राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

क्या इजराइल मिट जाएगा?

गंगा आरती

दरअसल इजराइल की जान पर वही जिहादी आफत है, जो भारत के हिन्दुओं पर पिछले हजार, विशेष कर सौ सालों से है! जैसे विविध इस्लामी दस्तों, संगठनों ने भारत पर बाहर-अंदर से हमले किए हैं, उसी तरह इजराइल के बनते ही उस पर मिस्र, इराक, जोर्डन, लेबनान, सीरिया ने इकट्ठा हमला किया था। पर जो इजराइल को ही दुष्ट दोषी मान कर सारा विमर्श करते हैं, उन्हें याद रहे कि यहूदी लोग इतने शान्त स्वभाव रहे हैं कि खुद मुस्लिम उन्हें कायर कहते थे!

भारत में सदा की तरह फिलीस्तीन का रोना शुरू हो गया है। जबकि इजराइल के लिए बोलने वाले मुख्यतः सोशल मीडिया में कुछ लोग हैं, जिन के हाथ में कुछ नहीं। सत्ता और संसाधन वाले भारतीय नेता व बौद्धिक फिलीस्तीनियों की मदद को उत्साहित हैं। मोटे तौर पर पूरे विश्व में यही दृश्य है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने तो सारा दोष इजराइल पर ही मढ़ दिया है।

इस तरह, इजराइल अपनी लड़ाई प्रायः अकेले लड़ रहा है। चारों तरफ से खून के प्यासे दुश्मनों से घिरा। एक भी हार इजराइल को समाप्त कर देगी। उस के दुश्मन, और पश्चिमी नेतागण भी, यह जानते हैं। इसीलिए तमाम वैज्ञानिक, तकनीकी, सामरिक क्षमता के बावजूद इजराइल पर हमले कभी बंद नहीं होते।

इस पूरे प्रकरण में असली बात छिपाई जाती है। कुछ उसी तरह जैसे भारत में ‘सेक्यूलर’ राजनीति की असल बात गोल की जाती है। सो, हमास का हमला एक लिफाफा है। वस्तुत: ऐसे निरंतर हमलों का स्रोत ईरान तथा कई अन्य इस्लामी देश हैं। वही देश, जिन्हें अमेरिका, यूरोप, भारत, रूस, और चीन भी लाभ पँहुचाते रहे हैं। यदि यह न होता तो केवल हमास की हैसियत नहीं कि वह किसी पर ऐसी भयंकर चोट करे। ऊपर से उस के शिकार नागरिकों के कत्ल और बलात्कार के वीभत्स वीडियो सब को दिखाकर अपनी हेकड़ी भी जताए!

अतः हमलावर हमास की पीठ पर ईरान की इस्लामी सत्ता है, जिस ने इजराइल का खात्मा करने की घोषणा दशकों से कर रखी है। जबकि इजराइल ने ईरान, या किसी पड़ोसी देश का कभी बुरा नहीं किया। पिछले सात दशकों का इतिहास देखें तो हमेशा बगल के इस्लामी देशों ने ही उस पर हमले किये। पहली बार 1948 ई. में, इजराइल के बनते ही। फिर 1956, 1967 और 1973 में भी पुनः उस पर हमले हुए। इस का असल कारण है कि इस्लाम यहूदियों से घृणा करता है, इसलिए उस का खात्मा करने की जिद्दी नीति है। इस नीति की यूरोप या अमेरिकी सरकारें अनदेखी करती रही हैं। तब इस का अर्थ समझने में हमास या किसी भी जिहादी को क्या कठिनाई होगी?

एक बार भारत की धरती पर खड़े होकर ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने इजराइल को ‘दुनिया के नक्शे से हटा देने’ की बात कही थी! उस पर हमारे महानुभावों ने क्या किया? वही, जो अभी कर रहे हैं। यानी फिलीस्तीन को पीड़ित बताकर उलटी, और कायराना बयानबाजियाँ। इस प्रकार, ईरान की घोर हिंसक घोषणाओं और इजराइल को मिटाने के लिए परमाणु तैयारियों पर भी चुप रहकर उसे तरह देना। कुछ पहले ईरान ने अपनी मिसाइल पर बड़े-बड़े शब्दों में यह लिख कर परीक्षण कियाः ‘इजराइल को दुनिया से मिटा देना है!’ सारी दुनिया ने यह संदेश देखा, सुना। पर क्या प्रतिक्रिया की? कुछ नहीं।

इस तरह, ईरानी इस्लामियों के मंसूबों पर अंकुश लगाने के बदले हर तरह के देश स्वार्थवश उसे मदद ही देते रहते हैं। हाल में अमेरिका ने उन्हें भारी आर्थिक संकट से उबारा। यही हमास के दुस्साहस और घमंड का असल कारण है। किन्तु इस पर विचार के बदले गैर-मुस्लिम विश्व के बौद्धिक- नेता इजराइल को ही दुष्ट दिखाते रहते हैं।

किन्तु जरा सोचें कि यहूदी समुदाय और इजराइल का समूल सफाया करने की खुली नीति के पीछे कौन-सा मतवाद है? यह वही मतवाद है जो यहूदियों को ही नहीं, तमाम गैर-इस्लामी विश्वासों, प्रतीकों, और लोगों को भी समूल खत्म करने का इरादा रखता है। कोई छिपाकर नहीं, बल्कि अपने लोगों को रोज पाँच बार याद दिलाकर! यदि ऐसे मतवाद की जानकारी, और उस की नियमित घोषणाएं सुनते रहने, तथा श्रीनगर से लेकर पेरिस, एवं चेचेनिया से नाइजीरिया तक समान तरह की अंतहीन हिंसक, वीभत्स कार्रवाइयाँ देखने के बाद भी क्रिश्चियन, बौद्ध, और हिन्दू देशों के सत्ताधारी मूक बने रहे हैं।

