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शालिग्राम रूपी विष्णु से तुलसी विवाह का दिन

दैवीय गुणों से अभिपूरित तुलसी औषधियों की भंडार है। तुलसी को अथर्ववेद में महाऔषधि की संज्ञा प्रदान की गई है। तुलसी को संस्कृत में हरिप्रिया कहा जाता है। मान्यता है कि तुलसी नामक औषधि की उत्पति से भगवान विष्णु का मनः संताप दूर होने के कारण तुलसी को हरिप्रिया का नाम प्राप्त हुआ है। तुलसी की जड़ में सभी तीर्थ, मध्य में सभी देवी- देवता और ऊपरी शाखाओं में सभी वेद स्थित हैं। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना तथा पूजन करना क्रमशः पापनाशक तथा मोक्षदायक माना जाता है।

23 नवंबर-तुलसी विवाह

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी की तिथि का अपना विशिष्ट मांगलिक व आध्यात्मिक महत्व है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान एकादशी कहते हैं। इस दिन भगवान विष्णु चार महीने तक शयन करने के बाद जागृतावस्था को प्राप्त करते हैं। भगवान विष्णु को तुलसी अत्यंत प्रिय हैं। तुलसी का एक अन्य नाम वृंदा भी है। देवतागण जागने पर सर्वप्रथम प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। इसीलिए इस तिथि को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत्त के लिए तुलसी विवाह का आयोजन किए जाने की पौराणिक परिपाटी है। इसमें तुलसी नामक पौधे का औपचारिक विवाह शालिग्राम अर्थात विष्णु के साथ किया जाता है। इस विवाह में शालिग्राम रूपी विष्णु वर और तुलसी कन्या की भूमिका में होती है।

यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। कुछ स्थानों पर तुलसी विवाह कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी की तिथि को मनाया जाता है। कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पाँचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं। तुलसी विवाह का अर्थ है- तुलसी के माध्यम से भगवान का आह्वान। इसे मानसून का अन्त और विवाह के लिए उपयुक्त समय के रूप में माना जाता है। इसके बाद चार माह से रूके पड़े विवाह आदि शुभ मांगलिक नवीन कार्य प्रारंभ हो जाते हैं।

दैवीय गुणों से अभिपूरित तुलसी औषधियों की भंडार है। तुलसी को अथर्ववेद में महाऔषधि की संज्ञा प्रदान की गई है। तुलसी को संस्कृत में हरिप्रिया कहा जाता है। मान्यता है कि तुलसी नामक औषधि की उत्पति से भगवान विष्णु का मनः संताप दूर होने के कारण तुलसी को हरिप्रिया का नाम प्राप्त हुआ है। तुलसी की जड़ में सभी तीर्थ, मध्य में सभी देवी- देवता और ऊपरी शाखाओं में सभी वेद स्थित हैं। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना तथा पूजन करना क्रमशः पापनाशक तथा मोक्षदायक माना जाता है। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से पूजा करने से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। तुलसी लकड़ी की अग्नि से मृत शरीर का दहन किए जाने से मृतक मोक्ष को प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसी मान्यता है कि प्राणी के अंत समय में मृत शैया पर पड़े व्यक्ति को तुलसी दलयुक्त जल का सेवन कराने से उस व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है। पौराणिक कथा के अनुसार देव और दानवों के द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय पृथ्वी पर छलके अमृत से तुलसी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा ने उसे भगवान विष्णु को सौंपा। पद्म पुराण के अनुसार तुलसी के पौधे में ब्रह्मा, विष्णु, महेश का निवास होता है।

