‘श्रीकांत’ इसलिए भी एक बेहद ज़रूरी फ़िल्म है क्योंकि ये समाज की उस दक़ियानूसी सोच पर काफी तेज़ प्रहार करती है, जिसमें दिव्यांगों को बेचारगी से देखने की संस्कृति विकसित हुई है। फ़िल्म के एक संवाद में श्रीकांत कहता है कि हमारे देश में नेत्रहीनों की आबादी सिर्फ़ दो प्रतिशत है, जिन्हें बाक़ी के अंठानबे प्रतिशत लोग भी देख नहीं पाते। फ़िल्म का संवाद काफ़ी अच्छा है।
सिने-सोहबत
‘कोशिश’, ‘दोस्ती’, ‘सदमा’, ‘ब्लैक’, ‘क़ाबिल’, ‘इक़बाल’, ‘मार्गेरिटा विथ अ स्ट्रॉ’, ‘बर्फ़ी’, ‘तारे ज़मीन पर’ और इस तरह की बहुत सी फिल्मों और हाल ही में रिलीज़ हुई राजकुमार राव की फ़िल्म ‘श्रीकांत’ में एक समानता है। इन सभी में किसी न किसी शारीरिक या मानसिक संघर्ष और दिव्यांगता को केंद्र में रख कर बुनी गई कहानियां हैं। क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि पहले जिस डिफॉर्मिटी को ज़्यादातर हिंदी सिनेमा में नज़रअंदाज़ किया जाता था, अब ऐसी फिल्मों की तादाद लगातार बढ़ रही है। फिल्मों में ‘दिव्यांगता’ वाले किरदारों को न सिर्फ़ केंद्र में रखा जा रहा है, बल्कि उसे बेहद समानुभूति या एम्पेथी के नज़रिए से देखा जा रहा है। ये एक काफ़ी सकारात्मक ट्रेंड है। ज़ाहिर है इसका सीधा असर समाज के उस तबक़े पर ज़रूर पड़ता है, जिनके लिए सिनेमा मनोरंजन के साथ साथ अपनी ज़िन्दगी में विविध विषयों पर एक विचार बनाने और अनौपचारिक ही सही पर विमर्श करने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है। दुनिया के किसी भी समाज में अगर सिनेमा की वजह से किसी विषय पर एक संवाद की शुरुआत हो पाती है तो उसे सिनेमा की सार्थकता की दिशा में काफी सकारात्मक क़दम माना जाता है।
हालांकि ‘श्रीकांत’ एक बायोपिक है, जिसमे मनोरंजन के साथ साथ मोटिवेशन का भी एक संतुलित अनुपात है। फ़िल्म की कहानी बोलांट इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक श्रीकांत बोल्ला की प्रेरक ज़िन्दगी के संघर्ष से भरे सफ़र की है। इस फ़िल्म की एक ज़रूरी ख़ासियत ये भी है कि इसके फिल्मकार तुषार हीरानंदानी ने फिल्म में दिव्यांगता को बेचारगी की तरह दिखाने से साफ़ बच निकले हैं। इतना ही नहीं, श्रीकांत बोल्ला तो एक ऐसी प्रेरक शख़्सियत हैं, जिन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से न जाने कितने ‘दृष्टिहीन’ लोगों के लिए रोज़गार पैदा कर दिया। निर्देशक तुषार हीरानंदानी ने ‘श्रीकांत’ से पहले महिला सशक्तिकरण के विषय को ध्यान में रखते हुए एक बेहद दिलचस्प फ़िल्म ‘सांड की आंख’ बनाई थी।
‘श्रीकांत’ की कहानी आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम में एक बेहद गरीब परिवार में जन्मे एक ऐसे दृष्टिहीन लड़के श्रीकांत के बारे में है, जो अपनी कल्पना और मेहनत के दम पर एक बहुत बड़ा उद्योगपति बन जाता है। ‘श्रीकांत’ एक फ़िल्म के तौर पर जिस बात को सबसे अधिक साफ़गोई से रेखांकित करती है, वो है हमारी ‘कल्पना की उड़ान की शक्ति’।
स्कूल में साइंस पढ़ने से लेकर अमेरिका के एमआईटी तक स्कॉलरशिप लेकर पढ़ने और बाद में व्यापार के लिए निवेश इकट्ठा करके अपना स्टार्ट अप शुरू करके सफल होने की यात्रा को बेहद रीयलिस्टिक अंदाज़ में दिखाया गया है। श्रीकांत की ज़िंदगी का एक रोचक फ़लसफ़ा ये है कि दृष्टिहीन होने के नाते वो कहीं भी आसानी से भाग तो नहीं सकता लेकिन अपनी कठिनाइयों से लड़ ज़रूर सकता है। श्रीकांत अपनी ज़िन्दगी के हर सफर में पूरी शिद्दत से लड़ने वाला एक जुझारू फ़ाइटर है।
