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समाज तोड़ने के खतरे हज़ार

ऐसे राष्ट्र, जिसे बहुलतावाद पर अमल के अलावा किसी अन्य माध्यम से चलाना नामुमकिन हो, वहां वर्चस्व की कोशिश एकता को खतरे में डालती है। किसी पक्ष के नैतिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के प्रयासों से हमारा देश दो भागों में बंट जाएगा। … भारत की राजनीति में आज शिष्टता, विपक्षी के लिए सम्मान का भाव, भाषा की मर्यादा और नागरिक स्वतंत्रताओं का सम्मान हालिया वर्षों में विजातीय तत्व बनते चले गए हैं। मगर उनसे भी ज्यादा चिंताजनक वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास हैं।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2018 में सीएनएन टीवी चैनल को दिए एक इंटरव्यू कहा थाः अमेरिका में (बढ़ते) मतभेद और शिष्ट विचार-विमर्श के अभाव के कारण सामाजिक व्यवस्था भंग होने की स्थिति बन सकती है, जिससे गृह युद्ध का खतरा भी पैदा हो सकता है।

ओबामा ने 2020 में ब्रदर्स कीपर्स एलायंस के सम्मेलन को संबोधित करते हुए चेतावनी दी थीः देश एक चौराहे पर है। हमने अगर व्यवस्थागत नस्लभेद, गैर-बराबरी और दुष्प्रचार का समाधान नहीं निकाला, तो हम अफरातफरी- यहां तक कि गृह युद्ध की स्थिति में भी जा सकते हैं।

ओबामा ने 2022 में अटलांटिक मैग्जीन को दिए इंटरव्यू में संस्थाओं के क्षय पर चिंताते हुए कहाः स्थितियों को इसी हाल में छोड़ दिया गया, तो समाज में टूटन पैदा हो सकती है। यहां तक कि गृह युद्ध जैसे हालात भी बन सकते हैँ। (Barack Obama on Disinformation and Ukraine – The Atlantic)

आठ साल (2009-17) राष्ट्रपति रहते हुए ओबामा का खुद अपना रिकॉर्ड कैसा रहा, यह एक दीगर सवाल है। यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि देश के सबसे ऊंचे पद पर रहा हुआ व्यक्ति अगर बार-बार ऐसी बातें कह रहा हो, तो उसका अर्थ क्या है। जाहिर है यही कि समाज में टूट और गृह युद्ध की आशंका अमेरिका में सर्वोच्च स्तर तक व्याप्त हो चुकी है।

अमेरिका में गृह युद्ध की आशंकाओं के अध्ययनकर्ता पैट्रिक मेजा ने अपनी एक ताजा टिप्पणी में लिखा है- ‘अमेरिका में दो ऐसे विरोधी खेमों के बीच खाई चौड़ी होती जा रही है। उनके बीच मतभेदों को पाटना लगभग असंभव मालूम पड़ रहा है। बिना किसी प्रकार का टकराव हुए इन मतभेदों का हल कैसे निकाला जाएगा, यह समझ पाना कठिन हो गया है। सिर्फ यही उम्मीद की जा सकती है कि यह टकराव खून-खराबे से भरा ना हो, हालांकि देश के हिंसक इतिहास को देखते हुए इस बारे में ज्यादा भरोसा पैदा नहीं होता। अगले नवंबर में चाहे जो भी राष्ट्रपति चुना जाए, अमेरिकी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा उससे नाखुश होगा, जो उस परिणाम को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानेगा। और यही तो विध्वंसक टकरावों का नुस्खा है।’ (How Civil Wars Start – CounterPunch.org)

इतनी गंभीर आशंकाएं क्यों घर करती गई हैं? इसका कारण वे अध्ययन और जनमत संग्रह हैं, जिनसे लोगों में बनी सोच जाहिर होती है। यह सोच काफी समय से एक दिशा में आगे बढ़ी है- यानी यह कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है। अपनी उपरोक्त टिप्पणी में ही मेजा ने वर्जिनिया यूनिवर्सिटी के 2021 की एक सर्वे रिपोर्ट का जिक्र किया, जिसमें बताया गया कि रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के गढ़ राज्यों में अपना अलग देश बना लेने की राय का समर्थन करने वाले लोगों की संख्या अब ठोस रूप ले चुकी है। सर्वे कर्ताओं के सामने पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के 52 प्रतिशत समर्थकों ने इस बात समर्थन किया कि रिपब्लिकन बहुल राज्यों को अलग देश बना लेना चाहिए। राष्ट्रपति जो बाइडेन  41 प्रतिशत समर्थकों ने ऐसी ही राय डेमोक्रेटिक बहुल राज्यों के लिए जताई। सर्वे में जब यह पूछा गया कि क्या विरोधी दल के नेता लोकतंत्र के लिए खतरा हैं, तो 84 प्रतिशत ट्रंप समर्थकों और 80 प्रतिशत बाइडेन समर्थकों ने “हां” कहा। मेजा ने लिखा है कि ऐसी ही स्थितियां गृह युद्ध का कारण बनती हैँ।

