ओटीटी पर छोटे बजट की फिल्मों का महत्व: ओटीटी पर ऐसी फिल्मों का आना यह दर्शाता है कि अब कहानियों के पैमाने से ज्यादा उनकी गहराई पर ध्यान दिया जा रहा है। ‘तिकड़म’ जैसी फिल्में यह प्रमाणित करती है कि बड़ी कहानियां बड़ी-बड़ी सेटिंग्स की मोहताज नहीं होतीं। दर्शकों को एक नई दृष्टि देने के साथ, ये फिल्में संवेदनाओं को सहजता से प्रस्तुत करती हैं। ‘तिकड़म’ एक छोटी फिल्म है लेकिन अपने भावों और विचारों की वजह से एक बड़ी सीख दे जाती है।
सिने-सोहबत
तिकड़म एक छोटे शहर की कहानी है, जहां रिश्तों और भावनाओं की जटिलताएं धीरे-धीरे खुलती हैं। इस फिल्म में छोटे शहर की सादगी और वहां के लोगों की असल जिंदगी को दिखाया गया है। फिल्म का मुख्य किरदार, जिसे अमित सियाल ने निभाया है, अपनी जिंदगी में आई चुनौतियों से जूझता है और उन संबंधों को संजोने की कोशिश करता है, जो हर आम इंसान के दिल के करीब होते हैं। यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि कैसे छोटी-छोटी बातें और भावनाएं हमारे जीवन को बड़ा बनाती हैं।
अमित सियाल ने अपने किरदार में गहराई भर दी है, और उनकी अदाकारी फिल्म को एक भावनात्मक ऊंचाई देती है। ‘तिकड़म’ उन छोटे बजट की फिल्मों में से एक है, जो गहरी बातें सरलता से कहने में सफल होती हैं। इसके संवाद और दृश्य छोटे शहर के जीवन को बारीकी से चित्रित करते हैं, और फिल्म का मानवीय दृष्टिकोण इसे दिल से जोड़ने में मदद करता है।
ओटीटी पर छोटे बजट की फिल्मों का महत्व: ओटीटी पर ऐसी फिल्मों का आना यह दर्शाता है कि अब कहानियों के पैमाने से ज्यादा उनकी गहराई पर ध्यान दिया जा रहा है। ‘तिकड़म’ जैसी फिल्में यह प्रमाणित करती है कि बड़ी कहानियां बड़ी-बड़ी सेटिंग्स की मोहताज नहीं होतीं। दर्शकों को एक नई दृष्टि देने के साथ, ये फिल्में संवेदनाओं को सहजता से प्रस्तुत करती हैं। ‘तिकड़म’ एक छोटी फिल्म है लेकिन अपने भावों और विचारों की वजह से एक बड़ी सीख दे जाती है।
फ़िल्म की कहानी एक गांव के संघर्षों और आशाओं के ईर्द-गिर्द घूमती है, जो प्रवास की समस्या का सामना कर रहा है। लोग अपने गांव और छोटे कस्बों को छोड़ कर बड़े शहरों में नौकरी की तलाश में जा रहे हैं, क्योंकि उनके अपने इलाकों में आत्मनिर्भर विकास के अवसरों की कमी है। गांव की पहचान और सामुदायिक जीवन धुंधला होता जा रहा है, क्योंकि निवासी उपभोक्तावाद और धन के आकर्षण के पीछे भाग रहे हैं। यह स्थिति एक असंतुलन को दर्शाती है, जहां सांस्कृतिक, सामुदायिक और भावनात्मक संबंधों की तुलना में भौतिक संपत्ति को अधिक महत्व दिया जा रहा है।
फ़िल्म की कहानी पहाड़ों के आस-पास एक काल्पनिक शहर सुखताल में सेट है, जहां फ़िल्म का नायक एक होटल मे काम करता है। मौसम बदलने के साथ ही जब इलाके में आने वाले पर्यटकों की संख्या कम हो जाती है, ऐसे में होटल को बंद करने का फैसला लिया जाता है। नायक इस दौरान अपने जीवन में लगातार संघर्षरत है, जहां उसे अपने परिवार, जिसमें दो बच्चे भी हैं, उनकी जिम्मेदारियां उठानी हैं। नायक को इस दौरान मुंबई स्थित होटल में नौकरी का मौका मिलता है, लेकिन बच्चे अपने पिता के मुंबई जाने के फैसले से खुश नहीं हैं और वो हर तरह से इस कोशिश में लग जाते हैं कि किस तरह से नायक को उनके ही शहर में काम मिल जाए, इसके बाद की कोशिशों और उनके नतीजों पर ये फिल्म आधारित है।
