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हम हैरिस की जीत चाहें या ट्रंप की?

मतदान में लगभग दो महीने बाकी हैं, ओपिनियन पोल्स के आधार पर चुनाव के बारे में लगाए जा रहे अनुमानों का आधार बहुत मजबूत नहीं है। खासकर यह देखते हुए कि 2022 के बाद डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों के बीच एक बड़ी फूट पड़ी है। कई समूह अभी निर्णय करते नहीं है। अपने अलग गुट बनाए हैं। इस तरह उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी से समर्थन वापस लेने का एलान कर रखा है। पांच नवंबर को आने वाला चुनाव परिणाम काफी कुछ इससे तय होगा कि ये समूह अपनी वर्तमान भावना से प्रेरित बने रहते हैं या फिर ट्रंप को बड़ा खतरा मान कर अनिच्छा से डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट डालने की विवशता दिखाते हैं।

यह घटनाक्रम विचित्र है। जब से अमेरिका में 2024 का चुनाव-चक्र शुरू हुआ, जनमत सर्वेक्षणों में डॉनल्ड ट्रंप की बड़ी बढ़त बनी हुई थी। सीएनएन टीवी चैनल पर राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ उनकी बहस के बाद तो यह अंतर इतना बढ़ गया कि डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए उसे पाट पाना लगभग नामुमिकन दिखने लगा। इसे देखते हुए डेमोक्रेटिक पार्टी बीच राह में उम्मीदवार बदलने को मजबूर हुई। पार्टी ऐस्टैबलिशमेंट ने बाइडेन को मैदान से हटने के लिए विवश किया और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस को उम्मीदवार बनाया। उसके बाद जनमत सर्वेक्षणों और मीडिया कवरेज में चमत्कारिक बदलाव आया। अब चुनाव पूर्व अधिकांश सर्वेक्षणों में न सिर्फ हैरिस की बढ़त बनी हुई है, बल्कि यह बढ़ती ही जा रही है।

आखिर हैरिस की शख्सियत में इतना करिश्माई क्या है? उनके समर्थक प्रमुख रूप से इसके दो कारण बताते हैः

  • हैरिस महिला हैं। जिस चुनाव गर्भपात अधिकार को डेमोक्रेट्स ने एक प्रमुख मुद्दा बनाया है, उसके बीच उनका ‘प्रगतिशील’ महिला होना चुनावी लिहाज से फायदेमंद हुआ है।
  • हैरिस की पारिवारिक पृष्ठिभूमि मिश्रित है। वे भारतीय मूल की हिंदू हैं, जिनके पिता कैरिबिनयन मूल के मार्क्सवादी थे और जिन्होंने एक ईसाई से शादी की। इस तरह डेमोक्रेटिक पार्टी जिस सांस्कृतिक बहुलता की नुमाइंदगी का दावा करती है, उसका वे एक परफेक्ट चेहरा हैं।

मगर हैरिस के साथ कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं।

  • सबसे पहला पहलू तो यही है कि डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया- प्राइमरी- में उन्हें एक भी वोट हासिल नहीं हुआ। यानी उन्हें प्रत्याशी पार्टी के व्यापक ढांचे ने नहीं, बल्कि पार्टी नौकरशाहों और लॉबिस्ट्स ने चुना है।
  • 2020 के चुनाव के दौरान हैरिस ने अवश्य प्राइमरी में हिस्सा लिया था। लेकिन तब उनके समर्थन का स्तर इतना कम था कि जिन उम्मीदवारों ने सबसे पहले अपना दावा वापस लिया, उनमें एक हैरिस भी थीं। बाद में जो बाइडेन ने उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से संभावित सियासी लाभ की गणना करते हुए उन्हें अपना चुनावी साथी बनाया।
  • हैरिस के भाषण का अंदाज विकर्षक माना जाता है। उनका अपना कोई विशेष प्लैटफॉर्म (नीति एवं कार्यक्रम) नहीं है। इस रूप में वे ओबामा-बाइडेन प्रशासनों की एक कार्बन कॉपी हैं। बाइडेन की डिप्टी होने के कारण वर्तमान प्रशासन की नाकामियों का बोझ भी उन पर है।
  • उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि श्वेत और कंजरवेटिव बहुमत वाले राज्यों में डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए लाभ के बजाय नुकसान का सौदा साबित हो सकती है।

यानी पॉजिटिव्स (सकारात्मक पहलू) और निगेटव्स (नकारात्मक पहलू) समान रूप से मौजूद हैं। तो फिर अचानक यह मूड परिवर्तन का जादू कैसे हुआ? क्या सचमुच रॉबर्ट एफ। केनेडी (मशहूर केनेडी परिवार से संबंधित डेमोक्रेट नेता, जिन्होंने अब डॉनल्ड ट्रंप को समर्थन देने का एलान किया है) के इस दावे में दम है कि मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित करने के मकसद से ओपिनियन पोल करने वाली एजेंसियों और मेनस्ट्रीम मीडिया के जरिए डेमोक्रेटिक ऐस्टैबलिशमेंट हैरिस का कृत्रिम आभामंडल निर्मित किया है?