द इकॉनमिस्ट पत्रिका से जुड़ी सर्वे एजेंसी you-gov के 2022 के सर्वे (How Americans evaluate the likelihood of dire political scenarios . YouGov) में 40 प्रतिशत अमेरिकियों ने यकीन जताया था कि देश में गृह युद्ध होगा, 47 प्रतिशत ने आशंका व्यक्त की कि देश आर्थिक रूप से ढह जाएगा, जबकि 50 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अब अमेरिका वैश्विक महाशक्ति नहीं रह जाएगा।

अमेरिका में अलगाव के बढ़ते खतरे पर पिछले लेखक डेविड फ्रेंच की किताब आई है-  Divided We Fall: America’s Secession Threat and How to Restore Our Nation। अमेरिका में बढ़ते अलगाववाद के लिए डेविड फ्रेंच अमेरिकी राजनीतिक वर्ग (political class) को जिम्मेदार मानते हैं। उन्होंने कहा है- अमेरिकी राजनीति के संचालक ये लोग तनाव बढ़ाने पर आमादा हैं। ऐसा करते हुए अपने समर्थकों को वे लगातार अधिक उन्मादी बना रहे हैं।

फ्रेंच ने अमेरिका के बारे में जो लिखा, उस पर भारत जैसे देश में भी लोगों को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा है- “ऐसे राष्ट्र, जिसे बहुलतावाद पर अमल के अलावा किसी अन्य माध्यम से चलाना नामुमकिन हो, वहां वर्चस्व की कोशिश एकता को खतरे में डालती है। किसी पक्ष के नैतिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के प्रयासों से हमारा देश दो भागों में बंट जाएगा।” अमेरिका की एकता कायम रखने के मकसद से फ्रेंच ने सुझाव दिया है कि सभी पक्ष शिष्टता बरतें, पारंपरिक उदारता का परिचय दें और नागरिक स्वतंत्रताओं का सम्मान करें।

अमेरिका में जो हालात बन गए हैं, उस ओर इशारा करते हुए मेजा ने बताया है कि शिष्टता, उदारता और नागरिक स्वतंत्रताओं का सुझाव देकर फ्रेंच खुद आलोचनाओं के निशाने पर आ गए। ट्रंप समर्थक अखबार न्यूयॉर्क पोस्ट के विचार संपादक सोहराब अहमरी ने फ्रेंच को जवाब देते हुए एक लेख लिखा। उसमें उन्होंने कहा कि राजनीति जब युद्ध और दुश्मनी की दिशा में जा रही हो, तो शिष्टता और विनम्रता दूसरे दर्जे के उसूल बन जाते हैँ।

खैर, ये तो अमेरिका की बातें हुईं। अब हम अपने देश की तरफ लौटते हैं। यहां की सियासत में आज जो गतिशास्त्र (dynamics) है, वह अमेरिकी स्थितियों से बहुत अलग नहीं है। राजनीति में शिष्टता, विपक्षी के लिए सम्मान का भाव, भाषा की मर्यादा और नागरिक स्वतंत्रताओं का सम्मान हालिया वर्षों में विजातीय तत्व बनते चले गए हैं। मगर उनसे भी ज्यादा चिंताजनक वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास हैं। फ्रेंच ने अमेरिकावासियों को चेतावनी दी है कि “किसी पक्ष के नैतिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के प्रयास से हमारा देश दो भागों में बंट जाएगा।”

यह विचारणीय है कि क्या भारत में कुछ ऐसे भी तबके हैं, जो यह महसूस कर रहे हों कि उन पर दबदबा कायम करने की कोशिशें की जा रही हैं? और यहां हम सिर्फ मुस्लिम समुदाय की बात नहीं कर रहे हैं, जिसके भीतर अगर ऐसी सोच आई हो (जो अक्सर इस समाज के लोगों से बातचीत में जाहिर होती है), तो उसकी वजहें समझी जा सकती हैं। यहां हम इस सवाल को एक अन्य संदर्भ में उठा रहे हैं।