लेखन और निर्देशन की बात की जाए तो फिल्म कहीं से भी उपदेशात्मक रवैया नहीं अपनाती है, बल्कि फिल्म को कम आंच में पकाया गया है। फिल्म का निर्देशन विवेक आंचलिया ने किया है, जबकि स्क्रीनप्ले पंकज निहलानी और विवेक आंचलिया के द्वारा लिखा गया है। फिल्म की कहानी को दर्शकों को उनकी यादों के झरोखों में ले जाने का इरादा रखती है, जहां दर्शक अपने परिवार के साथ खुद के लगाव को एक ताज़गी के साथ महसूस कर सकते हैं।
फ़िल्म के नायक प्रकाश का किरदार निभाने वाले अभिनेता अमित सियाल ने इसके पहले तमाम गहन भूमिकाएं निभाई हैं, ऐसे में दर्शक वर्ग के बीच उनके या उनके जैसे तमाम अन्य अभिनेताओं के लिए बनी एक आभाषी रूढ़िबद्ध धारणा इस फ़िल्म के जरिए टूटती हुई दिखती है। इस फ़िल्म के जरिए उनके व्यक्तित्व और उनके शख्सियत की विविधता नज़र आई है, कहा जा सकता है कि यह फ़िल्म उनके अभिनय के करियर में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है।
दर्शक इस फ़िल्म को देखते हुए बड़ी आसानी से खुद को उस दुनिया का हिस्सा मानने लगते हैं और खुद को परिवार के साथ जुड़ा हुआ पाते हैं और साथ ही इस पिता, इस परिवार और उनकी ख़्वाहिशों व कोशिशों के प्रति सहानुभूति रखना शुरू कर देते हैं।
कहानी पर्यावरण को लेकर भी एक संदेश देना चाहती है, जहां ना सिर्फ प्रकृति पर पड़ रहे प्रभावों को दर्शाया गया है, बल्कि इसके चलते होने वाले पलायन और परिवार के लोगों के बीच के संघर्ष पर भी ज़ोर दिया गया है।
भारतीय सिनेमा उद्योग मे बच्चों पर आधारित फिल्मों की संख्या आमतौर पर कम ही नज़र आती है, इस फिल्म में भले ही पिता को नायक बताया गया है, लेकिन असल में फिल्म के नायक उनके बच्चे हैं। कहानी को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी काफ़ी हद तक इन बच्चों के ऊपर है। ईरानी फ़िल्मकार माजिद मजीदी की फिल्म ‘चिल्ड्रेन ऑफ हैवेन’ या इस तरह की अन्य फिल्में, जहां तमाम प्रतिबंधों के बावजूद बच्चों की कला और अभिनय के जरिए बेहतरीन कहानियां पेश करती रही हैं, यह फिल्म भी कुछ ऐसा कर सकने में सफल रही है। इस फिल्म में भी ईरानी सिनेमा का प्रतिबिंब नज़र आता है। ‘तिकड़म’ के बाल कलाकार दिव्यांश द्विवेदी ने भानु के किरदार और आरोही सौद ने चीनी के किरदार के जरिए अपने शानदार अभिनय की अमिट छाप छोड़ने में सफलता हासिल की है।
अगर ‘तिकड़म’ फिल्म के संगीत और बैकग्राउंड स्कोर की बात करें तो फ़िल्म में सात गाने हैं। इस फ़िल्म का पूरा एलबम मर्मस्पर्शी हैं। डैनियल बी जॉर्ज ने इस फिल्म का संगीत दिया है, जिसमें मोहित चौहान और स्वानंद किरकिरे जैसे मंझे हुए गायकों ने अपनी आवाज़ दी है। फिल्म का हर गीत ना सिर्फ कहानी को आगे बढ़ाने का काम करता है, लेकिन इसके साथ ही उन पलों को ठहराव भी देता है, जिससे कहानी की संवेदनाएं बहुत ही प्रभावी ढंग से निकल कर दर्शकों के सामने आती हैं और दर्शक खुद को सिनेमा से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं।
भारतीय सिनेमा में मां के किरदार के ईर्द-गिर्द सैकड़ों फिल्में बनाई जा चुकी हैं, जबकि पिता के कभी नज़र ना आने वाले जटिल भाव को सरलता के साथ दर्शकों के सामने परोसने का काम बेहद कम फिल्मों में ही नज़र आया है, इस वजह से भी इस फिल्म को सफ़ल माना जा सकता है।
फ़िल्म समीक्षा के दौरान बाज़ार के दबाव में आए बिना अगर थोड़ी सी उदारता बरती जाए, जो ‘तिकड़म’ जैसी फ़िल्म, जो एक सामान्य मगर मर्मस्पर्शी और असरदार कहानी कहती है, ऐसी फिल्मों के साथ और भी नजदीक से मुलाक़ात की जा सकती है। पिताओं को समर्पित यह लगभग दो घंटे की प्यारी फ़िल्म जियो सिनेमा पर उपलब्ध है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो ‘स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़’ के होस्ट हैं।)