अमेरिका के चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की लैंडस्लाइड जीत से भारत सहित दुनिया भर के लिबरल समुदाय सदमे में हैं। राजनीति को देखने का उनका जो नजरिया है, उसे ध्यान में रखें, तो इसे स्वाभाविक प्रतिक्रिया कहा जाएगा। इस समुदाय की एक विशेषता यह भी है कि वह कभी अपना आत्म-निरीक्षण नहीं करता। इसलिए आज तक इसे समझने की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई कि “धुर-दक्षिणपंथी”, “फासीवादी” या “नफरती” राजनीति लगभग हर चुनावी लोकतंत्र में आज क्यों कामयाब हो रही है?
वैसे, अमेरिका के चुनाव नतीजों को बारीकी से समझने की कोशिश की जाए, तो प्रश्न का उत्तर एक हद तक मिल सकता है। कुछ आंकड़ों पर गौर करेः
2020 के चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप को तकरीबन सात करोड़ 42 लाख वोट मिले थे।
कुछ अमेरिकी राज्यों में वोटों की गिनती अभी पूरी नहीं हुई है, लेकिन इस बार ट्रंप शायद ही उस आंकड़े को पार कर पाएं, इसकी संभावना कम ही है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उन्हें सात करोड़ 33 लाख से कुछ ज्यादा वोट मिले हैं।
2020 में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन को आठ करोड़ 12 लाख से अधिक वोट मिले थे।
इस बार कमला हैरिस को अभी तक छह करोड़ 90 लाख वोट मिले हैं। इस रूप में वे तब की तुलना में कम से कम एक करोड़ वोट पीछे रह जाएंगी।
जाहिर है, चार साल में डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट देने वाले मतदाताओं की संख्या में लगभग बहुत बड़ी गिरावट आई है। ट्रंप के पक्ष में जो लैंडस्लाइड हुई, उसकी असल वजह यही है। इस गिरावट का परिणाम हुआ कि सभी सात बैटल ग्राउंड राज्यों में उनकी जीत हो गई। साथ ही कांग्रेस (संसद) के दोनों सदनों में उनकी रिपब्लिकन पार्टी जीत गई। सीनेट में उसे बहुमत मिल चुका है, जबकि हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में वह इस दिशा में बढ़ रही है।
ऐसा क्यों हुआ?
कोई पार्टी अपने समर्थकों को अपने साथ ना रख पाए या अपने पक्ष में मतदान के लिए उत्साहित ना कर पाए, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?
समाचार एजेंसी एसोसिएटेड प्रेस मतगणना के दौरान लाइव वेबकास्ट (ऑनलाइन प्रसारण) कर रही थी। उसमें कई ऐसे मतदाता शामिल हुए, जिन्होंने इस बार अपना पक्ष बदल लिया। उनमें से एक ने यह महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की- “मैं अपने जीवन भर डेमोक्रेट रहा हूं। लेकिन उसमें अब मुझे कोई फायदा नज़र नहीं आता। डेमोक्रेट सारा धन युद्ध और आव्रजकों पर खर्च कर रहे हैं। वे संघर्षरत अमेरिकियों की मदद नहीं कर रहे हैं। मुझे यकीन है कि ट्रंप हमें अपनी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखेंगे।”
अब कुछ और तथ्यों पर गौर करेः
– थिंक टैंक एडिसन रिसर्च ने एग्जिट पोल से हासिल आंकडों का अध्ययन किया। जिन 15 को इन सर्वेक्षणों में शामिल किया गया, उनमें सिर्फ दो समूह ऐसे रहे, जिनमें डेमोक्रेट्स के वोट बढ़े हैं। ये समूह हैः 65 वर्ष से अधिक उम्र वर्ग के श्वेत पुरुष और कॉलेज तक पढ़ाई कर चुकीं श्वेत महिलाएं।