कुछ समय पहले प्रकाशित हुई एक किताब को हाल में पढ़ते हुए यह सवाल मन में अधिक शिद्दत से उठा। SOUTH vs NORTH : India’s Great Divide नाम से आई इस किताब के लेखक नीलकांतन आर.एस. हैं। किताब के कवर पेज पर तमिलनाडु की प्रमुख राजनीतिक पार्टी डीएमके के नेता, राज्य के सूचना तकनीक एवं डिजिटल सेवा मंत्री तथा पार्टी के वैचारिक प्रवक्ता माने जाने वाले पलनिवेल त्यागराजन (पीटीआर) का यह कथन छापा गया हैः This eye-opening book is required reading for every Indian (आंख खोल देने वाली यह किताब हर भारतीय के लिए पढ़ना जरूरी है)

किताब का मुख्य विषयवस्तु विकास के पैमानों पर दक्षिणी राज्यों की प्रगति और उत्तरी राज्यों का पिछड़ापन है। इसका कारण क्या है, इस सवाल की चर्चा करते हुए किताब में जो तर्क दिया गया है, वह गौरतलब हैः

“तो आखिर क्या वजह है कि दक्षिणी राज्य बेहतर नीतियां बना पाए और उन पर अमल भी कर पाए? अध्ययन पत्रों में इसका श्रेय जिन पहलुओं को दिया गया है, उनमें एक उप-राष्ट्रीयता (sub-nationalism) भी एक है। भारत में sub-nationalism के उदाहरण अक्सर भाषाई पहचान पर आधारित रहे हैं, इसलिए कि ये अस्मिताएं हजारों साल पुरानी हैं। स्थान विशेष के अंदर आपसी जुड़ाव का भाव वैसे सकारात्मक पहलू के रूप में सामने आता है, जिससे विभिन्न क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा मिलता है। यह सामान्य बात है कि जब इंसान साझा उद्देश्य की भावना से प्रेरित होते हैं, तो वे बड़ी उपलब्धियां हासिल करते हैं।”

इसके बाद लेखक ने यह तर्क दिया है कि दक्षिणी राज्यों के लिए अपनी सफलता ही बोझ बन गई है। इस संदर्भ में इन पहलुओं का जिक्र हैः

  • दक्षिणी राज्यों ने विकास के अपने बेहतर रिकॉर्ड से जनसंख्या नियंत्रण में सफलता पाई। जबकि उत्तरी राज्यों का प्रदर्शन उलटी दिशा में रहा। इसे तर्क बना कर अब केंद्र सरकार दक्षिणी राज्यों को कम संसाधन आवंटित कर रही है।
  • कर राजस्व समेत अन्य संसाधनों का संग्रहण केंद्रीकृत होता गया है, जिससे संसाधन जुटाने के मामले में राज्यों के हाथ बंध गए हैँ।
  • दक्षिणी राज्यों को जनसंख्या नियंत्रण में मिली सफलता का बड़ा नुकसान 2026 में हो सकता है, जब लोकसभा की सीटों का परिसीमन होगा। आशंका जताई गई है कि अगर उसमें राज्यों से प्रतिनिधित्व तय करने का आधार आबादी को बनाया गया, तो संसद में दक्षिणी राज्यों के प्रतिनिधि आनुपातिक रूप में घट जाएंगे। इसका असर उनकी सियासी आवाज पर पड़ेगा।

इसी सिलसिले में किताब के दो पैराग्राफ ध्यान खींचने वाले हैः

–              दक्षिणी राज्यों की सफलता पर लगातार दबाव बढ़ रहा है। (हिंदू) राष्ट्रवाद की राजनीति से प्रेरित भारतीय संघ ने नीति निर्माण का केंद्रीयकरण करने की कोशिश की है। राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिणी राज्यों के महत्त्व में गिरावट और उनकी समृद्धि में बढोतरी- ये दोनों बातें साथ-साथ हुई हैँ।…

–              उत्तरी भारत में वर्चस्वकारी विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद का जो उभार हुआ है, उसमें राज्य-व्यवस्था तथा नीति निर्माण में बहुलता को वांछनीय नहीं माना जाता। वैसे तो जनसंख्या संबंधी अंतर कभी भी दक्षिणी राज्यों के पक्ष में नहीं रहा, लेकिन उत्तर एवं दक्षिण में जनसंख्या वृद्धि की विपरीत दिशा से स्थितियां उत्तर के पक्ष में और भी ज्यादा झुक गई हैं। इन कारणों से एक का लाभ दूसरे के नुकसान के सिद्धांत (zero sum game) पर टिकी चुनावी राजनीति में दक्षिण भारत जूनियर पार्टनर बन गया है। निर्णय प्रक्रिया में उसका प्रभाव घटता चला गया है।