क्या वे हिटलर की बढ़त वाला इतिहास दुहरा रहे हैं? कि जब तक उन पर सीधा हमला न हो, दूसरों के विनाश की अनदेखी करते रहें (‘म्यूनिख भावना’)। फलत: जैसे हिटलर बढ़ता गया, वैसे ही जिहाद भी निरंतर बढ़ रहा है। हिंसक से अधिक अहिंसक तरीकों से विनाश करते हुए। सो, बंगलादेश में करोड़ों हिन्दुओं का क्रमशः ‘लुप्त’ होते जाना भारत समेत किसी गैर-मुस्लिम देश की सत्ता को दिखाई नहीं पड़ रहा है! यह उस बढ़त का एक उदाहरण और कारण दोनों है।

फलत:, जैसे पोलैंड, हंगरी, रोमानिया के बाद फ्रांस, इंग्लैंड, रूस की भी बारी आई थी, उसी तरह इजराइल और बंगलादेशी हिन्दुओं के सफाए के बाद भारतीय हिन्दुओं और यूरोपीय क्रिश्चियनों की बारी फौरन आएगी। पर इस असुविधाजनक सत्य की अनदेखी की जाती है। भारत में ही अधिकांश आधिकारिक विमर्श (और चुप्पी) इस का प्रमाण है।

जबकि एक आकार को छोड़कर भारत की स्थिति इजराइल जैसी ही है। वह अकेला यहूदी देश है, तो भारत अकेला हिन्दू देश है। जैसे इजराइल को मिटा देना ईरान और कई मुस्लिम देशों, शासकों का मंसूबा है, उसी तरह भारत को तोड़ना मिटाना पाकिस्तान और कई जिहादी-आतंकी संगठनों का उतना ही खुला इरादा है। जिस तरह ईरान द्वारा इजराइल के विरुद्ध हिंसक बयानबाजी की अनदेखी होती है, उसी तरह भारत के विरुद्ध आई.एस.आई. से लेकर जैशे मोहम्मद, इस्लामी स्टेट, इस्लामी जिहाद, आदि अनेक जिहादी संगठनों की वैसी ही घोषणाओं को नजरअंदाज किया जाता है। यह दशकों से हो रहा है।

भारत पर पाकिस्तान ने आज तक चार बार खुला आक्रमण किया। छिपकर अंदरुनी आतंकी घात करवाते रहना अलग से। हिन्दू भारत को इस्लामी बनाने या इसे नष्ट कर देने की खुली-छिपी चाह के अलावा ऐसे बाहर-अंदर हमलों का और कोई कारण नहीं! इस सीधे सच का सामना करने की ताब किन्हीं ‘लिबरल’, ‘सेक्यूलर’ नेताओं, बुद्धिजीवियों को नहीं है। इसलिए वे केवल मुँह बना कर बात टालने, बदलने की कोशिश करते हैं। उलटे विचित्र दलीलों से अब तक की भारतीय सरकारों या हिन्दुओं को ही दोष देने‌ लगते हैं।

परन्तु दरअसल इजराइल की जान पर वही जिहादी आफत है, जो भारत के हिन्दुओं पर पिछले हजार, विशेष कर सौ सालों से है! जैसे विविध इस्लामी दस्तों, संगठनों ने भारत पर बाहर-अंदर से हमले किए हैं, उसी तरह इजराइल के बनते ही उस पर मिस्र, इराक, जोर्डन, लेबनान, सीरिया ने इकट्ठा हमला किया था।

पर जो इजराइल को ही दुष्ट दोषी मान कर सारा विमर्श करते हैं, उन्हें याद रहे कि यहूदी लोग इतने शान्त स्वभाव रहे हैं कि खुद मुस्लिम उन्हें कायर कहते थे! मशहूर शायर अल्लामा इकबाल ने अपनी ऐतिहासिक ‘शिकवा’ (1909) में मुसलमानों को जिहाद हेतु प्रेरित करने के लिए यहूदियों-सा दब्बू होने का ताना दिया था। इकबाल के शब्द थे: ‘‘यह मुसलमाँ हैं जिन्हें देख के शरमाएं यहूद।’’ यानी, मुसलमान इतने ठंढे हो गए हैं कि यहूदी को भी शर्म आए!

सो, सचाई यह है कि हालातों ने यहूदियों को योद्धा बनने को मजबूर किया। वे समझ चुके हैं कि किसी देश की रक्षा कोई दूसरा नहीं करता। पर भारत के नेता आज भी दूसरों के भरोसे, भगवान भरोसे, अथवा चकमा प्रोपेगंडा, या पैसे-बिजनेस के लालच से जिहादी शत्रु को मोहने की आशा करते हैं। इसीलिए ईरान से लेकर कतर तक, और अंदर तबलीगियों, ‘सूफियों’ की लल्लो-चप्पो करते रहते हैं। तदनुरुप हमारे अधिकांश बुद्धिजीवी भी इजराइल के ही विरुद्ध लफ्फाजी करते हैं। अभी इजराइल के बदले फिलीस्तीन को मदद देने का उत्साह उसी क्रम में है।

इसलिए कठोर वास्तविकता यह है कि युद्धों में इजराइल की जीत उस का अस्तित्व सुरक्षित नहीं करती। हमास और उस की पीठ पर ईरान की कटिबद्धता पुनः यही दिखाती है। इस विकट स्थिति को यदि भारतीय बौद्धिक और नेता न समझें तो यह अपनी डेथ-विश जैसी सनक है।

Tags :

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *