दिल्ली के चुनाव नतीजों की अलग अलग नजरिए से व्याख्या हो रही है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम आदमी पार्टी और खुद अरविंद केजरीवाल का चुनाव हार जाना एक बड़ी परिघटना है। आंदोलन से निकली एक पार्टी ने एक दशक के समय में जो मुकाम हासिल किया था वहां से उसका नीचे गिरना कई बातों का संकेत है। आमतौर पर यह माना जा रहा है कि आंदोलन से निकली पार्टी अपने मूल्यों को भूल गई और किसी दूसरी पारंपरिक पार्टी की तरह राजनीति करने लगी इसलिए उसकी हार हुई है। यह भी कहा जा रहा है कि एक विचारधारा विहीन पार्टी का यह हस्र होना तय था।
यह भी कहा जा रहा है कि आम आदमी पार्टी चुनावी सफलता के पीछे भागती रही और उसने संगठन व काडर बनाने पर ध्यान नहीं दिया इसलिए उसकी हार हुई है। ये सारी बातें सही हैं और आम आदमी पार्टी व अरविंद केजरीवाल की हार में इन सब कारणों का योगदान है। परंतु अब हार के कारणों से आगे देखने की जरुरत है। आगे क्या? क्या धूमकेतु की तरह उभरे अरविंद केजरीवाल अब समाप्त हो जाएंगे और उनकी तरह दूसरी प्रादेशिक पार्टियों के अस्तित्व पर भी ग्रहण लगेगा और इससे भाजपा व कांग्रेस के रूप में दो ध्रुवीय राजनीति की बुनियाद बनेगी? हो सकता है ऐसा हो लेकिन उसके साथ ही एक और बदलाव की संभावना दिख रही है और वह ये है कि दिल्ली के नतीजे से रेवड़ी की राजनीति के अंत की शुरुआत हो गई है।
हालांकि पहली नजर में ऐसा दिख नहीं रहा है, बल्कि इसका उलटा दिख रहा है। ‘रेवड़ी राजनीति के अंत की शुरुआत’ के निष्कर्ष को यह कह कर खारिज किया जा सकता है कि असल में दिल्ली में भाजपा की जीत रेवड़ी राजनीति की ही जीत है। क्योंकि भाजपा ने न सिर्फ आम आदमी पार्टी की सरकार की रेवड़ियों को जारी रखने का वादा किया, बल्कि उसके ऊपर भी बहुत कुछ देने की घोषणा की है। इसके बावजूद दिल्ली के चुनाव नतीजे में रेवड़ी राजनीति के खत्म होने के बीज छिपे हैं। हो सकता है कि इस बीज के अंकुरित होने में थोड़ा समय लगे लेकिन देर सबेर ऐसा होगा जरूर। ऐसा मानने का कारण यह है कि दिल्ली के लोगों को अगर सिर्फ मुफ्त की चीजों और सेवाओं की घोषणा से प्रभावित होकर वोट करना होता तो उनके सामने भाजपा से बेहतर विकल्प आम आदमी पार्टी का था। आम आदमी पार्टी का मुफ्त की रेवड़ी बांटने का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है। इसके बावजूद लोगों ने उसको छोड़ कर भाजपा को वोट दिया तो उसके पीछे रेवड़ी राजनीति के अलावा भी कुछ चीजें हैं।
लोगों ने रेवड़ी बंटने की निरंतरता कायम रहते हुए कुछ और काम होने की उम्मीद में भाजपा को वोट दिया है। उनकी वह उम्मीद आप और अरविंद केजरीवाल की सरकार से पूरी नहीं हुई थी। यह उम्मीद 2015 में पूर्ण बहुमत की केजरीवाल की सरकार बनने के साथ ही टूटने लगी थी लेकिन लोगों ने 2020 में उस पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने 2020 में मुफ्त की रेवड़ी के नाम पर वोट कर दिया। य़हां तक कि 2022 में पंजाब में भी इसी उम्मीद में आप को छप्पर फाड़ वोट मिले और उसकी सरकार बनी। परंतु 2025 आते आते पानी सिर के ऊपर से बहने लगा तब लोगों ने रेवड़ी की राजनीति को खारिज किया।
उन्होंने सिर्फ इस उम्मीद में भाजपा को वोट नहीं दिया है कि वह बहुत सारी चीजें और सेवाएं मुफ्त में देगी, बल्कि इस उम्मीद में दिया है कि भाजपा की सरकार दिल्ली को विश्वस्तरीय शहर बनाने के लिए काम करेगी। यमुना की सफाई करेगी। सड़कों और गलियों को साफ रखेगी। नालों की सफाई होगी। दिल्ली की हवा साफ होगी और लोगों के घरों में पीने का साफ पानी पहुंचेगा। नौकरी व रोजगार के अवसर बनेंगे। अगर दिल्ली के लोगों की यह उम्मीद है तो जाहिर है कि वे रेवड़ी की राजनीति को किनारे करने के लिए तैयार हैं। भले पूरी तरह से नहीं हों लेकिन अब उस दिशा में उन्होंने सोचना शुरू कर दिया है और अगर भाजपा की सरकार उन उम्मीदों को पूरा करती है तो रेवड़ी की राजनीति से ध्यान हटेगा।
