शब्द दो प्रकार का होता है-एक नित्य और दूसरा कार्य। इनमें जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध परमेश्वर के ज्ञान में हैं, वे सब नित्य होते हैं, और जो लोगों की कल्पना से उत्पन्न होते हैं, वे कार्य होते हैं, क्योंकि जिसका ज्ञान और क्रिया स्वभाव से सिद्ध और अनादि हैं, उसका सब सामर्थ्य भी नित्य ही होता है। इससे वेद भी उसकी विद्यास्वरूप होने से नित्य ही हैं, क्योंकि ईश्वर की विद्या अनित्य कभी नहीं हो सकती। प्रत्येक कल्प में वेद यथावत रहती है।
एक या एक से अधिक वर्णों के योग से बनी हुई स्वतंत्र सार्थक इकाई को शब्द कहते हैं। भारतीय संस्कृति में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। वैदिक मतानुसार कान से सुनके जिनका ग्रहण होता है, जो बुद्धि से जाने जाते हैं, जो वाक् इन्द्रिय से उच्चारण करने से प्रकाशित होते हैं, और जिनका निवास का स्थान आकाश है, उनको शब्द कहते हैं। शब्द दो प्रकार का होता है-एक नित्य और दूसरा कार्य। इनमें जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध परमेश्वर के ज्ञान में हैं, वे सब नित्य होते हैं, और जो लोगों की कल्पना से उत्पन्न होते हैं, वे कार्य होते हैं, क्योंकि जिसका ज्ञान और क्रिया स्वभाव से सिद्ध और अनादि हैं, उसका सब सामर्थ्य भी नित्य ही होता है। इससे वेद भी उसकी विद्यास्वरूप होने से नित्य ही हैं, क्योंकि ईश्वर की विद्या अनित्य कभी नहीं हो सकती। प्रत्येक कल्प में वेद यथावत रहती है।
ईश्वर के ज्ञान में सदा बने रहने से वेदों को नित्य माना जाता है। प्रलय काल में पढ़ना-पढ़ाना और पुस्तक के अनित्य होने से वेद अनित्य नहीं हो सकते, क्योंकि वे बीजांकुर न्याय से ईश्वर के ज्ञान में नित्य वर्तमान रहते हैं। सृष्टि के आदि में ईश्वर से वेदों की प्रसिद्धि होती है, प्रलय जगत के नहीं रहने से उनकी अप्रसिद्धि होती है, इस कारण से वेद नित्यस्वरूप बने रहते हैं। ऋग्वेद 10/190/ 3 के अनुसार जैसे कल्प की सृष्टि में शब्द, अक्षर, अर्थ और सम्बन्ध वेदों में हैं, इसी प्रकार से पूर्वकल्प में थे और आगे भी होंगे, क्योंकि जो ईश्वर की विद्या है, सो नित्य एक ही रस बनी रहती है। उनके अक्षर का भी विपरीतभाव नहीं होता। इसलिए ऋग्वेद से लेकर चारों वेदों की संहिता अब जिस प्रकार की है कि इनमें शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, पद और अक्षरों का जिस क्रम से वर्तमान है, इसी प्रकार का क्रम सब दिन बना रहता है, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान नित्य है, उसकी वृद्धि, क्षय और विपरीतता कभी नहीं होती। इस कारण से वेदों को नित्यस्वरूप ही मानना चाहिए।
व्याकरण के अनुसार शब्दनित्य होने से वेदनित्य हैं। पाणिनि और पतंजलि के अनुसार सब शब्द नित्य हैं, क्योंकि इन शब्दों में जितने अक्षरादि अवयव हैं, वे सब कूटस्थ अर्थात विनाशरहित हैं, और वे पूर्वापर विचलते भी नहीं, उनका अभाव अथवा आगम कभी नहीं होता। इससे वैदिक अर्थात वेद के शब्द और वेदों से लोक में आये लौकिक शब्द भी नित्य ही होते हैं, क्योंकि उन शब्दों के मध्य में सब वर्ण अविनाशी और अचल हैं तथा इनमें लोप आगम और विकार नहीं बन सकते, इस कारण से ऐसे शब्द नित्य हैं। व्याकरण के लोप, आगम, विकारादि से नित्यत्व का विघात नहीं होता।
