चित्रकूट के अस्सी घाट पर उन्होंने 1580 ईस्वी में महाकाव्य रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया। इस ग्रंथ को उन्होंने 2 वर्ष 7 महीने और 26 दिन में पूर्ण किया। मान्यता है कि रामचरित मानस को लिखने में उनको श्रीराम भक्त हनुमान का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था। तुलसीदास ने अपनी कई रचनाओं में भी इस बात का उल्लेख किया है कि उनको हनुमान से मुलाकात कई बार हुई है। उन्होने वाराणसी में तुलसीदास ने हनुमान के लिए संकटमोचन मंदिर भी स्थापित किया था।
11 अगस्त – तुलसीदास जयंती
-अशोक “प्रवृद्ध”
उत्तरप्रदेश के चित्रकूट के राजापुर (राजपुर) गांव में पं० आत्माराम शुक्ल (दुबे) एवं हुलसी दम्पति के घर में विक्रम संवत1568 अथवा 1554 में श्रावण शुक्ल सप्तमी तिथि के दिन गर्भवती माता हुलसी के गर्भ अर्थात कोख में गर्भस्थ शिशु के नौ महीने के स्थान पर बारह महीने तक रहने के बाद एक ऐसे विशाल व अत्यधिक हृष्ट- पुष्ट शिशु का जन्म हुआ, जिसके मुख में जन्म से ही बत्तीस दांत दिखाई दे रहे थे। और जन्म के समय ही वह पांच वर्ष के बच्चे के समान दिखाई देता था। जन्म लेने के साथ ही क्रंदन करने के स्थान पर मुख से अद्भुत रूप से सर्वप्रथम राम नाम का उच्चारण किए जाने के कारण उस शिशु का नाम रामबोला रख दिया गया।
जन्म के समय को ज्योतिषियों के द्वारा अशुभ मुहूर्त घोषित कर दिए जाने वाले इस शिशु रामबोला के जन्म के दूसरे ही दिन माता हुलसी का निधन हो जाने पर पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिए बालक को चुनियां नामक एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गए। मान्यता के अनुसार रामबोला के जन्म के चौथे दिन ही पिता की भी मृत्यु हो गई। अपने माता- पिता के निधन के बाद शिशु रामबोला एकाकीपन के दुःख भरे जीवन को जीने लगा। रामबोला के साढे पांच वर्ष के होने पर रामबोला का पालन- पोषण करने वाली दासी चुनियां भी नहीं रही। रामबोला गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन व्यतीत करने को विवश हो गया।
तब देवी पार्वती ने एक ब्राह्मण का रुप धारण कर रामबोला की परवरिश की और भगवान शंकर की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी अर्थात नरहरि बाबा ने इस बालक रामबोला को ढूंढ निकाला और अपने अयोध्या आश्रम में रहने का आश्रय देकर विधिवत उस बालक का नाम तुलसीराम रखा। ज्योतिषियों के द्वारा अशुभ मुहूर्त घोषित अवधि में जन्म लेने वाला रामबोला से तुलसीदास बना यह बालक बचपन से ही तीक्ष्ण व कुशाग्र बुद्धि वाला साबित हुआ। वह जो भी एक बार पढ़ लेता था, वह उसको कंठस्थ हो जाता था। संस्कार के समय ही तुलसीदास ने बिना कंठस्थ किए गायत्री मंत्र का स्पष्ट उच्चारण कर दिया, जिसे देखकर वहां के सभी लोग अचंभित हो गए। वाराणसी में कुछ समय में ही तुलसीदास ने संस्कृत व्याकरण सहित चारों वेद, छह वेदांग का सम्पूर्ण अध्ययन किया। हिन्दी साहित्य और दर्शन शास्त्र का अध्ययन इन्होंने साहित्य व शास्त्रों के विद्वान प्रसिद्ध गुरू शेष सनातन से किया।