– ब्लैक, एशियाई, हिस्पैनिक (लैटिनो), कॉलेज तक ना पहुंचीं श्वेत महिलाओं सहित 13 समूहों में डेमोक्रेट्स के वोट घटे, जबकि रिपब्लिकन्स के बढ़े। यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि पहले ये सभी समूह डेमोक्रेटिक पार्टी के खास वोटर होते थे।
– लैटिनो वोटर्स में 54 प्रतिशत मतदाताओं ने ट्रंप को 44 प्रतिशत ने हैरिस को वोट दिया।(https://www।ft.com/content/392e1e79-a8c1-4473-ab51-3267c415b078)
– आय वर्ग के हिसाब से वोटरों की प्राथमिकता देखें, तो आंख और खुल सकती है। जो समूह जितनी कम आय का है, उसमें 2020 की तुलना में ट्रंप के लिए समर्थन बढ़ा है। जबकि हैरिस के मामले में उलटा हुआ।
– एक लाख डॉलर से अधिक के सालाना आय वाले वर्ग में 2020 में ट्रंप को 54 और जो बाइडेन को 52 फीसदी वोट मिले थे।
– 2024 में इस वर्ग हैरिस को 54 और ट्रंप को 45 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन मिला।
– 50 हजार डॉलर से कम आमदनी वाले तबकों के बीच 2020 में डेमोक्रेट्स को 55 और ट्रंप को 45 प्रतिशत वोट मिले थे।
– 2024 में इस आय वर्ग में ट्रंप को 49 और हैरिस हैरिस को 48 फीसदी मतदाताओं ने वोट दिए।
(https://x।com/JStein_WaPo/status/1854168624119877887?t=SS2U8a-aHj-LTipGD9pgTw&s=03)
क्या यह सवाल अहम नहीं है कि कम आय वर्ग के संघर्ष मेहनतकश तबकों और अल्पसंख्यक समुदायों के बड़े हिस्सों ने क्यों डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन छोड़ दिया?
इस क्यों का जवाब ढूंढना कठिन नहीं है। बर्नी सैंडर्स 2016 में अचानक एक उल्के की तरह उगे। रैडिकल लेफ्ट रुख अपनाते हुए एक वे परिघटना बन गए। 2020 तक अमेरिकी राजनीति में वे एक धुरी नजर आते थे, जिस तरह धुर दक्षिणपंथी धुरी की कमान ट्रंप के हाथ में चली गई थी। मगर बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपने समर्थकों को निराश किया। उनके बारे में धारणा बनी कि वे समझौतावादी हो गए हैं। उन्होंने बाइडेन प्रशासन के हर उस काम का समर्थन किया, जिससे डेमोक्रेटिक पार्टी लोगों के दूर होती गई। अब पार्टी की बुरी हार के बाद उन्होंने रैडिकल चोला फिर पहनने की कोशिश की है। उन्होंने एक बयान में कहा है,
“इसमें किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि डेमोक्रेटिक पार्टी, जिसने श्रमिक वर्ग को त्याग दिया था, उसने अब पाया है कि श्रमिक वर्ग ने उसे छोड़ दिया है। पहले उसे श्वेत श्रमिक वर्ग ने छोड़ा, अब लैटिनो और ब्लैक श्रमिकों ने भी उसे त्याग दिया है। डेमोक्रेटिक पार्टी यथास्थिति के पक्ष में खड़ी है, जिससे अमेरिकी आवाम गुस्से में है और बदलाव चाहता है। लोगों का यह रुख सही है।”
(https://x।com/JStein_WaPo/status/1854168624119877887?t=SS2U8a-aHj-LTipGD9pgTw&s=03)
क्लाउडिया डी ला क्रुज अमेरिका में युवा सोशलिस्ट नेता के रूप में उभरी हैं। इस चुनाव में वे सोशलिस्ट पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार भी थीं। नतीजे आने के बाद उन्होंने कहा-