पतंजलि के अनुसार शब्दों के समुदायों के स्थानों में अन्य शब्दों के समुदायों आकाश का गुण होने से भी शब्दनित्य हैं। मानव क्रियाएं उच्चारण और श्रवणादि के क्षण भंगुर होने से अनित्य गिनी जाती हैं। इससे शब्द अनित्य नहीं होते, क्योंकि यह जो हम लोगों की वाणी है, वही वर्ण-वर्ण के प्रति अन्य-अन्य होती जाती है, इसलिए वही अनित्य सिद्ध होती है। परंतु शब्द तो सदा अखंड एकरस ही बने रहते हैं। शब्द आकाश की भांति सर्वत्र एकरस भर रहे हैं। लेकिन जब उच्चारणक्रिया नहीं होती, तब प्रसिद्ध सुनने में नहीं आते। प्राण और वाणी की क्रिया से उच्चारण किये जाने पर ही शब्द प्रसिद्ध होते हैं। जैसे गौः के उच्चारण में जब तक उच्चारण क्रिया गकार में रहती है, तब तक औकार में नहीं, जब औकार में है तब गकार और विसर्जनीय में नहीं रहती। इसी प्रकार वाणी की क्रिया की उत्पत्ति और नाश होता है, शब्दों का नहीं। किन्तु आकाश में शब्द की प्राप्ति होने से शब्द तो अखंड एकरस सर्वत्र भर रहे हैं, परंतु जब तक वायु व वाक और इन्द्रिय की क्रिया नहीं होती, तब तक शब्दों का उच्चारण और श्रवण भी नहीं होता। इससे यह सिद्ध हुआ कि शब्द आकाश की भांति नित्य ही है। इससे यह भी सिद्ध है कि शब्द के नित्य होने की भांति ही वेदों के शब्द भी नित्य हैं।
वेदों के शब्द सब प्रकार से नित्य बने रहते हैं। जैमिनि के अनुसार शब्द नित्य ही हैं, अर्थात नाशरहित हैं, क्योंकि उच्चारणक्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है सो अर्थ के जानने ही के लिए है, इससे शब्द अनित्य नहीं हो सकता। जो शब्द का उच्चारण किया जाता है, उसकी ही प्रत्यभिज्ञा होती है कि श्रोत्रद्वारा ज्ञान के बीच में वही शब्द स्थिर रहता है, फिर उसी शब्द से अर्थ की प्रतीति होती है। जो शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान कौन कराता, क्योंकि वह शब्द ही नहीं रहा, फिर अर्थ को कौन जनाता? और जैसे अनेक देशों में अनेक पुरुष एक काल में ही एक गो शब्द का उच्चारण करते हैं, इसी प्रकार उसी शब्द का उच्चारण बारम्बार भी होता है, इस कारण से भी शब्द नित्य है। जो शब्द अनित्य होता तो यह व्यवस्था कभी नहीं बन सकती। इस प्रकार जैमिनि ने अनेक हेतुओं से पूर्वमीमांसा शास्त्र में शब्द को नित्य सिद्ध किया है। कणाद मुनि के वैशेषिक शास्त्र के अनुसार भी वेद ईश्वरोक्त है, इनमें सत्यविद्या और पक्षपातरहित धर्म का ही प्रतिपादन है, इससे चारों वेद नित्य हैं। ईश्वर नित्य है, इससे उसकी विद्या भी नित्य है।
गौतम मुनि कृत न्यायशास्त्र के अनुसार शब्द नित्य हैं, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक ब्रह्मादि जितने आप्त होते आये हैं, वे सब वेदों को नित्य ही मानते आये हैं। उन आप्तों का अवश्य ही प्रमाण करना चाहिए, क्योंकि आप्त लोग ही धर्मात्मा, कपट-छलादि दोषों से रहित, सब विद्याओं से युक्त, महायोगी और सब मनुष्यों के सुख होने के लिए सत्य का उपदेश करने वाले होते हैं, जिनमें लेशमात्र भी पक्षपात अथवा मिथ्याचार नहीं होता। उन्होंने वेदों का यथावत नित्य गुणों से प्रमाण किया है, जिन्होंने आयुर्वेद को बनाया है। वात्स्यायन मुनि ने वेदों का नित्य होना स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जो आप्त लोग हैं, वे वेदों के अर्थ को देखने दिखाने और जनानेवाले हैं। जो-जो उस-उस मन्त्र के अर्थ के द्रष्टा वक्ता होते हैं, वे ही आयुर्वेद आदि के बनाने वाले हैं। जैसे उनका कथन आयुर्वेद में सत्य है, वैसे ही वेदों के नित्य मानने का उनका जो व्यवहार है सो भी सत्य ही है। क्योंकि जैसे आप्तों के उपदेश का प्रमाण अवश्य होता है, वैसे ही सब आप्तों का भी जो परम आप्त सबका गुरु परमेश्वर है, उसके किये वेदों का भी नित्य होने का प्रमाण अवश्य ही करना चाहिए।
