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संसार का कोतवाल बन गए दोस्त के नव-युग में

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इस साल 4 जून के बाद बेतरह लड़खड़ा गई नरेंद्र भाई की देहभाषा को 8 अक्टूबर को थोड़ा सहारा मिल गया था। मगर अब अमेरिका में ट्रंप की जीत के बाद वे फिर एकदम अपने पूरे शबाब पर आ गए हैं। उन से भी ज़्यादा फूले-फूले वे हिंदुत्ववादी घूम रहे हैं, जिन्हें लग रहा है कि अब तो सैंया संसार के कोतवाल हो गए है तो डर काहे का? अब महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में वे अपने पुराने से भी ज़्यादा मारक-घातक अंदाज़ में अवतरित हो गए हैं।

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी भले ही दावा कर रहे हैं कि जब हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने डॉनल्ड ट्रंप की जीत के बाद पुलकित हो कर उन्हें बधाई देने को फ़ोन किया तो ट्रंप से उन की बात नहीं हो पाई। फ़ोन उठाने वाले ने कह दिया कि वे नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को बता देंगे कि मुबारक़बाद देने के लिए आप का फ़ोन आया था। स्वामी का यह भी कहना है कि ट्रंप को मिले बधाई संदेशों के बारे में उन के दफ़तर की तरफ़ से जारी सूची में भारत के प्रधानमंत्री का नाम नहीं है। लेकिन मुझे स्वामी का यह दावा सही कम, उन के बड़बोले व्यक्तित्व का हिस्सा ज़्यादा लगता है।

इसलिए मैं स्वामी के बजाय नरेंद्र भाई की, 6 नवंबर की रात 10 बज कर 28 मिनट पर, देशवासियों को बताई इस बात पर अटूट विश्वास कर रहा हूं कि ‘‘मेरी अपने दोस्त राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से बहुत ही अच्छी बातचीत हुई। मैं ने उन्हें उन की शानदार जीत पर बधाई दी और कहा कि मैं आप के साथ एक बार फिर तकनालॉजी, रक्षा, ऊर्जा, अंतरिक्ष और बहुत-से अन्य क्षेत्रों में भारत-अमेरिकी संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए हिल-मिल कर काम करने की प्रतीक्षा कर रहा हूं।’’ मैं यह मान ही नहीं सकता कि अपने जिस दोस्त के लिए जुलाई 2020 में नरेंद्र भाई ‘अब की बार, ट्रंप सरकार’ का नारा लगाने अमेरिका गए थे, वह नरेंद्र भाई का फ़ोन जाए और उन से बात न करे। ट्रंप कितने ही उद्दंड हों, वे इतने अशिष्ट हो ही नहीं सकते – ख़ासकर नरेंद्र मोदी के साथ।

इस साल 4 जून के बाद बेतरह लड़खड़ा गई नरेंद्र भाई की देहभाषा को 8 अक्टूबर को थोड़ा सहारा मिल गया था। मगर अब अमेरिका में ट्रंप की जीत के बाद वे फिर एकदम अपने पूरे शबाब पर आ गए हैं। उन से भी ज़्यादा फूले-फूले वे हिंदुत्ववादी घूम रहे हैं, जिन्हें लग रहा है कि अब तो सैंया संसार के कोतवाल हो गए है तो डर काहे का? हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों के प्रचार में नरेंद्र भाई मेहंदी लगे पैरों से फूंक-फूंक कर डग भरते दिखाई दे रहे थे। मगर अब महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में वे अपने पुराने से भी ज़्यादा मारक-घातक अंदाज़ में अवतरित हो गए हैं। मैं ने महाराष्ट्र की कुछ चुनावी-सभाओं में उन्हें बोलते सुना। वे शब्दों की ऐसी लाठी भांज रहे हैं, जो तथ्यों को भले ही सरेआम ठेंगा दिखा रही हो, मगर हवा में जिस की सांय-सांय काफी तेज़ सुनाई दे रही है।

नरेंद्र भाई को मालूम है कि महाराष्ट्र के आदिवासी उन के साथ नहीं हैं। राज्य में आदिवासियों के लिए आरक्षित चारों लोकसभा सीटें 2019 में भारतीय जनता पार्टी ने जीती थीं। लेकिन 2024 में उन में से एक ही भाजपा जीत पाई। इसलिए अपनी चुनावी सभाओं में वे ज़ोरशोर से बता रहे हैं कि आदिवासियों के लिए केंद्र की सरकार ने कितने काम किए हैं। मगर इस के फ़ौरन बाद नरेंद्र भाई अपने पसंदीदा विषय पर छलांग लगा देते हैं और राष्ट्रपति के चुनाव में आदिवासी प्रत्याशी द्रोपदी मुर्मू को हराने के लिए कांग्रेस की भूमिका का अनाप-शनाप जिक्र करने लगते हैं। वे कहते हैं कि कांग्रेस ने आदिवासियों के लिए कभी कुछ नहीं किया और कांग्रेस तो आदिवासियों को आगे बढ़ते देख ही नहीं सकती। अब जिन्हें यह मानना हो, मान लें कि भारत में आदिवासी कल्याण के सभी कार्यक्रम मई-2014 के बाद ही शुरू हुए हैं।