“इस परिणाम ने दिखाया है कि डेमोक्रेट्स किस तरह लोगों के पक्ष में संघर्ष करने और उनकी रक्षा करने में विफल रहे।…. अगर हार के लिए ये पार्टी किसी को जिम्मेदार ठहरना चाहती है, तो उसे आर्थिक और राजनीतिक सत्ता केंद्रों पर दोष डालना चाहिए। मगर डेमोक्रेटिक पार्टी ने कुछ नहीं किया। वे मानव संहार को वित्तीय एवं अन्य मदद देने में सक्रिय हैं, उनके शासनकाल में गर्भपात एवं एलजीबीटीक्यू के अधिकार वापस लिए गए हैं, पार्टी ने खुद को ट्रंप से भी ज्यादा ट्रंप दिखाने का चुनाव अभियान चलाया, ताकि कंजरवेटिव समूहों के वोट हासिल कर सके। लेकिन ये पार्टी अपनी जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करेगी, अपना दोष दूसरों पर डालती रहेगी।”
मशहूर अर्थशास्त्री इसाबेला एम वेबर ने इस चुनाव में हैरिस को समर्थन दिया था। जाहिर है, ट्रंप को रोकने की सोच के तहत उन्होंने ये फैसला लिया। मगर अब उन्होंने कहा है-
“लोकतंत्र की रक्षा सिर्फ लोकतंत्र बचाने की बात करते हुए नहीं की जा सकती। इसके लिए यह स्पष्ट करना होगा कि बहुसंख्यक जन समुदाय की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए आपकी नीतियां क्या हैं। इसके लिए विनाशकारी स्थितियों में रिकॉर्ड मुनाफा कमाने से कॉरपोरेट्स को रोकना होगा।”
फ्रांस के रैडिकल लेफ्ट नेता ज्यां लुक मेलेन्शॉ ने कहा है-
“अमेरिका लेफ्ट का चुनाव नहीं कर सका, इसलिए कि वहां ये विकल्प था ही नहीं। जहां लेफ्ट नहीं है, वहां दक्षिणपंथ की कोई सीमा नहीं है। जब किसी कार्यक्रम के आधार पर लड़ाई नहीं है, तो फिर चुनाव सिर्फ वोट डालने की क्रिया बन कर रह जाते हैं। ट्रंप की जीत इस स्थिति का ऐसा परिणाम है, जिसे रोका नहीं जा सकता था।”
यहां यह याद कर लेना चाहिए कि इसी वर्ष यूरोपीय संसद के चुनाव फ्रांस में जब धुर दक्षिणपंथ की बड़ी जीत हुई। उसके बाद राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने देश में मध्यावधि संसदीय चुनाव का एलान कर दिया, तो संसदीय चुनावों के दौरान मेलेन्शॉ के नेतृत्व जल्दबादी में बने रैडिकल वामपंथी मोर्चे ने धुर दक्षिणपंथ को चुनौती दी। सारी दुनिया को आश्चर्य में डालते हुए यह मोर्चा संसद में सबसे बड़ा समूह बन कर उभरा। मोर्चे ने आम लोगों की जिंदगी बेहतर करने का ठोस प्रोग्राम पेश किया, जिसने श्रमिक वर्ग में नया जोश एवं आकर्षण पैदा किया।
इसाबेला एम वेबर ने एक अन्य टिप्पणी में कहा है-
“एक बड़ा सबक यह मिला है कि जब अर्थशास्त्री आपको बताएं कि अर्थव्यवस्था शानदार अवस्था में है, लेकिन लोग कह रहे हों कि उनके अनुभव में मौजूदा अर्थनीतियां कारगर नहीं हैं, तो लोगों की बात सुननी होगी। डेमोक्रेट्स ने ऐसा नहीं किया, बल्कि वे यह कहते रहे कि लोग समझ नहीं पा रहे हैं।”
इस संदर्भ में वेबर ने एक महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया है। उन्होंने पूछा है-
“अंततः क्या अब हम एक फासीवाद विरोधी अर्थशास्त्र के बारे में गंभीर विचार-विमर्श करने को तैयार हैं?”