फिलहाल, इस बारे में कोई ठोस टिप्पणी करना संभव नहीं है। मगर आगे बढ़ने से पहले हाल के चुनावों के कुछ अनुभवों पर ध्यान दे लेना उचित होगाः

             2016, 2020 और 2022 में ओपिनियन पोल पूरी तरह या आंशिक रूप से गलत साबित हुए।

             2016 में एक भी सर्वे में ट्रंप की जीत का अनुमान नहीं लगाया गया था। जिस रोज मतगणना हो रही थी, न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने इलेक्शन मीटर में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की जीत की संभावना 93 प्रतिशत बता रखी थी। मगर मतगणना आगे बढ़ते ही कहानी बदल गई।

             बाद में सर्वे एजेंसियों ने स्वीकार किया कि उन्होंने क्लिंटन के समर्थन आधार का गलत आकलन किया। इसी तरह उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डॉनल्ड ट्रंप के समर्थन आधार को कम करके आंका।

             अमेरिका में राष्ट्रीय स्तर पर किसे कितने वोट मिले, उससे चुनाव नतीजे तय नहीं होते हैं। 2016 में क्लिंटन को ट्रंप से 27 लाख ज्यादा वोट मिले थे। मगर मुख्य मुकाबला वाले राज्यों (बैटलग्राउंड स्टेट्स) में ट्रंप जीते, जिससे इलेक्ट्रॉल कॉलेज में उन्हें बहुमत प्राप्त हो गया।

             2020 में फिर सर्वे एजेंसियों ने ट्रंप के समर्थन आधार को कम और बाइडेन के समर्थन आधार को बढ़ा कर आंका। मतदान से पहले सबसे आखिरी सर्वेक्षणों में बाइडेन के 7 से 10 फीसदी वोटों के अंतर से जीतने की भविष्यवाणी की गई। मगर बाइडेन सिर्फ 4.5 प्रतिशत मतों के अंतर से जीत सके।

             2022 के संसदीय चुनाव में कहानी उलटी रही। तब सर्वे रिपोर्टों में डेमोक्रेटिक पार्टी की बुरी हार होने का अनुमान लगाया गया। लेकिन असल नतीजा यह रहा कि सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपना बहुमत बरकरार रखने में सफल रही, हालांकि हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव उसके हाथ से निकल गया।

(Pollsters got it wrong in 2018, 2020, and 2022. Here’s why political polling is no more than statistical sophistry . Fortune)

इस अनुभव का संदेश यह है कि मौजूदा चुनाव में सारी संभावनाएं अभी खुली हुई हैँ। पांच नवंबर को होने वाले मतदान का नतीजा मोटे तैर पर सात बैटलग्राउंड स्टेट्स के रुझान से तय होगा। चुनाव कवरेज पर केंद्रित वेबसाइट realclearpolitic.com के मुताबिक इन राज्यों- अरिजोना, नेवाडा, विस्कोंसिन, मिशिगन, पेनसिल्वेनिया, नॉर्थ कैरोलीना और जॉर्जिया में फिलहाल ओपिनियन पोल्स के मुताबिक चार में हैरिस और तीन में ट्रंप आगे हैं।

मगर सवाल वही चुनाव-पूर्व जनमत सर्वेक्षणों के सटीक होने का है। वैसे तो ऐसे सर्वेक्षणों के अनुमान पहले भी कभी-कभार गलत साबित हो जाते थे, लेकिन पिछले लगभग डेढ़ दशक में ऐसा होने के मामले तेजी से बढ़ते चले गए हैं। और यह सिर्फ अमेरिका की बात नहीं है। अभी तीन महीने पहले हमने अपने देश में इन सर्वेक्षणों की धज्जियां उड़ते देखीं। ऐसा क्यों हो रहा है, इस बारे में सर्वे के कारोबार से जुड़े लोगों ने कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं दिया है।

