स्तालिन द्वारा देहातों पर इस उत्पीड़न में कुल मिलाकर एक करोड़ से अधिक जानें गईं! यह सब यूरोपीय बुद्धिजीवियों को बिलकुल पता न था। वे केवल 1930 के दशक में रूस में दिखावटी मुकदमों के द्वारा मारे गये नेताओं, लेखकों, आदि ‘द ग्रेट पर्ज’ वाली कुख्यात बातें ही जानते थे। क्योंकि उन में मारे गए अधिकांश लोग रूसी बुद्धिजीवी ही थे।(यह लेख प्रोफेसर गैरी साउल मॉरसन द्वारा जून 2024 में लिखी गई समीक्षा ‘द मास्टरपीस ऑफ अवर टाइम’ पर आधारित है।)
‘गुलाग आर्किपेलाग’ की विरासत – 1
आज से पचास वर्ष पहले, रूसी लेखक अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन का महान ग्रंथ ‘गुलाग आर्किपेलाग 1918 – 1956: साहित्यिक पड़ताल का एक प्रयोग’ का अंग्रेजी अनुवाद छपना एक सनसनीखेज घटना थी। गु.लाग. यानी सोवियत रूस में ‘सुधार श्रम शिविरों का मुख्य निदेशालय’ के नाम का संक्षिप्त नाम रूप। आर्किपेलाग यानी पूरे सोवियत संघ में बिखरे, मगर छिपे द्वीपों जैसे उन श्रम-यातना शिविरों का एक पूरा जाल। ‘गुलाग आर्किपेलाग’ उन्हीं शिविरों की सच्चाई का एक विराट विवरण था।
उस ग्रंथ ने सोवियत समाजवाद की छवि को मानो एक विस्फोट से ध्वस्त कर दिया। बल्कि एक ऐसी लोमहर्षक सच्चाई दिखाई कि सारी दुनिया में लोग सिहर उठे! उस के बाद किसी वामपंथी बुद्धिजीवी के लिए भी समाजवाद और सोवियत संघ के प्रति पहले जैसा भावुक लगाव रखना संभव न रहा। फ्रांस में संपूर्ण विमर्श की धारा बदल गई, जहाँ समाजवाद सब से अधिक प्रभावी बौद्धिकता थी। अमेरिका में भी वियतनाम युद्ध की छाया में माओ, हो ची मिन्ह, फिडेल कास्त्रो, आदि के प्रति बढ़ता नव-वामपंथी ज्वार एकाएक थम गया।
‘गुलाग आर्किपेलाग’ की गवाही इतनी विस्तृत, प्रमाणिक और सशक्त थी। तीन खंडों, सात भागों, बयालीस अध्यायों, और लगभग दो हजार पृष्ठों में लिखा यह ग्रंथ सोवियत कम्युनिज्म के अड़तीस वर्षों, 1918 से 1956 का हृदयविदारक चित्र है। इस महागाथा को सोल्झेनित्सिन ने एक-एक शब्द और चिन्ह तक मानो नाप-तौल कर लिखा है। वस्तुत: गत शताब्दी बीतने पर ‘टाइम’ मैगजीन ने उसे पूरे विश्व में बीसवीं शताब्दी की सब से महत्वपूर्ण साहित्येतर (नॉन-फिक्शन) पुस्तक माना था।
तब उसे ‘साहित्यिक’ कहने से सोल्झेनित्सिन का क्या आशय था? इस के उत्तर में उस की क्लासिक महानता का रहस्य छिपा है। साथ ही, उस ग्रंथ को पढ़े बिना सोवियत कम्युनिज्म की पूरी सच्चाई नहीं समझी जा सकती। उस के प्रकाशन से पहले भी यूरोपीय बुद्धिजीवियों को सोवियत संघ में दमन, उत्पीड़न की जानकारी थी। पर वे उसे दशकों पहले की बात, स्तालिन युग की बीती चीज समझते थे। इस ग्रंथ के आने पर वे जानकर स्तब्ध रह गये कि विकट गोपनीयता से ही उसे लिखा जा सका, जिसे टुकड़े-टुकड़े अलग-अलग व्यक्तियों, स्थानों पर छिपा कर रखा जाता था ताकि सोवियत पुलिस के छापे में पूरी पांडुलिपि न चली जाए।