तुलसी की सेवा करने से सूर्य के उदय होने से अंधकार के नष्ट हो जाने की भांति महापातक भी नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रसाद में तुलसी नहीं होता उसे भगवान स्वीकार नहीं करते। भगवान विष्णु, योगेश्वर कृष्ण और पांडुरंग श्री बालाजी के पूजन के समय तुलसी पत्रों का हार उनकी प्रतिमाओं को अर्पण किया जाता है। तुलसी अर्थात वृन्दा भगवान श्रीकृष्ण की प्रिया मानी जाती है। श्रीकृष्ण अथवा विष्णु तुलसी पत्र से प्रोक्षण किए बिना नैवेद्य स्वीकार नहीं करते। महिलाएं सौभाग्य, वंश समृद्धि हेतु तुलसी पौधे को जल सिंचन, रोली अक्षत से पूजकर दीप जलाती हुई पूजार्चना- प्रार्थना करती है। वर्ष भर तुलसी के थाँवले का पूजन की परिपाटी है, परंतु विशेष रूप से कार्तिक मास में इसे पूजते हैं। कार्तिक मास में विष्णु भगवान का तुलसीदल से पूजन करने का विशेष महत्व है।

तुलसी से संबंधित अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित है, उनमें से एक कथा के अनुसार  धर्मध्वज की पत्नी माधवी से उत्पन्न पुत्री तुलसी अतीव सुन्दरी थी। जन्म लेते ही वह नारीवत होकर बदरीनाथ में तपस्या करने चली गई। ब्रह्मा ने दर्शन देकर जब उसे वर मांगने के लिए कहा, तो उसने कहा कि वह पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण की सखी थी। राधा ने उसे कृष्ण के साथ रतिकर्म में मग्न देखकर मृत्यृलोक जाने का शाप दिया था। कृष्ण की प्रेरणा से ही उसने ब्रह्मा की तपस्या की थी। इसलिए ब्रह्मा से उसने पुन: श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने का वर मांगा। ब्रह्मा ने कहा – तुम जातिस्मरा हो तथा सुदामा भी अभी जातिस्मर हुआ है, उसको पति के रूप में ग्रहण करो। नारायण के शाप अंश से तुम वृक्ष रूप होकर वृंदावन में तुलसी अथवा वृंदावनी के नाम से विख्यात होगी। तुम्हारे बिना श्रीकृष्ण की कोई भी पूजा नहीं हो पायेगी। राधा को भी तुम प्रिय हो जाओगी। ब्रह्मा ने उसे षोडशाक्षर राधा मंत्र दिया।

दूसरी कथा के अनुसार एक बार महायोगी शंखचूड़ नामक राक्षस महर्षि जैवीषव्य से कृष्णमंत्र पाकर बदरीनाथ में प्रवेश पाने में सफल हो गया। वहाँ अनुपम सौंदर्यवती तुलसी से मिलने पर उसने बताया कि वह ब्रह्मा की आज्ञा से उससे विवाह करने के निमित्त वहाँ पहुँचा है। तुलसी ने उससे विवाह कर लिया। वे लोग दानवों के अधिपति के रूप में निवास करने लगे। लेकिन शंखचूड़ का उत्पात कम होने का नाम नहीं ले रहा था। शंखचूर्ण का उपद्रव बहुत अधिक बढ़ जाने पर एक दिन हरि ने अपना शूल देकर शिव से शंखचूड़ को मार डालने के लिए कहा। शिव ने उस पर आक्रमण किया, लेकिन वह पराजित नहीं हो रहा था। देवताओं ने देखा कि जब तक उसकी पतिव्रता पत्नी के पास नारायण का दिया हुआ कवच है, उसे मारना असम्भव है। इसलिए नारायण ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में जाकर उससे कवच की भिक्षा मांगी। और शंखचूड़ का कवच पहनकर उसके समान रूप बनाकर वे उसके घर के सम्मुख दुंदुभी बजाकर अपनी देवताओं पर विजय की घोषणा करने लगे। प्रसन्नता के आवेग में तुलसी ने उनके साथ समागम किया।

