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….इसलिए यूरोप के बड़े क्लबों में नहीं खेल पाया क्षेत्री !

सुनील छेत्री की जगह कौन भारतीय फुटबॉलर लेगा? फिलहाल यह सवाल जस का तस बना हुआ है। इसलिए क्योंकि पिछले बीस सालों में अकेला सुनील भारत की कमजोर और दीन-हीन फुटबॉल का पालनहार बना रहा। जब कभी टीम संकट में आई तो नजरें एकमात्र खिलाड़ी पर लगी रहती थीं और उसने कभी भारतीय फुटबॉल प्रेमियों को निराश भी नहीं किया।

बेशक, भारतीय फुटबॉल के तमाम रिकॉर्ड उसके नाम दर्ज हैं। देश के लिए 150 बार खेलने वाला यह स्टार स्ट्राइकर 94 अंतरराष्ट्रीय गोल जमाने में सफल रहा है, जो कि क्रिस्टियानो रोनाल्डो और लियोनेल मेस्सी जैसे दिग्गज सितारों के बाद सबसे बड़ा आंकड़ा है। इस बीच उसने एशियाई स्तर के आयोजनों में अनेकों बार भारतीय फुटबॉल के लिए मुख्य भूमिका निभाई है।

फुटबॉल प्रेमी अक्सर पूछते हैं कि भारत की गोल मशीन सुनील छेत्री यूरोप, लैटिन अमेरिकी और एशियाई के बड़े क्लबों के लिए क्यों नहीं खेल पाया? बेशक, यह सवाल मायने रखता है लेकिन भारतीय फुटबॉल का दयनीय प्रदर्शन हमेशा आड़े आया है। उसके अंदर बड़े क्लबों में खेलने का माद्दा रहा, लेकिन वहां तक पहुंच पाना कदापि आसान नहीं था। पिछले पचास सालों से भारतीय फुटबॉल लगातार नीचे गिर रही है। फीफा रैंकिंग में कभी-कभार सुधार जरूर हुआ लेकिन चंद कमजोर एशियाई देशों को हराने से रैंकिंग में बड़ा उछाल संभव नहीं है।

अर्थात क्षेत्री को देश की फुटबॉल के बर्बाद ढांचे, पदाधिकारियों के भ्रष्टाचार, फुटबॉल फेडरेशन की गंदी राजनीति और क्लब फुटबॉल में स्तरीय खिलाड़ियों की कमी की कीमत चुकानी पड़ी। फुटबॉल जानकारों की राय में यदि टीम इंडिया के पास कुछ अच्छे मिडफील्डर और डिफेंडर होते तो उसके गोलों की संख्या ज्यादा हो सकती थी। लेकिन अब अगर-मगर का वक्त नहीं है। भारतीय फुटबॉल आकाओं को अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है। उन्हें जान लेना चाहिए कि छेत्री नहीं तो कुछ भी नहीं।

देश के पूर्व फुटबॉल खिलाड़ियों की राय में अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ ने अपना काम बखूबी किया होता तो छेत्री के कई विकल्प उपलब्ध होते लेकिन ऐसा नहीं हो पाया, क्योंकि फुटबॉल के उत्थान के लिए महासंघ के पास कोई कार्यक्रम है ही नहीं। कुछ पूर्व खिलाड़ी मानते हैं कि छेत्री जैसे खिलाड़ी सालों में पैदा होते हैं लेकिन कमजोर और सड़ा-गला ढांचा उन्हें पनपने नहीं देता।

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