उसे किसी तरह तस्करी से बाहर भेज कर, विदेश में ही छपाया जा सका – यह पश्चिमी बुद्धिजीवियों के लिए हैरत की बात थी। बल्कि लेखक भी कभी उस की पूरी पांडुलिपि इकट्ठा सामने रखकर पूर्ण परिष्कृत रूप नहीं दे सका, जिस के लिए उस ने पाठकों से क्षमा भी माँगी थी। सोल्झेनित्सिन के शब्दों में, ”उस में जहाँ-तहाँ आकस्मिक शुरुआत, अधूरापन, हमारे साहित्य के उत्पीड़न के ही चिन्ह हैं।” पर अंततः उस कमी ने भी उस पुस्तक के सौंदर्य में वृद्धि ही की। उस का संप्रेषण मौलिक बना दिया।
उस से पहले, 1965 ई. में सोल्झेनित्सिन की एक अन्य पांडुलिपि तथा बहुत से अभिलेख एक छापे में जा चुके थे। इसलिए ‘गुलाग’ की पांडुलिपि पर सोल्झेनित्सिन ने अत्यधिक सावधानी रखी थी। इसलिए और भी, क्योंकि उस में असंख्य लोगों के असली नाम और स्थान दर्ज थे जिन्होंने अपनी बीती और देखी सोल्झेनित्सिन को बताई थी। तब रूस में साहित्य का दमन ही नहीं था, लिखना मात्र एक खतरनाक गतिविधि थी। न केवल लेखकों के लिए, बल्कि किसी के लिए भी। किसी को लिखी गई चिट्ठी, उस में कोई संदिग्ध मुहावरा, मामूली शिकायत भी किसी को दस-बीस साल के लिए यातना शिविर में भेज दिए जाने का आधार बन सकता था।
यह सब पश्चिमी बुद्धिजीवियों के लिए अविश्वसनीय बात थी। वे समझते थे कि जैसे जारशाही रूस में किसी लेखक को दंड मिलता था, साइबेरिया भेज दिया जाता था, आदि, वैसा ही कुछ होता होगा। उन के लिए स्थाई उत्पीड़न का अधिकतम मॉडल जारशाही था। इसीलिए, अपनी पुस्तक में सोल्झेनित्सिन ने जारशाही की जेलों, कानूनों और सोवियत संघ के सामान्य जनजीवन, कानूनों की तुलना को भी काफी स्थान दिया है। जिसे पढ़ने के बाद जार को उत्पीड़क कहने पर हँसी आ जाती है।
संख्या को ही लीजिए: सन् 1876 से 1904 तक रूस में आम हड़ताल, किसान विद्रोह, और आतंकवाद का दौर था, जिस में जार अलेक्सांद्र द्वितीय और अन्य उच्चाधिकारियों की हत्या भी हुई थी। तब इस दौरान ”कुल 486 लोगों को फाँसी दी गई। यानी पूरे रूस में प्रति वर्ष सत्रह लोग फाँसी पर चढ़ाए गये थे। जिन में सामान्य, गैर-राजनीतिक अपराधी भी शामिल थे। सन् 1905 के विद्रोह में यह पराकाष्ठा पर पहुँचा, जिस पर लेव टॉल्स्टॉय और कोरोलेन्को जैसे महान रूसी लेखकों ने आँसू बहाए और शासन को कोसा था। सो, 1905 से 1908 के बीच 2200लोगों को फाँसी दी गई। जिसे उस समय के लोगों ने फाँसी की महामारी जैसी माना था। उस की तुलना में, सोवियत न्यायिक हत्याओं – चाहे गोली मार कर, जबरन भुखमरी थोप कर, या शून्य से नीचे तापमान पर कठोर काम करवाने के परिणामस्वरूप – शासन के हाथों ऐसी हत्याओं के आँकड़े करोड़ों में जाते हैं।”
