“मैदान” में अजय देवगन ने भारतीय फुटबॉल के सर्वकालीन श्रेष्ठ कोच सैयद अब्दुल रहीम के किरदार को भले ही बखूबी निभाया है लेकिन आज की भारतीय फुटबॉल पर यह फिल्म कुछ खास प्रकाश नहीं डालती है। हर फिल्म की तरह “मैदान” ने रोचक और रोमांचक पटकथा के साथ फुटबॉल प्रेमियों का मनोरंजन तो किया लेकिन 62 साल बाद 1962 के एशियाई खेलों में मिली जीत पर तत्काल भरोसा करना संभव नहीं लगता।
पिछले चार-पांच दशकों में खेलने वाले और उनके बाद पैदा होने वाले खिलाड़ी अक्सर पूछते हैं कि अचानक भारतीय फुटबॉल का पतन क्यों हुआ? क्यों ओलम्पिक में शानदार प्रदर्शन करने वाला और एशिया महाद्वीप में डंका बजाने वाला देश दक्षिण एशिया में भी बड़ी ताकत नहीं रहा?
देश के फुटबॉल प्रेमी और खेल में रुचि रखने वाले अकसर पूछते हैं कि भारत 1951 और 1962 के एशियाड विजेता वाली कहानी को फिर कभी क्यों नहीं दोहरा पाया? इसलिए क्योंकि बाद के सालों में अन्य देश आगे बढ़े और हमने उल्टे पांव चलना शुरू कर दिया? या इसलिए कि हमारे पास जरनैल सिंह, पीके बनर्जी, अरुण घोष, चुन्नी गोस्वामी, पीटर थंगराजन जैसे खिलाड़ी नहीं है।
अधिकतर का मानना है कि भारतीय फुटबॉल ने जब से अपने कोचों पर भरोसा करना बंद किया और विदेशी कोचों को सिर चढ़ाया तब से भारतीय फुटबॉल लुढ़कती चली गई। “मैदान” में दर्शाया गया है कि कैसे एक साधारण, अनपढ़ और भोले-भाले कोच ने विजेता खिलाड़ियों की फौज तैयार की। उसने वह सब कर दिखाया, जो कि अन्य भारतीय और विदेशी कोच नहीं कर पाए।
आम फुटबॉल प्रेमी और खेलों में रुचि रखने वालों की राय में बेहतर होता “मैदान” के माध्यम से यह भी दर्शाया जाता कि कैसे जियाउद्दीन, दास मुंशी और प्रफुल्ल पटेल के चंगुल से निकल कर हमारी फुटबॉल कल्याण चौबे के हाथों दम तोड़ने को मजबूर है। आज यदि रहीम साहब कोच होते तो शायद वे भी अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश जैसे कमजोर प्रतिद्वंद्वियों के हाथों हार नहीं पचा पाते। कारण भारतीय फुटबॉल ने गिरावट की सारी हदें पार कर ली है। सुधार के तमाम रास्ते बंद हो चुके हैं। गोरे कोच रही-सही तबाही की कसर पूरी कर रहे हैं। अब तो फिर कोई अब्दुल रहीम ही भारतीय फुटबॉल को बचा सकता है। लेकिन अपने कोचों पर हमारी फुटबाल को भरोसा नहीं है।