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आस्था से खिलवाड़ का जिम्मेदार कौन?

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आंध्र प्रदेश के श्रीवेंकटेश्वर स्वामी मंदिर (तिरुपति मंदिर) का विश्वप्रसिद्ध प्रसाद (लड्डू) तैयार किया जा रहा था, वह न केवल मिलावटी है, बल्कि उसमें ‘फीश ऑयल’, ‘बीफ-टैलो’ और ‘लार्ड’ (सुअर की चर्बी) जैसे तत्व भी पाए गए हैं। करोड़ों भक्तों की आस्था और पवित्रता पर वर्षों तक प्रहार होता रहा और किसी के कान में जूं तक नहीं … साधु-संतों द्वारा मंदिर के शुद्धिकरण के अतिरिक्त हिंदू समाज बड़े तौर पर शांत ही रहा।

तिरुपति प्रसाद मामला

गत 19 सितंबर को आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने तिरुपति तिरुमाला मंदिर के प्रसाद को लेकर जो खुलासा किया, उससे असंख्य आस्थावान हिंदुओं का दिल दहल गया। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की जांच रिपोर्ट के अनुसार, जिस घी से आंध्र प्रदेश के श्रीवेंकटेश्वर स्वामी मंदिर (तिरुपति मंदिर) का विश्वप्रसिद्ध प्रसाद (लड्डू) तैयार किया जा रहा था, वह न केवल मिलावटी है, बल्कि उसमें ‘फीश ऑयल’, ‘बीफ-टैलो’ और ‘लार्ड’ (सुअर की चर्बी) जैसे तत्व भी पाए गए हैं। करोड़ों भक्तों की आस्था और पवित्रता पर वर्षों तक प्रहार होता रहा और किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगी। इस खबर के सार्वजनिक होने के बाद अब तक क्या हुआ? यदि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों, आक्रमक मीडिया रिपोर्टिंग और कानूनी कार्रवाई को छोड़ दें, तो साधु-संतों द्वारा मंदिर के शुद्धिकरण के अतिरिक्त हिंदू समाज बड़े तौर पर शांत ही रहा।

यह कह सकते है कि कुछ हिंदू इस खुलासे से सदमे में आ गए, तो कइयों को इसपर अपनी बेबसी का अहसास हुआ। इसका कारण क्या है? शायद सदियों से जुल्म सहने के बाद हिंदू समाज की संवेदनशीलता कुंद हो गई है, इसलिए घोर अन्याय के बाद भी उनकी प्रतिक्रिया व्यापक रूप से बहुत सीमित या फिर न के बराबर होती है।

यह कोई पहली बार नहीं है। जब अंग्रेज, वामपंथी और मुस्लिम लीग ने मिलकर अगस्त 1947 में भारत को तकसीम किया, जिसमें करोड़ों लोग बेघर हो गए और लाखों मासूम मारे गए— तब बिना किसी व्यापक क्रोध के हिंदू समाज का बड़ा हिस्सा खंडित भारत में अपनी जिंदगियों को समेटने में मशगूल हो गया और अपने परिश्रम-बुद्धि से जीवन को सुधारने लगा। यहां तक पंडित नेहरू प्रदत्त सेकुलरवाद के नाम पर उसने कालांतर में उस वर्ग को राजनीतिक और सामाजिक रूप से स्वीकार कर लिया, जिनके प्रपंच से देश प्रत्यक्ष-परोक्ष तौर पर विभाजित हुआ था।

हिंदुओं की इस मानसिकता को संभवत: गांधीजी ने एक सदी पहले पहचान लिया था, इसलिए जब खिलाफत आंदोलन (1919-24) जनित सांप्रदायिक दंगों में अधिकांश स्थानों पर हिंदुओं पर जिहादियों का कहर टूट रहा था, तब उन्होंने 29 मई 1924 को ‘यंग इंडिया’ में मुसलमानों को ‘धींग’ (बदमाश), तो हिंदुओं को ‘दब्बू’ कहकर संबोधित किया था।

स्वतंत्र भारत में हिंदू संवेदनहीनता का पहला बड़ा मामला 1980-90 के दौर में तब आया था, जब घाटी में कश्मीरी पंडितों को उनकी पूजा-पद्धति और सनातन परंपरा के कारण जिहाद का शिकार होना पड़ा। न सिर्फ हिंदुओं के मंदिरों को निशाना बनाया गया, साथ ही कश्मीर में दहशत फैलाने के लिए आतंकियों ने स्थानीय मुस्लिमों की मदद से प्रभावशाली हिंदुओं को सरेआम मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया, तो उनकी बहू-बेटियों की आबरू लूटने लगे। परिणामस्वरूप, पांच कश्मीरी पंडित रातोंरात घाटी में अपनी करोड़ों पुश्तैनी जमीन जायदाद छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में विस्थापितों की तरह कैंपों में रहने को मजबूर हो गए। तब भी शेष भारत में हिंदू समाज का बड़ा वर्ग तमाशबीन बना रहा।