इन शिकायतों का जिक्र करने के साथ-साथ किताब में उन संभावित खतरों की ओर भी इशारा किया गया है, जो इनकी वजह से पैदा हो सकती हैं। चेतावनी दी गई है कि इस समस्या के प्रति नासमझी भरी और आवेश में जताई गई प्रतिक्रियाएं देश की एकता के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती हैं।

ये शिकायतें दक्षिणी राज्यों में किस तरह की भावनाएं पैदा कर रही हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पुस्तक लेखक ने आजादी के बाद भारत के एकीकरण से संबंधित प्रश्नों को यहां फिर से उठा दिया है। इसी सिलसिले में उन्होंने ये बात याद दिलाई हैः “आजादी के बाद भारत का जो ढांचा तैयार किया गया, उसने उस समय मौजूद तकाजों को पूरा किया- मजबूत संघ बिखराव और गृह युद्ध को टालने में सफल रहा, जो प्रवृत्तियां बीसवीं सदी के मध्य में उपनिवेशवाद से आजाद हुए अनेक समाजों में आम तौर पर उभरी थीं। लेकिन राज्यों के अधिकारों का सम्मान ना करने वाले मजबूत संघ का विचार अब अपनी उपयोगिता खो चुका है।”

नीलकांतन ने कहा हैः एक ऐसा भारत जो संघ की कम और अपनी घटक इकाइयों तथा समुदायों की ज्यादा चिंता करे, वही अपनी विभिन्नताओं, मतभेदों और अंतर्विरोधों को बेहतर ढंग से संभाल पाएगा। वह एक ऐसा संघ होगा, जिसमें हर जगह के लोग खुद बराबर महसूस करेंगे।

हमने इस किताब के उद्धरण विस्तार से इसलिए दिए हैं, ताकि दक्षिण में उभर रही भावनाओं को समझने में उत्तर के लोगों को मदद मिले। गौरतलब है कि नीलकांतन ने जो कहा है, वे नई बात नहीं हैँ। दक्षिण भारत में बौद्धिक से लेकर राजनीतिक दायरे तक में ये बातें सुनने को अक्सर मिलती रही हैं। यहां मुद्दा यह नहीं है कि ये शिकायतें तथ्यों पर आधारित हैं या नहीं। मुद्दा यह है कि ऐसी शिकायतें उत्पन्न हुई हैं- भले उनमें से कुछ शिकायतों का तथ्यात्मक आधार ना भी हो।

एक लोकतांत्रिक समाज में अपेक्षा यह की जाती है कि ऐसी शिकायतों पर गौर किया जाए- उनको लेकर संबंधित समाजों या समुदायों से संवाद स्थापित किया जाए। शिकायतों को दबाने या उन्हें नजरअंदाज करने की कोशिश अक्सर गलत परिणाम देती है। यह काबिल-ए-तारीफ है कि नीलकांतन ने इन शिकायतों के लोकतांत्रिक समाधान की वकालत की है।

लोकतंत्र को समाजों की एकता, शांति एवं उनकी समृद्धि का आधार इसलिए माना जाता है, क्योंकि उसमें सभी घटक पक्ष अपनी भागीदारी देखते हैं। यह छोटी उपलब्धि नहीं है कि आजादी के बाद के साढ़े सात दशकों में भारतवासियों के बीच अपने देश की राजसत्ता का नियंत्रक होने का भाव गहराता चला गया है। बात कहने की आजादी और वोट की ताकत से खुद निर्णायक होने का भाव- विभिन्नता से परिपूर्ण भारत की एकता का आधार बना रहा है। इन्हीं उपकरणों से भारत विंस्टल चर्चित जैसे उपनिवेशवादी और नस्लभेदी ब्रिटिश नेता की इस भविष्यवाणी को गलत साबित कर पाया कि अंग्रेजों के जाने के बाद दस वर्षों के अंदर भारत बिखर जाएगा।

आज जबकि सत्ता पक्ष की वर्चस्ववादी राजनीति के कारण विभिन्न समुदायों में अपने साथ अन्याय होने का भाव पैदा हो रहा है, तो ऐसी शिकायतों और चेतावनियों को अति गंभीरता से लेने की जरूरत है। सिर्फ अपने लिए जोखिम मोल लेते हुए ही इन्हें हम नजरअंदाज कर सकते हैँ।

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By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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