इस फ़िल्म की मुख्य भूमिका को निभाने में राजकुमार राव ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होंने बेहद बारीकी के साथ श्रीकांत के क़िरदार को समझा और बड़ी सादगी के साथ पर्दे पर जीवंत कर दिया है। राजकुमार राव के अलावा इस फ़िल्म में एक्ट्रेस ज्योतिका हैं जो कि श्रीकांत की टीचर, देविका की भूमिका में हैं। फ़िल्म में इनका किरदार काफ़ी अहम् है। फिल्म की कहानी में श्रीकांत की टीचर देविका उसे हर संघर्ष में मार्गदर्शन ही नहीं देती, बल्कि हमेशा एक मज़बूत सहारे की तरह साथ खड़ी रहती है। इससे पहले ज्योतिका को अजय देवगन की फिल्म ‘शैतान’ में उनकी पत्नी की भूमिका में देखा गया था।
श्रीकांत की लव इंटरेस्ट के तौर पर अलाया एफ़ ने भी काफी संतुलित काम किया है। साथ ही श्रीकांत के दोस्त और बिज़नेस पार्टनर के किरदार में शरद केलकर ने ज़बरदस्त भूमिका निभाई है। शरद केलकर को बहुचर्चित वेब सीरीज़ ‘फ़ैमिली मैन’ में काफ़ी पसंद किया जाता है। पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम की भूमिका में जमील ख़ान काफ़ी जमे हैं।
निर्देशक तुषार हीरानंदानी ने इस फ़िल्म के निर्देशन में अच्छी कसावट बरती है। आमतौर पर बायोपिक पर इस बात का खतरा रहता है कि कहीं वो व्यक्ति विशेष के प्रचार मात्र के लिए बनाया गया कॉन्टेंट तो नहीं है। पहले भी कई लोगों की ज़िन्दगियों पर बनी फिल्मों पर वाइट वॉशिंग के आरोप लगते रहे हैं। ‘श्रीकांत’ इन सभी दुष्प्रभावों से मुक़्त है। इस फ़िल्म में श्रीकांत के उन नकारात्मक शेड्स को दर्शाने में भी कोई कोताही नहीं बरती गई है जो बीच बीच में इस किरदार की यात्रा में गाहे बगाहे आते जाते रहते हैं।
‘श्रीकांत’ फ़िल्म के संगीत की बात की जाए तो दो गाने ‘हंसना सीखा दे’ और ‘हम तेरे प्यार में मुस्कुराने लगे’ तो ताज़गी, मनोरंजन और संघर्ष के दौरान उत्साह का अहसास कराने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं लेकिन इस फ़िल्म के थीम म्यूज़िक ने एक स्वादिष्ट दाल की कटोरी में कंकड़ का काम किया है। दरअसल, ‘श्रीकांत’ में थीम म्यूज़िक के नाम पर ‘क़यामत से क़यामत तक’ का मशहूर ट्रैक ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’ को रीक्रिएट कर लिया गया है, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं लगी। बेहतर होता की इसके लिए ताज़गी भरी म्यूज़िकल पीस की कम्पोजीशन होती।
इसके बावजूद ‘श्रीकांत’ इसलिए भी एक बेहद ज़रूरी फ़िल्म है क्योंकि ये समाज की उस दक़ियानूसी सोच पर काफी तेज़ प्रहार करती है, जिसमें दिव्यांगों को बेचारगी से देखने की संस्कृति विकसित हुई है। फ़िल्म के एक संवाद में श्रीकांत कहता है कि हमारे देश में नेत्रहीनों की आबादी सिर्फ़ दो प्रतिशत है, जिन्हें बाक़ी के अंठानबे प्रतिशत लोग भी देख नहीं पाते। फ़िल्म का संवाद काफ़ी अच्छा है। एक और दिलचस्प दृश्य में श्रीकांत कहता है कि, “आप हम दृष्टिहीनों पर तरस मत खाईये, हम आपको बेच खाएंगे’।
फ़िल्म में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का एक कथन भी काफ़ी प्रमुखता से दिखाया गया है कि ‘क़िस्मत के सहारे मत रहिए बल्कि मेहनत कीजिए और अपनी क़िस्मत खुद लिखिए। मेहनत ही सब कुछ है और क़िस्मत है आपका बोनस’।
कुल मिलाकर, श्रीकांत बोल्ला की ज़िन्दगी जितनी मर्मस्पर्शी और प्रेरक है उसे उनकी बायोपिक ‘श्रीकांत’ में उतनी ही ईमानदारी और कौशल से परदे पर उतारा जा सका है। दुनिया के ‘ब्लाइंड कैपिटल’ के नाम से जाने जाने वाले हमारे इस देश के एक कल्पनाशील और मेहनती दृष्टिहीन उद्यमी ने अपनी दिव्य दृष्टि से लाखों लोगों का जीवन सुधार दिया और उनके इस सार्थक सफ़र को फ़िल्म ‘श्रीकांत’ ने कई विचारोत्तेजक विमर्शों के लिए एक मुनासिब जगह दी है।
फ़िल्म नेटफ़्लिक्स पर भी है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़” के होस्ट हैं।)