तदनन्तर विष्णु को पहचानकर पतिव्रत धर्म नष्ट करने के कारण उसने विष्णु को पत्थर हो जाने का शाप देते हुए कहा कि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए आपने अपने भक्त के हनन के निमित्त उसकी पत्नी से छल किया है। यह देख शिव ने प्रकट होकर उसके क्रोध का शमन करते हुए कहा- तुम्हारा यह शरीर गंडक नामक नदी तथा केश तुलसी नामक पवित्र वृक्ष होकर विष्णु के अंश से बने समुद्र के साथ विहार करेगा। तुम्हारे शाप से विष्णु गंडकी नदी के किनारे पत्थर के रूप में पड़े होंगे, और तुम तुलसी के रूप में उन पर अर्पण की जाओगी। शंखचूड़ पूर्वजन्म में सुदामा था, तुम उसे भूलकर तथा इस शरीर को त्यागकर अब तुम लक्ष्मीवत विष्णु के साथ विहार करो। शंखचूड़ की पत्नी होने के कारण नदी के रूप में तुम्हें सदैव शंख का साथ मिलेगा। तुम समस्त लोकों में पवित्रतम वृक्ष के रूप में रहोगी। यह कह  शिव अंतर्धान हो गये और वह शरीर का परित्याग करके बैकुंठ चली गई। माना जाता है कि तभी से विष्णु के शालिग्राम रूप की तुलसी की पत्तियों से पूजा होने लगी।

इसी से मिलती- जुलती एक कथा के अनुसार एक बार शिव के द्वारा अपने तेज को समुद्र में फेंक दिए जाने से एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया, जो आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था। उसका विवाह राक्षस कुल में जन्मी तुलसी से हुआ, जिसका पूर्वजन्म में नाम वृंदा था। वृंदा बचपन से ही भगवान विष्णु की परम भक्त थी। शेष जालंधर के युद्ध पर जाने, संकल्प लेकर पतिव्रता वृंदा के एक अनुष्ठान में बैठ जाने, विष्णु के छल से उसका पतिव्रत धर्म टूटने, संकल्प के टूटते ही जलंधर का सिर कटकर गिरने, कुपित तुलसी के द्वारा विष्णु को शालिग्राम अर्थात पत्थर हो जाने की शाप देने की कथा उपरोक्त शंखचूड़ की कथा के अनुसार है।

एक अन्य कथा के अनुसार श्रीकृष्ण के द्वारा कार्तिक पूर्णिमा को तुलसी का पूजन करके गोलोक में रमा के साथ विहार करने के कारण यह तुलसी का जन्मदिन माना जाता है। प्रारम्भ में लक्ष्मी तथा गंगा ने तो उसे स्वीकार कर लिया था, किन्तु सरस्वती बहुत क्रुद्ध हुई। तुलसी वहाँ से अंतर्धान होकर वृंदावन में चली गई। इसलिए उन्हें वृंदा भी कहा गया है। जहाँ तुलसी बहुतायत से उगती है, उस स्थान को वृंदावन कहा जाता है। इसी वृंदा के नाम पर श्रीकृष्ण की लीलाभूमि का नाम वृंदावन पड़ा।

नारायण पुन: उसे ढूँढकर लाये तथा सरस्वती से उसकी मित्रता करवा दी। सबके लिए आनंदायिनी होने के कारण वह नंदिनी भी कहलाती है। विष्णु पुराण में तुलसी एवं भगवान शालिग्राम के विवाह का यह दिन अत्यंत शुभ माना जाता है। इस दिन योगेश्वर भगवान विष्णु अपनी योगनिद्रा से जागते है और उसके बाद सारे शुभ कार्य करने शुरू किये जाते है। तुलसी विवाह से कन्यादान के बराबर पुण्य मिलता है।    घर में श्री, संपदा, वैभव-मंगल विराजते हैं। इस दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तिथि होने के कारण विष्णुभक्त हरि प्रबोधिनी एकादशी व्रत अर्थात देवोत्थान एकादशी व्रत करते हैं। इसी दिन से भीष्म पंचक आरंभ होता है।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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