इन हत्याओं में सब से भयावह बात यह थी कि उन दंडित मृतकों में किसी का स्वयं कोई भूल या अपराध करना भी जरूरी न था। सन् 1918 में ही, यानी कम्युनिस्ट शासन के पहले ही वर्ष में चेका (खुफिया पुलिस) के नेता मार्तिन इवानोविच लात्सिस ने क्रांतिकारी अदालतों को सरसरी फैसले देने का निर्देश दिया था, जिस में हर अभियुक्त पर अलग-अलग सुनवाई कर दोषी या निर्दोष देखने की कोई जरूरत नहीं थी। ”केवल उस का वर्ग देखना काफी था”, अर्थात यदि कोई पकड़ा गया व्यक्ति कुलक (भूस्वामी) या व्यापारी वर्ग का है तो उसे अपराधी मानने के लिए यही पर्याप्त है।
लात्सिस ने गर्व से बताया था, ”यही लाल आतंक का अर्थ है।” इस आधार पर, पचास लाख से अधिक लोगों को बिना रसद या औजार के बंजर, शून्य से बहुत नीचे तापमान वाले बर्फीले इलाकों में अपनी मौत मरने भेज दिया गया। । यह सब कोई मार्क्स-लेनिन के सिद्धांतों से विचलन भी नहीं था। नई कम्युनिस्ट सत्ता के प्रमुख लेनिन ने ही कहा था, ”किसी वयापारी को उदाहरण के लिए फाँसी देकर लटका दो” क्योंकि ”व्यापारी और बदमाश एक ही चीज है”।
सो, स्तालिन और दूसरे लेनिनपंथी बोल्शेविकों ने इसी सिद्धांत को पूरे विस्तार से लागू किया था। कुलकों के बाद यही दंड कई समुदायों को भी मिला, केवल इसलिए क्योंकि वे रूसी होते हुए भी जर्मन, क्रीमीयाई तातार, पोलिश, कोरियाई, यहूदी, आदि मूल से आते थे। उन्हें थोक में उजाड़ कर दूर भेज दिया गया था। इस नाम पर कि वे कभी विदेशियों से सहायता लेकर गड़बड़ी कर सकते हैं। इसी तरह, ‘कुलकों के सफाए’ के बाद मामूली किसानों को भी जबरन अकाल में डाला गया। उक्रेन जैसे अनाज उत्पादक इलाकों में सारा अनाज सरकार ने जबरन ले लिया, नदियों में मछली मारने पर भी पाबंदी लगाई गयी।
जिस से अगले कुछ महीनों में स्थानीय आबादी का खासा हिस्सा भूख से मर गया। शहरों से आए आदर्शवादी बोल्शेविक युवकों ने आकर देहातों में इस जबरिया अकाल को लागू किया। वे समझते थे कि नये वर्गहीन समाज के निर्माण के लिए कई वर्गों का खात्मा करना ठीक है। स्तालिन द्वारा देहातों पर इस उत्पीड़न में कुल मिलाकर एक करोड़ से अधिक जानें गईं! यह सब यूरोपीय बुद्धिजीवियों को बिलकुल पता न था। वे केवल 1930 के दशक में रूस में दिखावटी मुकदमों के द्वारा मारे गये नेताओं, लेखकों, आदि ‘द ग्रेट पर्ज’ वाली कुख्यात बातें ही जानते थे। क्योंकि उन में मारे गए अधिकांश लोग रूसी बुद्धिजीवी ही थे।