फिर भी हम कुछ अनुमान लगा सकते हैं। 1990 के दशक में अपनाई गई आर्थिक नीतियों को सार्वजनिक बहस से दूर रखने के मकसद से विभिन्न देशों में सामाजिक- सांस्कृतिक मुद्दों पर ध्रुवीकरण को सुविचारित रूप से बढ़ावा दिया गया। विकसित देशों में 2007-08 की मंदी के बाद ऐसे ध्रुवीकरण के लिए वस्तुगत परिस्थितियां गहरी होती चली गईं। ऐसे में किसी भी चुनावी लोकतंत्र वाले देश में सियासी समीकरण पहले जैसे (20वीं सदी के उत्तरार्द्ध की तरह) नहीं रह गए हैं। संभवतः सर्वे एजेंसियां अभी तक नए समीकरणों और मतदाताओं के नए मूड को भांपने के तरीके नहीं ढूंढ पाई हैं।

अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप की परिघटना ऐसे ही ध्रुवीकरण का परिणाम है। ट्रंप ने नव-उदारवादी नीतियों के कारण अवसर गंवाने वाले समूहों तथा धार्मिक मान्यताओं एवं कंजरवेटिव उसूलों से प्रेरित जन समुदायों की व्यापक गोलबंदी करके अस्मिता की जवाबी राजनीति (counter identity politics) खड़ी की है। समाज में मौजूद आक्रोश और असंतोष को अपने पक्ष में संगठित करने में वे सफल रहे हैं। इस रूप में वे समाज में पारपंरिक राजनीति के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरे हैं। उनके समर्थकों में अक्सर एक तरह का जुनून देखा जाता है। इस जुनून की व्यापकता में कितने लोग समाहित हो चुके हैं, इसका अनुमान लगाना पारंपरिक कौशल के बाहर की चीज हो गई है। इसी तरह उनके विरोधी मतदाताओं में ध्रुवीकरण का स्तर किस रूप में और किस रफ्तार से बढ़ा है, इसका अंदाजा लगाना भी आसान नहीं है। ऐसे ध्रुवीकरण का परिणाम 2022 के संसदीय और राज्य स्तरीय चुनावों में देखने को मिला था, जब डेमोक्रेटिक पार्टी को अनुमान से अधिक कामयाबी मिली।

इसीलिए अभी जबकि मतदान में लगभग दो महीने बाकी हैं, ओपिनियन पोल्स के आधार पर चुनाव के बारे में लगाए जा रहे अनुमानों का आधार बहुत मजबूत नहीं है। खासकर यह देखते हुए कि 2022 के बाद डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों के बीच एक बड़ी फूट पड़ी है। फिलस्तीन के ग़जा में इजराइल के नरसंहार को बाइडेन-हैरिस प्रशासन ने अंध समर्थन दिया है। इससे नाराज लोग जो बाइडेन को आज जिनोसाइड बाइडन कह कर पुकारना ज्यादा पसंद करते हैं। युवा, अल्पसंख्यक, ब्लैक समुदाय आदि के लोगों में बाइडेन-हैरिस प्रशासन की नरसंहार समर्थक नीतियों से फैले आक्रोश का नज़ारा सड़कों पर, विश्वविद्यालय परिसरों आदि में खूब देखने को मिला है। ये समुदाय पारपंरिक रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक रहे हैं। इनमें से कई समूहों ने uncommitted नाम से अपने अलग गुट बनाए हैं। इस तरह उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी से समर्थन वापस लेने का एलान कर रखा है।

पांच नवंबर को आने वाला चुनाव परिणाम काफी कुछ इससे तय होगा कि ये समूह अपनी वर्तमान भावना से प्रेरित बने रहते हैं या फिर ट्रंप को बड़ा खतरा मान कर अनिच्छा से डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट डालने की विवशता दिखाते हैं।

हैरिस के लिए एक अन्य चिंताजनक पहलू महंगाई और बढ़ी ब्याज दरों से पिछले तीन साल में लोगों की बढ़ी आर्थिक मुसीबतें हैं। macro-economics के आंकड़ों से (जिनमें कई फर्जी साबित हुए हैं) से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के मजबूत होने की कहानियां फैला कर झूठा सुखबोध पैदा करने की बाइडेन-हैरिस प्रशासन की कोशिश निरंतर नाकाम होती गई है। मगर इससे असंतुष्ट लोगों के मामले में भी सवाल वही है कि क्या वे सत्ताधारी पार्टी को वोट ना देकर अपना गुस्सा निकालते हैं या फिर ट्रंप का खतरा उन्हें ऐसा करने से रोक देता है।