ध्यान रहे सांस्थायिक रूप से रेवड़ी की राजनीति अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली से ही शुरू की थी। उन्होंने लोक कल्याण और मुफ्त की रेवड़ी का फर्क मिटा दिया था। उन्होंने तमिलनाडु मॉडल पर चुनाव को प्रभावित करने के लिए वन टाइम रेवड़ी नहीं बांटी थी, बल्कि उसको स्थायी स्वरूप दिया था। गौरतलब है कि तमिलनाडु में चुनाव को प्रभावित करने के लिए पार्टियां चुनाव के समय महिलाओं को मिक्सर, ग्राइंडर से लेकर वाशिंग मशीन और मंगलसूत्र देने का वादा करती थीं और देती भी थीं। वोट खरीदने के लिए पैसे भी बांटे जाते थे।
लेकिन हर महीने बिजली, पानी मुफ्त में देने या मुफ्त बस पास देने जैसी योजनाएं नहीं चलाई जाती थीं। एक बार मंगलसूत्र देंगे या लैपटॉप देंगे यह चलता था। केजरीवाल ने इस रेवड़ी राजनीति को सांस्थायिक रूप दिया। इसी को उन्होंने दिल्ली मॉडल के तौर पर प्रचारित किया। स्कूलों और अस्पतालों का रंग रोगन करके पीआर स्टंट के जरिए उसका प्रचार करना और मुफ्त की चीजें व सेवाएं बांटना उनका मुख्य काम रहा। दिल्ली, पंजाब सहित कई राज्यों में उनको इसका फायदा मिला और उनकी देखादेखी सभी पार्टियों ने रेवड़ी राजनीति शुरू कर दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू में इसका विरोध किया और इसे अर्थव्यवस्था को बरबाद करने वाला बताया लेकिन बाद में उनको भी समझ में आया कि यही चुनाव जीतने का मंत्र है तो वे भी बहती गंगा में कूद गए।
अब इस गंगा की गंगोत्री यानी दिल्ली में इसके भगीरथ यानी अरविंद केजरीवाल चुनाव हार गए हैं। यह निजी तौर पर उनके लिए बड़ा झटका है लेकिन रेवड़ी राजनीति के चुनाव जिताने की गारंटी पर भी सवालिया निशान लगाता है। जो वर्ग पूरी तरह से मुफ्त की रेवड़ी की उम्मीद में रहा या जिसने भाजपा को हराने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर उठा रही है उसको छोड़ कर बाकी लोगों ने भाजपा को वोट किया। यह एक बड़ा आकांक्षी वर्ग है। उसको यह भी समझ में आ रहा है कि रेवड़ी बांटने के चक्कर में सरकारों का खजाना खाली हो रहा है और सरकारें बुनियादी ढांचे के विकास का काम नहीं कर पा रही हैं या रोजगार के अवसर पैदा करने वाली योजनाएं नहीं ला पा रही हैं। उसके लिए सरकार भी पूरी तरह से निजी निवेश और निजी क्षेत्र की गतिविधियों पर निर्भर हो गई है। रेवड़ी की राजनीति से सरकारों का खजाना खाली हो रहा है और उस पर कर्ज का बोझ बढ़ रहा है और इसी वजह से सरकारें अंधाधुंध टैक्स वसूल रही हैं, जो अंततः आम लोगों की जेब से ही निकल रहा है। अगर लोगों को ये बातें समझ में आती हैं तो इसी से रेवड़ी की राजनीति का अंत होगा।
रोशनी की एक किरण यह भी दिख रही है कि दिल्ली के नतीजे से पहले की लोक कल्याण और रेवड़ी राजनीति पर चर्चा होने लगी थी। दिल्ली हाई कोर्ट से रिटायर जज जस्टिस एसएन ढींगरा ने इसे लेकर एक जनहित याचिका दिल्ली हाई कोर्ट में दायर की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हाई कोर्ट में लोक कल्याण बनाम रेवड़ी की राजनीति पर सार्थक बहस होगी। अगर अदालत दोनों के बीच के बारीक फर्क को समझाए तो पार्टियों के लिए भी बड़ी राहत की बात होगी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि पार्टियां और राज्य सरकारें भी इस राजनीति के जाल से निकलना चाहती हैं।
लेकिन उनको कोई रास्ता नहीं सुझ रहा है। उन्होंने जनता को इसकी ऐसी लत लगाई है, जिसे छुड़ाना आसान नहीं है। लेकिन अगर अदालत से निर्णायक फैसला आ जाए कि सरकारें लोक कल्याण के काम तो करेंगी यानी शिक्षा व स्वास्थ्य की सस्ती व बेहतर सेवा देंगी और कृषि व छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन देने वाली योजनाएं चलाएंगी लेकिन मुफ्त की चीजें नहीं बांटेंगी तो रेवड़ी राजनीति पर विराम लग सकता है।