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कैद में सोल्झेनित्सिन का आत्मसुधार

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सोल्झेनित्सिन ने लिखा है कि ”आदमी पर घमंड उसी तरह सहज चढ़ता है जैसे सुअर पर चर्बी चढ़ती है।” यानी अनायास। … सोल्झेनित्सिन ने अपने दीर्घ, कठिन जीवन, और हजारों अन्य लोगों के जीवन के अवलोकन से पक्की तौर पर समझा था कि अच्छे और बुरे का भेद करने वाली रेखा ”हर मनुष्य की आत्मा से होकर गुजरती है”। उसे राष्ट्रों, समाजों, दलों, मतवादों में कदापि निर्धारित नहीं किया जा सकता।

गुलाग आर्किपेलाग की विरासत – 4

रूसी नागिरकों का सत्य बतलाते हुए सोल्झेनित्सिन ने अपने को देवता नहीं दिखाया है। उन्होंने नोट किया है कि अपनी गिरफ्तारी से पहले, जब कैप्टन सोल्झेनित्सिन द्वितीय विश्व युद्ध में लड़कर वापस आए, और आते ही उन को बंदी बना लिया गया (उन्होंने किसी मित्र को निजी पत्र में यह टिप्पणी की थी कि ‘हमारे देश में हर बात में पार्टी की महानता’ जोड़ने की क्या झक है! यही लिखना उन का अपराध था जिस के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया और बारह साल कैद तथा यातना शिविरों में बिताना पड़ा। बल्कि स्टालिन की मृत्यु हो जाने से काफी लोगों को छोड़ा गया था, उसी में सोल्झेनित्सिन भी छूट गये। यानी, संयोगवश ही।) लेकिन सोल्झेनित्सिन लिखते हैं कि गिरफ्तार होने से पहले वे भी अपने को ऊँचा समझते थे, और सेना में अपने मातहतों के प्रति उन्होंने भी जब-तब अनुचित व्यवहार किया था।

और कौन जाने यदि वे अपने सैनिक अफसर वाले कैरियर में ही सहज आगे बढ़ते जाते, तो अपने अहंकार में पता नहीं क्या करते होते! उन्होंने लिखा है कि ”आदमी पर घमंड उसी तरह सहज चढ़ता है जैसे सुअर पर चर्बी चढ़ती है।” यानी अनायास। सो, सोवियत व्यवस्था की परिस्थितियों में, जहाँ विमानवीयकरण एक मूल तत्व था, कौन  आगे चल कर क्या करता या न करता यह कहना असंभव है। अपनी गिरफ्तारी के बाद सोल्झेनित्सिन में जल्द ही निरंतर आत्म-निरीक्षण, पश्चाताप और आत्मसुधार की प्रवृत्ति बनती गई, जिस की झलक भी उन के लिखे विविध विवरणों में जहाँ-तहाँ मिलती है।

एक ऐसी निर्णायक घटना सोल्झेनित्सिन ने ‘गुलाग…’ में दर्ज की है। उन के साथ एक यहूदी कैदी था, बोरिस गम्मेरोव। एक बार यह खबर आई थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहीं पर प्रार्थना की। इस पर उपेक्षा से सोल्झेनित्सिन ने टिप्पणी की, ”अरे, यह तो बस पाखंड है।” यह सुनकर भावना से काँपते हुए दुर्बल गम्मेरोव ने कहा, ”क्या कोई राजनेता सचमुच ईश्वर में विश्वास करने वाला नहीं हो सकता?” तब सोल्झेनित्सिन को एक धक्का लगा, और उन्होंने महसूस किया कि उन्होंने विचार करके नहीं, बल्कि लापरवाही से ऐसी बात कही तो सोवियत शिक्षण और जीवन में अचेत रूप से स्वीकार कर ली थी। तब से उन्होंने विशेष ध्यान देना शुरू किया कि कौन सा निष्कर्ष विवेकपूर्ण है, और कौन सा बना-बनाया है।

इस विषय पर उन के इस ग्रंथ में एक अध्याय ही है। दूसरे खंड के चौथे भाग ‘आत्मा और कँटीले तार’ का पहला अध्याय ”उत्थान”। जिस में वे दुर्भाग्य और कैद में अपने को अधिकाधिक गंभीर और सूक्ष्म चिंतन, मनन के लिए प्रेरित करते हैं। उन्होंने इस पर ध्यान दिया कि ऐसे भयावह यंत्रणा शिविरों में भी कम ही कैदी आत्महत्या करते हैं। आखिर कुछ तो है जो उन के अंदर जीवित है, प्रेरित करता है। क्या मनुष्य में कोई ऐसी चीज भी है जो केवल जिन्दा रहने या खुशी खोजने से अलग है?