ये सारा विमर्श अमेरिका के लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण है। यह अमेरिकी खेमे में शामिल देशों के लोगों के लिए भी अहम है। मुमकिन है कि ग्लोबल साउथ के शासकवर्गीय लिबरल और कंजरवेटिव समूहों को भी यह अहम मालूम पड़े। इसलिए कि पश्चिमी प्रचार तंत्र के प्रभाव में जीने वाले उनमें से बहुत से लोग- जो चुनावी लोकतंत्र को आदर्श मानते हैं- उन्हें हैरिस लिबरल-प्रोग्रेसिव और ट्रंप कंजरवेटिव-प्रतिक्रियावादी नजर आते हो सकते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि अमेरिका के सत्ता तंत्र में ऐसा जो भी बंटवारा नज़र आता है, सुविचारित ढंग से तैयार किया गया एक भ्रमजाल है। कम-से-कम आज के दौर में तो यह बात सोलह आने सच है।

इसलिए वैसे तो रह जगह के, लेकिन कम-से-कम ग्लोबल साउथ के मेहनतकश तबकों और आम लोगों को अमेरिकी चुनाव को देखने के लिए अलग पैमाना अपनाने का जरूरत है। किसी खेल की तरह चुनावों में भी एक तरह का रोमांच मौजूद रहता है। चुनावी गणनाओं में अक्सर आम इनसान की दिलचस्पी बन जाती है। इस रूप में अमेरिकी चुनाव में भी दिलचस्पी स्वाभाविक है। लेकिन जहां तक महत्त्व की बात है, तो बाकी दुनिया के आम जन के लिए यह सवाल ज्यादा अहम है कि क्या ट्रंप या हैरिस से किसी के जीतने या हारने से उनके हितों को कोई फर्क पड़ेगा?

इस प्रश्न पर विचार करते हुए इन पहलुओं को अवश्य ध्यान में रखना चाहिएः

–              अमेरिका में दोनों प्रमुख दलों पर neo-cons (neo-conservative) का पूरा नियंत्रण है। इसलिए सत्ता में चाहे कोई पार्टी आए, नीतियां इस सोच से प्रेरित लोग ही तय करते हैं। इस सोच का प्राथमिक और घोषित मकसद दुनिया पर अमेरिका के समग्र वर्चस्व को बनाए रखना और उठ रही हर चुनौती को कुचल देना है। (Defense Planning: Guidance FY 1994-1999 April 16, 1992 (archives।gov))

–              इस सोच के तहत दोनों दलों की सरकारों ने पिछले तीन दशक में अनेक देशों पर सैनिक हमले किए हैं। यूगोस्लाविया, अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया आदि इस बात की चंद मिसालें भर हैं।

–              neo-cons अमेरिका की कुख्यात मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स के हितों के अनुरूप घरेलू और विदेशी नीतियों को ढालते हैं।

–              दोनों दलों के नेतृत्व पर वित्तीय हितों का पूरा नियंत्रण है, जिनके चंदों पर इन पार्टियों की संभावनाएं टिकी होती हैं।

–              इस वक्त दुनिया में दो युद्ध चल रहे हैं और तीसरे की पृष्ठभूमि बनाई जा रही है। इन तीनों घटनाक्रमों में अमेरिका की लगभग प्रत्यक्ष भागीदारी है।

–              यूक्रेन और ग़जा में जारी युद्धों और एशिया-प्रशांत में बढ़ रहे तनाव के लिए बाइडेन-हैरिस प्रशासन को सीधे जिम्मेदार ठहराने का ठोस आधार मौजूद है।

–              युद्ध के जरिए अमेरिकी वर्चस्व को कायम रखने की रणनीति के बीच हैरिस और ट्रंप में एक मोटा फर्क जरूर है। रिपब्लिकन ऐस्टैबलिशमेंट का एक हिस्सा- जिसमें ट्रंप शामिल हैं- मानता है कि अमेरिका का हित रूस को साथ लेकर चीन को कमजोर करने में है। इसलिए ट्रंप यूक्रेन युद्ध की तुरंत समाप्ति चाहते हैं। जबकि बाइडेन-हैरिस प्रशासन ने एक साथ दोनों के खिलाफ मोर्चे खोल रखे हैं।

–              अमेरिका के आर्थिक एवं वित्तीय हितों के मुताबिक विश्व अर्थव्यवस्था का स्वरूप बनाए रखने के सवाल पर दोनों पक्षों के बीच कोई मतभेद नहीं है।

जैसे-जैसे दुनिया पर अमेरिकी वर्चस्व घटा है, दोनों पार्टियों की नीतियां अधिक आक्रामक हो गई हैं। इसलिए वैश्विक मेहनतकश आवाम के लिए हैरिस या ट्रंप की बहस में पड़ना निरर्थक है। लिबरल और कंजरवेटिव की बहस या इनके बीच दिखने वाला विभाजन दरअसल, सत्ता हासिल करने की रणनीतियां भर हैं। सत्ता में आने के बाद दोनों दलों का मकसद समान रहता है। तो भला हम हैरिस बनाम ट्रंप की बहस में क्यों पड़ें?

By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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