इस घटनाक्रम के लगभग एक दशक बाद गुजरात स्थित गोधरा रेलवे स्टेशन के पास 27 फरवरी 2002 को जिहादियों ने ट्रेन के एक डिब्बे में 59 कारसेवकों को जिंदा जलाकर मार डाला। इस घटना के अगले दिन संसद के भीतर और बाहर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उस समय एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने अपने संपादकीय में इस जघन्य हत्याकांड के लिए पीड़ित हिंदुओं को ही यह कहकर कसूरवार ठहरा दिया कि वे अयोध्या की तीर्थयात्रा से लौटते समय मुस्लिम बहुल क्षेत्र में ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रहे थे। जैसे ही गुजरात में गोधरा कांड के प्रतिक्रियास्वरूप सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई, तब कालांतर में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार (2004-14) ने इस्लामी कट्टरता को परोक्ष-स्वीकृति देने या न्यायोचित ठहराने हेतु फर्जी-मिथक ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ सिद्धांत को स्थापित करने और हिंदू-विरोधी ‘सांप्रदायिक विधेयक’ को पारित करने का भी असफल प्रयास शुरू कर दिया।

यह विडंबना है कि जब से तिरुपति तिरुमाला मंदिर के प्रसाद में पशु चर्बी मिलने का खुलासा हुआ है, तब से इस महापाप के शासकीय निवारण के लिए वैसा कोई राजकीय उपक्रम नहीं चलाया जा रहा, जैसा दिसंबर 1963 के अंत में पैगंबर मोहम्मद साहब की दाढ़ी का बाल (मू-ए-मुकद्दस) खोने पर हुआ था। मुसलमानों की मान्यता है कि श्रीनगर स्थित हजरतबल दरगाह में पैगंबर मोहम्मद साहब की दाढ़ी का बाल (मू-ए-मुकद्दस) रखा हुआ है, जिसके 26 दिसंबर 1963 को चोरी होने की अफवाह जंगल में आग की भांति फैल गई थी। पाकिस्तान के साथ कश्मीर सहित शेष देश में हजारों-लाखों मुसलमानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने मामला संभालने के लिए अपने वरिष्ठ मंत्री लालबहादुर शास्त्री को भारतीय गुप्तचर एजेंसी के तत्कालीन प्रमुख भोलानाथ मलिक के साथ कश्मीर भेज दिया।

जनवरी 1964 में मू-ए-मुकद्दस ढूंढ़ने का दावा कर लिया और मामला शांत हो गया। बकौल मलिक, जब उन्होंने इसकी सूचनी पं.नेहरू को जानकारी दी, तब नेहरू ने उनसे कहा था, “तुमने भारत के लिए कश्मीर को बचा लिया।” पं.नेहरू की यह टिप्पणी इस बात को रेखांकित करती है कि ‘आस्था’ संबंधित मुद्दों को साधारण प्रशासनिक उपायों या सामान्य कानूनी प्रक्रियाओं पर नहीं छोड़ा जा सकता।

भारत के कई राज्यों में एक लाख से अधिक मंदिरों (तिरुपति सहित) के प्रबंधन पर संबंधित सरकारों का नियंत्रण है। तिरुमाला तिरूपति देवस्थानम ट्रस्ट के अंतर्गत श्रीवेंकटेश्वर स्वामी मंदिर का संचालन होता है, जो दुनिया का सबसे अमीर मंदिर ट्रस्ट भी है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल, 2024 तक तिरुपति ट्रस्ट के बैंक खाते में 18,817 करोड़ रुपये की राशि थी। मंदिर प्रबंधन को करीब 500 करोड़ रुपये की वार्षिक आय होती है। ट्रस्ट के पास कुल 11,329 किलो सोना है, जिसकी कीमत करीब 8,496 करोड़ रुपये है।

एक रिपोर्ट के अनुसार, तिरुपति मंदिर में प्रतिदिन औसतन 87 हजार भक्त दर्शन हेतु आते है। उन्हें प्रसाद के रूप में मिलने वाले लड्डुओं को बनाने में प्रतिमाह 42 हजार किलो घी, 22,500 किलो काजू, 15 हजार किलो किशमिश और 6 हजार किलो इलायची लगता है। यक्ष प्रश्न यही है कि आखिर इनकी शुद्धता और गुणवत्ता की जांच प्रतिदिन आधुनिक प्रयोगशाला में क्यों नहीं कराई जाती? हैरानी है कि प्रसाद में पशुओं की चर्बी मिलने के महापाप रूपी खुलासे के बाद भी इस संबंध में कोई बात नहीं हो रही है।

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By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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