यह मूलभूत प्रश्न है। धुर दक्षिणपंथी का उदय चुनावी लोकतंत्र वाले तमाम देशों की परिघटना है। इसकी वजह वही है, जो सैंडर्स, क्लाउडिया डी ला क्रुज और मेलेन्शॉ ने ऊपर बताया है। इसका समाधान वह है, जिसका एक प्रयोग फ्रांस में मेलेन्शॉ के नेतृत्व में किया गया और फिलहाल जर्मनी में सारा वागेनक्नेष्ट के नेतृत्व वाला गठबंधन कर रहा है। मगर इस प्रयोग के लिए एक स्पष्ट अर्थशास्त्र की जरूरत है, जिसमें विकास एवं प्रगति की योजनाएं हों और उनके केंद्र में आम मेहनतकश आवाम हो।
यह कोई नई बात हो- ऐसा नहीं है। 20वीं सदी का इतिहास श्रमिक वर्ग को केंद्र में रख कर किए गए प्रयोगों से भरा पड़ा है। उत्पादन एवं वितरण की प्रक्रिया में श्रमिक वर्ग को कैसे उसका उचित हिस्सा मिले, इसके लिए समग्र अर्थशास्त्र का उद्भव और विकास 19वीं सदी के मध्य से शुरू हो चुका था। तब और 20वीं सदी में उसके प्रयोग किए गए। लेकिन उसी सदी के आखिरी दशक की घटनाओं के बीच शासक वर्गों को इन सारे प्रयोगों के अनुभव और अर्थशास्त्र को बदनाम करने और उन्हें पृष्ठभूमि में डालने का मौका मिल गया। लेकिन अब इतिहास फिर पलट रहा है।
जिन मध्यमार्गी आर्थिक नीतियों और राजनीति को आड़ बना कर उपरोक्त प्रयोगों पर धुंध डालने के प्रयास हुए, उसे खुद शासक वर्ग हाशिये पर धकेलते चले गए हैं। इस प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए उन्होंने पहचान आधारित नफरती सियासत को औजार बनाया है। मगर ऐसी राजनीति का दीर्घकालिक भविष्य नहीं होता। 20वीं सदी का ही इतिहास इस बात का गवाह है कि जिन जन समूहों को दिग्भ्रमित कर यह सियासत आगे बढ़ती है, जब उन तबकों के सामने पेट के सवाल संगीन हो जाते हैं, तब वे इससे आगे निकलने का रास्ता ढूंढते हैं। तब जरूरत होती है नया रास्ता दिखाने वाली राजनीति की।
यह परिघटना शुरू होने के संकेत यूरोप और एक हद तक अमेरिका में मिलने शुरू हो चुके हैं। खुद भारत में इस वर्ष लोकसभा चुनाव में जिस तरह हिंदुत्व की राजनीति की सीमा जाहिर हुई, उसमें भी इस प्रक्रिया के संकेत ढूंढे जा सकते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि भारत में इस प्रक्रिया को समझने की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई। ऐसी कोशिश हो, तो यह जाहिर होगा कि मध्यमार्ग का अब कोई भविष्य नहीं है। गौरतलब है कि हाल के दशकों में भारत में मध्यमार्ग पहचान की राजनीति के सहारे टिका रहा है, परंतु इस सियासत की सीमाएं स्पष्ट हो रही हैं।
अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी ने जिस तरह अपनी हार को आमंत्रित किया, उससे भी यह स्पष्ट हुआ है कि मध्यमार्गी दल कभी कुछ वादे कर वोट आधार बढ़ा भी लेते भी हैं, तो उन मतदाताओं को अपने साथ बनाए रखना उनके वश में नहीं रह जाता। ऐसे में मध्यमार्गी दलों की हार पर शोक मनाना व्यर्थ है। अमेरिका के चुनाव नतीजों से कोई नई परिस्थिति नहीं बनी है। बल्कि जो परिस्थितियां हैं, वो ही तार्किक दिशा में आगे बढ़ी हैं।
तो अमेरिकी चुनाव का सार्थक सबक यह है कि मौजूदा राजनीति की जगह लेने वाले विकल्प पर अब शिद्दत से काम किया जाए। आखिर अब आगे मुकाबला धुर दक्षिणपंथ और उस नई, वैकल्पिक राजनीति के बीच ही होगा। दीर्घकालिक भविष्य उसी सियासत का है, क्योंकि धुर दक्षिणपंथ के पास आम जन के रोजी-रोटी के सवालों का कोई उत्तर नहीं है।