योगदर्शन, सांख्य दर्शन, वेदान्त दर्शन के मत में भी वेदनित्यत्व हैं। योगशास्त्र के कर्ता पतंजलि भी वेदों को नित्य मानते हैं। प्राचीन अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मादि पुरुष सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुए थे, उनसे लेकर आज तक और हम से आगे जो होने वाले हैं, इन सबका गुरु परमेश्वर ही है, क्योंकि वेद द्वारा सत्य अर्थों का उपदेश करने से परमेश्वर का नाम गुरु है। सो ईश्वर नित्य ही है, क्योंकि ईश्वर में क्षणादि काल की गति प्रचार ही नहीं है, और यह अविद्या आदि क्लेशों से और पापकर्म तथा उसकी वासनाओं के भोगों से अलग है। जिसमें अनन्त विज्ञान और सर्वदा एकरस बना रहता है, उसी के रचे वेदों का भी सत्यार्थपना और नित्यपना भी निश्चित है। जैसे शास्त्रों के प्रमाणों से वेद नित्य है, वैसे ही युक्ति से भी उनका नित्यपन सिद्ध होता है, क्योंकि असत् से सत् का होना अर्थात अभाव से भाव को होना कभी नहीं हो सकता, तथा सत का अभाव भी नहीं हो सकता। जो सत है उसीसे आगे प्रवृत्ति भी हो सकती है, और जो वस्तु ही नहीं है उससे दूसरी वस्तु किसी प्रकार से नहीं हो सकती। इस न्याय से भी वेदों को नित्य ही मानना ठीक है।
परमेश्वर के उपदेश वेदविद्या आने के पश्चात ही मनुष्यों को विद्या और ज्ञान की उन्नति करनी भी सहज हुई है, क्योंकि उसके सभी गुण सत्य हैं। इससे उसकी विद्या जो वेद है वह भी नित्य ही है। जो नित्य वस्तु है उसके नाम, गुण और कर्म भी नित्य ही होते हैं, क्योंकि उनका आधार नित्य है। और विना आधार से नाम, गुण और कर्मादि स्थिर नहीं हो सकते, क्योंकि वे द्रव्यों के आश्रय सदा रहते हैं। जो अनित्य वस्तु है, उसके नाम, गुण और कर्म भी अनित्य ही होते हैं। जो उत्पत्ति और विनाश से पृथक है, वही नित्य है। अनेक द्रव्यों के संयोग- वियोग से स्थूल पदार्थ का उत्पन्न होना ही उत्पति है। और जब वे पृथक्-पृथक् होकर उन द्रव्यों के वियोग से जो कारण में उनकी परमाणुरूप अवस्था होती है, उसको विनाश कहते हैं। और जो द्रव्य संयोग से स्थूल होते हैं, वे चक्षु आदि इन्द्रियों से देखने में आते हैं।
फिर उन स्थूल द्रव्यों के परमाणुओं का जब विनाश हो जाता है, तब सूक्ष्म के होने से वे द्रव्य दिखाई नहीं पड़ते, इसका नाम नाश है। क्योंकि अदर्शन को ही नाश कहते हैं। जो द्रव्य संयोग और वियोग से उत्पन्न और नष्ट होता है, उसी को कार्य और अनित्य कहते हैं और जो संयोग और वियोग से अलग है, उसकी न कभी उत्पत्ति और न कभी नाश होता है। ईश्वर में संयोग-वियोग नहीं होता, क्योंकि वह सदा अखंड एकरस ही बना रहता है। इसलिए ही उसको नित्य कहते हैं। तथा जिस वस्तु से संयोग-वियोग का आरम्भ होता है, वह वस्तु संयोग और वियोग से अलग होता है, क्योंकि वह संयोग और वियोग के आरंभ के नियमों का कर्त्ता और आदिकारण होता है, तथा आदिकारण के अभाव से संयोग और वियोग का होना ही असंभव है। सदा निर्विकार स्वरूप, अज, अनादि, नित्य, सत्यसामर्थ्य से युक्त और अनन्त विद्या वाला ईश्वर है, उसकी विद्या से वेदों के प्रकट होने और उसके ज्ञान में वेदों के सदैव वर्त्तमान रहने से वेदों को सत्यार्थयुक्त और नित्य होना ही सिद्ध होता है।