नरेंद्र भाई को यह भी मालूम है कि दलित वोट देश भर में भाजपा से खिसक रहा है। इसलिए अपनी ताज़ा जनसभाओं में वे दूसरा काम कर रहे हैं लोगों के दिमाग़ों में यह बात बैठाने का कि जवाहरलाल नेहरू ने बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर को चुनाव हराने के लिए पूरी ताक़त लगा दी थी। वे कहते हैं कि नेहरू तो दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण नहीं देने पर अड़े हुए थे। बाबा साहब ने बड़ी मुष्किल से आरक्षण दिलाया। जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने भी आरक्षण के खिलाफ यही रवैया जारी रखा। अब इतिहास भले ही इन सारी बातों की उलट-ग़वाही देता हो, चुनाव हैं तो नरेंद्र भाई की तोड़-मरोड़ को कोई क्या खा कर रोक सकता है? निर्वाचन आयोग तो नरेंद्र भाई के कुतर्कों की बौछारों से पिछले कई वर्षों में इतना भीग चुका है कि उस ने भीगी बिल्ली मुद्रा अख़्तियार कर ली है।

अब ज़रा संजीदगी से सोचिए कि धुले की जनसभा में कही नरेंद्र भाई की बातों से चुनावों की आदर्श आचार संहिता की धज्जियां बिखरती हैं या नहीं? उन्होंने कहा कि देवेंद्र फड़नवीस ने मुझ से कहा कि आप हमारे लिए विकास के इतने काम कर रहे हैं, हज़ारों करोड़ रुपए आप विकास कार्यों पर खर्च कर रहे हैं तो हमारे इलाक़े में एक विमानतल भी बनवा दीजिए। तब तो मैं फड़नवीस की बात पर चुप रहा, मगर अब आप के सामने कह रहा हूं कि जैसे ही आचार संहिता खत्म हो जाएगी, जैसे ही महायुति की सरकार बन जाएगी, मैं फड़नवीस की इच्छा कैसे पूरी हो, उस पर बैठ कर बात करूंगा। आचार संहिता लगी होने के दरमियान नरेंद्र भाई का यह खुल्लमखुल्ला ऐलान निर्वाचन आयोग को चुनौती है या नहीं?

नरेंद्र भाई ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का अपना रौद्र-सपना पूरा करने के लिए एक दशक से आर-पार की लड़ाई लड़ रहे हैं। सो, महाराष्ट्र और झारखंड की चुनावी सभाओं में वे बार-बार दुहरा रहे हैं कि महात्मा गांधी तो ख़ुद ही कांग्रेस को ख़त्म करना चाहते थे। कांग्रेस तो हमेषा देष को तोड़ने वाले षड्यंत्रों का हिस्सा रही है। आज़ादी के बाद से कश्मीर में भी कांग्रेस ने गड़बड़ की। बाबा साहेब का बनाया संविधान वहां कांग्रेस ने 70 साल तक लागू नहीं होने दिया। नरेंद्र भाई अपने भाषणों में लोगों को आग़ाह कर रहे हैं कि कश्मीर में साजिषें फिर षुरू हो गई हैं। कांग्रेस गठबंधन ने वहां धारा 370 फिर लागू करने का प्रस्ताव विधानसभा में पारित किया है। वे कहते हैं कि कांग्रेस और उसके साथियों की घिनौनी सच्चाई आप को समझनी होगी। ये संविधान हटाने का प्रस्ताव पारित करते हैं। मैं बाबा साहेब का संविधान कश्मीर ले गया और ये कोरे कागज वाली संविधान की किताब ले कर घूम रहे हैं।

ख़ुद की पीठ ख़ुद ही ठोकने का कर्मकांड संपन्न करने के बाद नरेंद्र भाई मतदाताओं को बताते हैं कि झूठ फैलाना, ग़ुमराह करना और नफ़रत फैलाना ही कांग्रेस का काम है। वे महाविकास अघाड़ी के सभी राजनीतिक दलों को पाकिस्तान के इशारे पर काम करने वाला बताने में भी कोई कोताही नही बरतते हैं और चेतावनी देते हैं कि अघाड़ी पाकिस्तान के एजेंडा को देष में बढ़ावा देने की कोषिष न करे। वे विपक्ष के राजनीतिक दलों को ख़बरदार करते हैं कि कष्मीर को ले कर अलगाववादियों की भाशा मत बोलो। भारत के प्रधानमंत्री भारत के प्रतिपक्षी दलों को पाकिस्तान और अलगाववादियों से नत्थी कर रहे हैं और उन्हें इतनी विषैली बातें करते देख की भी जिन के रोंगटे खड़े नहीं होते, हम-आप उन्हें नमन करने के अलावा और क्या करें? जब हमारी तमाम संवैधानिक संस्थाएं ही इन कारस्तानियों की तरफ़ नज़र डालने की हिम्मत नहीं कर पाती हैं तो आप-हम सरीखी गाजर-मूलियों की तो बिसात ही क्या!

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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