इन्होंने सोलह- सत्रह वर्षों तक अपनी शिक्षा प्राप्ति का क्रम जारी रखा, तत्पश्चात वापस राजापुर लौट गए। और भगवद्भक्ति को प्रेरित करने वाली कथाओं के प्रवचन कार्य में लग गए। प्रबचनों में अपने प्राप्त ज्ञान को दोहों, छंदों, कविता व कथाओं के माध्यम से लोगों को श्रवण कराते थे, और भक्ति करने के लिए प्रेरित किया करते थे। उनके दोहे व कथाएं लोगों को अत्यंत प्रभावित किया करते थे। इसलिए लोगों की भीड़ उनकी प्रवचन को सुनने के लिए उमड़ पड़ती थी। एक बार उनकी दोहे व कथाओं को सुनकर वहाँ पर उपस्थित पंडित दीन बंधु पाठक उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावली का विवाह ही तुलसीदास से करवा दिया। रत्नावली से उनका विवाह 29 वर्ष की आयु में राजापुर के निकट अवस्थित युमना नदी के किनारे हुआ। लेकिन विवाह के पश्चात होने वाली गौना का रस्म उस समय सम्पन्न नहीं हुआ था। जिसके कारण रत्नावली अपने पिता के घर ही रह रही थी।
गौना नहीं होने के कारण तुलसीदास काशी जाकर वेद -वेदांग के अध्ययन में लग गए। एक दिन वेद -वेदांग का अध्ययन करते समय अचानक उनको अपनी पत्नी रत्नावली की याद आने लगी, तो अपने गुरू से आज्ञा से लेकर वे राजापुर के लिए काली अंधेरी रात में ही रत्नावली से मिलने के लिए निकल गए। उस समय बहुत तेज बारिश भी हो रही थी। तेज बारिश के कारण यमुना नदी पूरे उफान पर थी, जिसे पार करना कठिन था। उन्हें नदी की तेज धार में एक लकड़ी का लट्ठा दिखाई दिया। उसे पकड़ उसके सहारे उन्होंने उफनती नदी को पार किया और रत्नावली के घर तक पहुंच गए। परंतु घर बंद था। संयोगवशात रत्नावली के घर के पास एक बड़े से पेड़ पर एक लंबी रस्सी लटक रही थी। उसे पकड़ उसके सहारे वे रत्नावली के कक्ष में प्रवेश कर गए। तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली से मिलने के लिए इतने उतावले, उत्सुक थे कि उनको यमुना नदी में बह रही एक लाश लकड़ी के लट्ठे के समान और पेड़ पर लटक रहा सांप एक रस्सी के रूप में दिखाई दिए। जिन्हें पकड़ उन्होंने क्रमशः यमुना नदी और फिर अपनी ससुराल की दहलीज व पत्नी के कक्ष की खिड़की पार कर गए। जब रत्नावली ने अचानक उनको अपने कक्ष में देखा तो वह भयभीत हो गई और उनको वापस चले जाने के लिए कहने लगी।
कारण यह था कि उनका गौना नहीं हुआ था, और गौना नहीं होने के कारण वह अपने पति से नहीं मिल सकती थी। और फिर इसके कारण उनकी लोक-लज्जा पर प्रश्न उठने की भी संभावना थी। तुलसीदास के दोहा प्रेम को जानते हुए और उनके उतावलेपन को देखकर रत्नावली ने अपने पति को एक दोहे के माध्यम से शिक्षा देते हुए कहा कि आप हाड़ मांस के शरीर से जितना प्रेम करते हैं, यदि उसका अर्द्धांश भी भगवान से कर लें तो वे भवसागर से पार हो जाएंगे-
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।।
इस दोहे का तुलसीदास पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने अपना पारिवारिक जीवन त्याग कर गांव आ गए। और साधु बनकर लोगों को श्रीराम की कथा सुनाने लगे। तुलसीदास ने फिर सम्पूर्ण भारत में तीर्थ यात्रा की। यात्रा के क्रम में वे द्वारका, पुरी, बद्रीनाथ, हिमालय और रामेश्वर गए, और वहाँ लोगों के मध्य जाकर श्रीराम का गुणगान किया करने लगे। अपना अधिकांश समय उन्होंने काशी, अयोध्या और चित्रकूट में ही व्यतीत किया, परंतु फिर वे काशी आ गए। और श्रीराम की भक्ति में लीन हो गए। उठते -बैठते हर समय उनके मुख से श्रीराम का नाम ही निकला करता था।
