नहीं हराती बल्कि कांग्रेस को कांग्रेस ही हराती है। लोकसभा चुनावों में आप के साथ गठबंधन में मिली तीनों सीटें हार जाने बाद तीन में से दो उम्मीदवारों ने रिव्यू कमेटी के सामने साफ़ कह डाला कि हम हारे नहीं हरवाए गए हैं। चाँदनी चौक से कांग्रेस उम्मीदवार जय प्रकाश अग्रवाल ने रिव्यू कमेटी के सामने कहा आप पार्टी के नेताओं ने तो कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए वोट माँगे ही नहीं अपनों ने भी साथ नहीं दिया। और यह भी कि आप पार्टी के नेताओं को डर था कि विधानसभा चुनावों में कहीं उसका वोट कांग्रेस को न चला जाए। अब चुनाव में तीनों उम्मीदवारों के हारने के बाद भले रिव्यू कमेटी की चार बैठकें हो चुकी हों पर हारने वाले संतुष्ट नहीं बताए जा रहे। कोई नहीं कहता था कि चाँदनी चौक से जेपी हारेंगे ,सट्टेबाज़ भी नहीं पर जेपी हार गए। कमोवेश उदित राज को लेकर भी यही कहा जाता रहा कि वे जीत रहे हैं।

जेपी की तरह उदित राज को भी ग़ैरों से ज़्यादा अपनों से शिकायत है। कांग्रेसी तो कह रहे हैं कि इंडिया गठबंधन को इस चुनाव में मायूसी मिली। जबकि आप और कांग्रेस ने मिलकर भाजपा को हराने की ठानी थी । लेकिन दस साल बाद भी भाजपा को सात में से सात अंक मिले। अब भला आप पार्टी ने पहले ही कांग्रेस के साथ किसी गठबंधन की क़सम खाई तो कांग्रेस पीछे भी कैसे रहती सो उसने भी गठबंधन से तौवा कर ली है। अब अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं ,आप और कांग्रेस ने फिर से भाजपा को निपटाने की क़समें खाई हैं। भला भाजपा दिल्ली में क्या रंग दिखा पाती है बात सिर्फ़ इतनी ही है। यह बात दूसरी है कि भाजपा नेताओं को भी दिल्ली में पार्टी की सरकार बनने की उम्मीद नहीं है। पर खिलाड़ियों के खेल के आगे कुछ भी मुमकिन से भी कोई नेता इतर नहीं। इंतज़ार तो यह भी है कि आख़िर भाजपा कैसे आप को दिल्ली में फट्टे लगा पाएगी। या यूँ कहिए कि अगर मोदी है तो मुमकिन है तो दिल्ली में केजरीवाल है तो ग़म कैसा।

By ​अनिल चतुर्वेदी

जनसत्ता में रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव। नया इंडिया में राजधानी दिल्ली और राजनीति पर नियमित लेखन

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