सोल्झेनित्सिन ने लिखा है, ”कठिन जीवन मनुष्य की दृष्टि साफ करता है, उसे विवेक देता है”। पर वह विवेक है क्या? क्या किसी भी कीमत पर जीना ही सर्वोपरि चीज है, दूसरों की कीमत पर भी? इसी प्रश्न के मोड़ पर दो अलग-अलग रास्ते बनते हैं। ”एक रास्ता ऊपर जाएगा, दूसरा नीचे। एक में तुम अपना जीवन खोओगे, दूसरे में अपनी अंतरात्मा।” इसी मोड़ पर लोगों की आत्मा विभाजित होती है। अधिकांश वह रास्ता लेते हैं जिस में जीवन बचता है। पर यातना शिविरों में भी सोल्झेनित्सिन को अनेक ऐसे कैदी मिले जिन्होंने अंतरात्मा की कीमत पर कोई सुविधा लेने से इन्कार किया। उन्होंने ऐसे कुछ पात्रों की सत्य कथा भी पूरे-पूरे विस्तार से दर्ज की है। जैसे अन्ना स्क्रिपनिकोवा।

जबकि सोवियत शिक्षा और नैतिकता ने लोगों को यह आम पाठ पढ़ाया था कि कम्युनिस्ट पार्टी का हित और आदेश ही नागरिकों के लिए सब से पहला नैतिक मानदंड है। जिस की अनिवार्य निष्पत्ति यह भी हो जाती थी, कि तब वैयक्तिक स्तर पर जिस में अपना हित है वही कार्य सही है। अर्थात कोई स्वतंत्र, हम सब से, पार्टी और देश से भी ऊपर, कोई नैतिक मूल्य नहीं है। ऐसे लोग कुछ भी अनुचित करने को तैयार हो सकते हैं जिन्होंने यह दयनीय मतवाद स्वीकार कर लिया है कि लोगों का जीवन बस सुख के लिए बना है।

जब ‘गुलाग …’ के प्रकाशन के बाद सोल्झेनित्सिन को सोवियत संघ से निष्कासित किया गया, तब उन के बयानों में सुखवाद को क्षुद्र बता कर कठोर आलोचना से पश्चिमी बुद्धिजीवी क्षुब्ध हो जाते थे। उन्हें आशा थी कि सोल्झेनित्सिन यूरोप और अमेरिका में लोगों के उन्मुक्त जीवन की तारीफ करेंगे। पर सोल्झेनित्सिन ने मानवता को एक मानकर दूसरे लोगों, देशों की स्थिति से बेपरवाह केवल अपने सुख और उन्नति की चिन्ता, और केवल राष्ट्रीय हित और राष्ट्रवाद को अनैतिक बताया। यह भी, कि ऐसा देश पूरी तरह आश्वस्त भी नहीं रह सकता जब तक दूसरे देशों में जुल्म, अत्याचार, और अमानवीयता हो। उन की दृष्टि में न्याय और विवेक को राष्ट्रीय सीमाओं में विभाजित नहीं किया जा सकता। वह अखंड है। इन बातों पर पश्चिम बुद्धिजीवियों ने सोल्झेनित्सिन को सनकी धार्मिक कहा था।

पर सोल्झेनित्सिन ने अपने दीर्घ, कठिन जीवन, और हजारों अन्य लोगों के जीवन के अवलोकन से पक्की तौर पर समझा था कि अच्छे और बुरे का भेद करने वाली रेखा ”हर मनुष्य की आत्मा से होकर गुजरती है”। उसे राष्ट्रों, समाजों, दलों, मतवादों में कदापि निर्धारित नहीं किया जा सकता। अतः किसी कार्य का परिणाम नहीं, बल्कि उसे कोई कैसे, किस भावना और मूल्य के लिए करता है – इस से उस कार्य का वास्तविक अर्थ तय होता है। तब आप अपनी दुर्बलता देख पाते हैं, और दूसरों की कमजोरियाँ भी। यानी, तब आप का चारित्रिक उत्थान होता है। “आप की आत्मा जो पहले रूखी थी, अब कष्ट झेल कर परिपक्व होती है। आप अपने जीवन की परीक्षा करते हैं और पाते हैं कि आप ने कितने बुरे और लज्जाजनक काम किये थे।”

सोल्झेनित्सिन याद करते हैं कि कई बार बुरे काम करते हुए वे आश्वस्त थे कि वे सही कर रहे हैं। अनेक बार जब वे अपने को बिलकुल निष्कलंक समझ‌ रहे थे, तो वस्तुत: भूल पर थे। जब उन्होंने समझा था कि कोई ईश्वर नहीं है, तब ईश्वर उन के साथ था! जैसा सोल्झेनित्सिन ने कहीं लिखा है, ”हे जगदीश्वर! मैं पुनः तुम पर विश्वास करता हूँ। मैंने तुम्हें खारिज किया, पर तुम मेरे साथ रहे।”

सोल्झेनित्सिन ने अंततः पाया कि, ”जीवन का अर्थ भौतिक उन्नति में नहीं है, जो मानने के हम आदी हो गये हैं, बल्कि अपनी आत्मा के उत्थान में है।” यह सत्य उन्होंने बिना भयंकर कष्ट उठाए नहीं पाया होता, इस के लिए उन्होंने जेल को अपने जीवन में आने के लिए धन्यवाद दिया।

इसलिए यह कुछ विचित्र बात है कि सोवियत कम्युनिज्म के दौर में हजारों, लाखों लोगों के उत्पीड़न, अंतहीन यंत्रणाओं, जुल्म, और‌ वेदना के विवरणों से भरा यह ग्रंथ पढ़कर मायूसी और निराशा नहीं होती। उलटे किसी सहृदय पाठक के मन में अंततः एक आशाजनक भाव ही उठता है। क्योंकि आद्योपांत पढ़ने पर ‘गुलाग आर्किपेलाग’ का संदेश यही है कि घरघोर बुराइयों के बीच भी कोई मनुष्य अच्छाई को पहचान और चुन सकता है। यह इस महान ग्रंथ की एक मूल्यवान विरासत है।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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