चित्रकूट के अस्सी घाट पर उन्होंने 1580 ईस्वी में महाकाव्य रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया। इस ग्रंथ को उन्होंने 2 वर्ष 7 महीने और 26 दिन में पूर्ण किया। मान्यता है कि रामचरित मानस को लिखने में उनको श्रीराम भक्त हनुमान का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था। तुलसीदास ने अपनी कई रचनाओं में भी इस बात का उल्लेख किया है कि उनको हनुमान से मुलाकात कई बार हुई है। तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में हनुमान के दर्शन के साथ ही शिव -पार्वती के दर्शन का भी उल्लेख किया है। तुलसीदास को श्रीराम की प्रबल और अटूट भक्ति व हनुमान के आशीर्वाद से श्रीराम के दर्शन चित्रकूट के अस्सी घाट पर हुए। वाराणसी में तुलसीदास ने हनुमान के लिए संकटमोचन मंदिर भी स्थापित किया था। तुलसीदास की लोकप्रिय कृति कवितावली के अनुसार एक बार तुलसीदास ने कदमगिरी पर्वत की परिक्रमा करने के समय एक घोड़े की पीठ पर दो राजकुमारों को बैठे देखा। लेकिन उस समय वे उनकी पहचान नहीं कर सके। परंतु कुछ समय के बाद उनको पता लगा कि वे हनुमान की पीठ पर राम-लक्ष्मण थे। यह जान वे दुखी हो गये। लेकिन अगली सुबह जब वे चंदन घिस रहे थे तो श्रीराम और लक्ष्मण ने उनको पुनः दर्शन दिया और उन्हें उनको तिलक करने के लिए कहा। लेकिन उनके दिव्य दर्शन में अभिभूत हो चुके तुलसीदास तिलक करना ही भूल गए। फिर भगवान श्रीराम ने स्वयं अपने हाथों से तुलसीदास के माथे पर तिलक लगाया। चित्रकूट में हुए इस चमत्कार के लिए विनयपत्रिका में उन्होंने श्रीराम का धन्यवाद भी किया है।
तुलसीदास ने अपने जीवन काल में रामचरितमानस के साथ ही रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, कलिधर्माधर्म निरुपण, कवित्त रामायण, छप्पय रामायण, कुंडलिया रामायण, छंदावली रामायण, सतसई, जानकी-मंगल, पार्वती-मंगल, श्रीकृष्ण-गीतावली, झूलना रोला रामायण, राम श्लाका, कवितावली, दोहावली, रामाज्ञाप्रश्न, गीतावली, विनयपत्रिका, संकट मोचन हनुमान चालीसा, करखा रामायण आदि कुल 39 ग्रंथों की रचना की, जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन चरित से संबंधित ग्रंथ सर्वोत्तम हैं।
इनके द्वारा अवधी भाषा में रचित रामचरितमानस, रामलला नहछू, बरवाई रामयण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामाज्ञा प्रश्न, ब्रज भाषा में कृष्णा गीतावली, गीतावली, साहित्य रत्न, दोहावली, वैराग्य संदीपनी, विनय पत्रिका आदि अत्यंत लोकप्रिय हैं। हनुमान चालीसा, हनुमान अष्टक, हनुमान बहुक और तुलसी सतसई आदि तो लोकप्रियता की श्रेणी में उत्कृष्टता पूर्ण ऊंचाई को प्राप्त कर चुके हैं। कहा जाता है कि तुलसीदास का निधन किसी बीमारी के कारण हुआ था और इन्होंने जीवन के अंतिम क्षण अस्सी घाट पर गुजारे थे।
उन्होंने अपनी अंतिम समय में अपनी रचना विनय-पत्रिका लिखी थी और इसी रचना पर भगवान श्रीराम ने अपने हस्ताक्षर किये थे। विनय पत्रिका को पूर्ण करने के बाद 112 की अवस्था में 1623 ईस्वी तदनुसार विक्रम संवत 1680 में तुलसीदास का देवलोक गमन हो गया। जन्म के समय की भांति ही उनके मुख से उच्चारित अंतिम शब्द राम था। परंतु अत्यंत खेद की बात है कि जन्म व मृत्यु के समय राम नाम जप में लीन तुलसीदास जैसे महती विद्वान के जन्म तिथि, जन्म स्थान आदि के साथ ही कुल के बारे में भी आज तक मतभेद कायम है। कई विद्वान उन्हें पराशर गोत्र के एक सरयूपारिण ब्राहमण बतलाते हैं, तो कुछ कान्यकुब्ज तो कुछ सांध्य।